________________
३०२ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.५. गा. ९०
० लाघवोत्पादकवचनस्याऽप्रयोक्तव्यत्वम् ० नावुदक-द्रोणी-पीठक-चङ्गबेरा-लाङ्गल-मयिक-यन्त्रयष्टि-नाभिगण्डिकासन-शयन-यान-द्वार-पात्रादिपरिग्रहः तद्योग्यान् वृक्षान्न ४/ उ.२-सू. १३८) इति । 'आचाराङ्गाक्षरगमनिकाकारस्तु 'उदगदोणिजोग्गा वा' इति पाठमङ्गीकृतवान्। प्रश्नव्याकरणवृत्तौ - 'द्रोणी = नौः' (प्रश्न. १/१३) इत्युक्तम्। कौटिल्यार्थशास्त्र तु 'द्रोणी दारुमयो जलाधारो जलपूर्णः' (कौ. अ. २/५६) इत्युक्तम्।
चंगबेरा = काष्ठपात्रीति वृत्तिकारः। प्राचीनतमचूर्णी 'कट्ठमयं समितातितिम्मणमलणं चंगेरिगासंठितं चंगबेरं' इत्युक्तम् । चूर्णी तु ' चंगबेरं कट्ठमयभायणं भण्णइ, अहवा चंगेरी वंसमयी भवति' इत्युक्तम् । प्रश्नव्याकरणवृत्तौ तु 'चंगेरी महती काष्ठपात्री बृहत्पटलिका वा' (प्रश्न. आश्रवद्वार १/१३) इत्युक्तम्। लाङ्गलं = हलं। मयिकं = उप्तबीजाच्छादनमिति वृत्तिकारः। प्राचीनतमचूर्णौ तु 'वाहितच्छेत्तोवरि समीकरण-बीयसारणत्थं समं कट्ठ मइयं' इत्युक्तम् । चूर्णी तु 'मइया नाम वाहेऊण बीयाणि पच्छा ताए ऊहाडिज्जति' इत्युक्तम् । प्रश्नव्याकरणे तु एतत्स्थाने 'मात्तिय' इत्युक्तम् । व्याख्यातं च तद्वृत्तिकृता 'मत्तिकं येन कृष्टं वा क्षेत्रं मृज्यते' | आचारांगे च एतत्स्थाने किलिय'त्ति उक्तम् । तथाहि - पीढचंगबेर-नंगल-कुलिय-जंतलठ्ठी-नाभिगंडी-आसणजोग्गाइ वा।' (आचा. २/४/२/१३८) नाभिः= शकटरथाङ्गमिति वृत्तिकारः । प्राचीनतमचूर्णी तु' सगडादीण रहंगसण्णिबंधणकटुं नाभी' इत्युक्तम्। .....
गण्डिका इति। 'गांडिया णाम सुवण्णगारस्स भण्णइ जत्थ सुवण्णगं कुट्टेइ' इति चूर्णिकार । वृत्तिकारोऽपि 'गण्डिका सुवर्णकाराणामधिकरणी (आहिगरणी) स्थापनी भवती'त्याह । प्राचीनतमचूर्णी तु 'गांडिया चम्मारादीणं दीहं चउरस्सं कट्ठगं' इत्युक्तम् । कौटिल्यार्थशास्त्रव्याख्याकारस्तु 'गण्डिकासु काष्ठफलकेषु कुट्टयेत्' (कौ. अ. २/३१) इति स्वमतं प्रदाऽग्रे 'गण्डिकाभिः = प्लवनकाष्ठैरिति माधवः' (कौ. अ. १०/२) इति पराभिप्रायं प्रदर्शितवान् ।
'आसनं = आसन्दकादीपति वृत्तिकारः ।। 'आसणं पीठिकादि' इति अन्ये। शयनं = पल्यंकादि । यानं युग्यादि । तदुक्तं दशवैकालिके तहेव गंतुमुज्जाणं पव्वयाणि वणाणि अ। रुक्खा महल्ल पेहाए, नेवं भासिज्ज पन्नवं ।। अलं काष्ठनिर्मित वाहन ग्राह्य है। काष्ठमय दरवाजा द्वार शब्द से वाच्य है। पात्रशब्द से काष्ठपात्र अभिप्रेत है। आदि शब्द से काष्ठ की बारी आदि ग्राह्य हैं। अस्तु।
एतादृशं. इति । यदि साधु भगवंत बड़े पेड़ को देख कर ऐसा कथन करे कि 'यह वृक्ष प्रासाद के योग्य है' तब संभव है कि उस पेड का स्वामी व्यंतर देव साधु के प्रति आग बबूला हो जाए, क्योंकि व्यंतर उस वचन को सुन कर समझ सकता है कि मेरे निवासभूत वृक्ष को साधु प्रासाद के योग्य कहते हैं और यह बात किसीके सुनने में आए तो वह तो मेरा यह पेड काट डालेगा'। यहाँ यह शंका करने की जरूरत नहीं है कि -"देव तो शक्तिसंपन्न होते हैं वे तो अन्य पेड भी अपनी शक्ति से बना सकते हैं तब उन्हें उस वचन को सुन कर आग बबूला होने की क्या आवश्यकता है?" यह शंका इसलिए नामुनासिब है कि - जीव को छोटी से छोटी भी अपनी चीज पर ममता-मूर्छा होती है जिसके सबब उस चीज का नष्ट होना जान कर शक्तिशाली भी जीव बेचेन बनता है। मोहराजा की जीवों के उपर यह सिरजोरी है। इसमें ताज्जुब होने की कोई जरूरत नहीं है। __शंका :- सभी वृक्ष थोडे ही व्यंतर देव से अधिष्ठित हैं? अधिष्ठित हो तो भी यदि व्यंतर देव अनुपयोग आदि से न सुने तब तो कोई दोष नहीं है न? क्योंकि देव को भी अनेक काम रहते हैं।
समाधान :- सलक्षणो. इति। हम यह नही जानते हैं कि - 'यह वाक्य देव सुनेगा या नहीं'। अतः तादृश वचन का प्रयोग परिहार्य है, क्योंकि जिससे अनर्थ की संभावना भी हो उस कार्य को शिष्ट पुरुष नहीं करते हैं। दूसरी बात यह है कि देव अगर अनुपयुक्त भी हो तब भी वहाँ आने-जाने वाले अन्य लोग तो उस वाक्य को सुन कर यह समझते हैं कि ये साधु भगवंत वृक्ष के लक्षण के अच्छे जानकार लगते हैं। इनके वचन से यह वृक्ष सुलक्षणयुक्त प्रतीत होता है। अतएव इस वृक्ष को काटना चाहिए'। ऐसा सोच कर गृहस्थ उस वृक्ष को काटे यह भी संभव है। इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि - 'जिसको बार-बार बिना सोचे
१ दृश्यतां आचारांगसूत्रमक्षरगमनिकान्वितं श्रीजैनसंघपेसुआप्रकाशितं - पृ. ३५८ ।