Book Title: Bhasha Rahasya
Author(s): Yashovijay Maharaj, 
Publisher: Divyadarshan Trust

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Page 324
________________ २९३ * गोत्रसप्तकाभिधानम् * कारणे तूत्पन्ने स्त्रियं पुरुष वा नामधेयेनामन्त्रयेत् तदस्मरणे च 'हे काश्यपगोत्रे। हे काश्यपगोत्र!' इत्यादिगोत्राभिलापेन वाऽऽमन्त्रयेत्।।८७।। अन्यच्च 'पंचिदियपाणाणं थीपुरिसानिण्णए वए जाइं। इहरा उ विपरिणामो जणवयववहारसच्चे वि।।८।। नरनारीगतवागविधेरुक्तत्वात् पञ्चेन्द्रियप्राणाना=गवादीनां स्त्रीपुरुषानिर्णये इति भावप्रधाननिर्देशात् विप्रकृष्टदेशावस्थितत्वेन कारणे विति। अनेन निष्कारणभाषणनिषेधो व्यजते । तदुक्तमुत्तराध्ययने 'न निरटुं' इति । (उ. १/२५) नामधेयेनेति। तदुक्तं दशवैकालिके नामधिज्जेणं णं बूआ इत्थिगुत्तेण वा पुणो । जहारिहमभिगिज्ज, आलविज्ज लविज्ज वा ।। नामधिज्जेण णं बूआ पुरिसगुत्तेण वा पुणो। जहारिहमभिगिज्ज, आलविज्ज लविज्ज वा ।। (द.वै. ७/१७-२०) __ आचारांगेऽप्युक्तम् ‘से भिक्खू वा भिक्खुणी वा पुमं आमंतमाणे आमंतिए वा अपडिसुणेमाणं नो एवं वइज्झाहोलित्ति वा गोलित्ति वा वसुलेत्ति वा कुपक्खेति वा घडदासोत्ति वा साणेत्ति वा तेणित्ति वा र मुसावाइत्ति वा एयाइं तुमं ते जणगा वा एअप्पगारं भासं सावज्जं सकिरियं जाव भूओवघाइयं अभिकंख नो भासिज्ज । से भिक्खू वा भिक्खुणि वा पुमं आमंतेमाणे आमंतिए वा अप्पडिसुणेमाणे एवं वइज्जा अमुगे इ वा आउसो त्ति वा आउसंतारो त्ति वा सावगे त्ति वा धम्मिए त्ति वा धम्मपिए त्ति वा एयप्पगारं भासं असावज्जं जाव अभिकंख भासिज्जा। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा इत्थिं आमंतेमाणे आमंतिए वा अप्पडिसुणेमाणिं नो एवं वइज्झा-होलिइ वा गोलिति वा इत्थीगमेणं नेयव्वं । से भिक्ख वा इत्थिं आमंतेमाणे आमंतिए वा अप्पडिसणेमाणी एवं वइज्जा आउसो त्ति भइणित्ति वा भोई ति वा भगवईत्ति वा साविगे ति वा उवासिए त्ति वा धम्मिए त्ति वा धम्मिप्पिए त्ति वा एयप्पगारं भासं असावज्जं जाव अभिकंख भासिज्जा ।। (आचा. द्वि. श्रु. अ. ४/उ. १. सू. १३४) गोत्राभिधानेनेति । गोत्राणि च सप्त। तदुक्तं स्थानाङ्गे सत्त मूलगोत्ता पन्नत्ता तं जहा-कासवा, गोतमा, वच्छा, कोच्छा, कोसिता, मंडवा, वासिट्ठा। (स्था. ७/३/५५१) इति । गोत्राभिधानेनामंत्रणे नाप्रीत्यभिसम्बन्धशङकादयो दोषा भवन्तीति भावः ||८७।। पञ्चेन्द्रियाणां प्रधानत्वात् इतरेषु स्त्रीपुरुषविशेषाभावाच्च आह-पंचिंदियपाणाणं इति। पञ्चेन्द्रियनरनारीविषयकवचनविधिनिषेधयोः प्रतिपादितत्वात, नारकविषयकवचनव्यवहारस्यास्माभिः सहाभावात, देवविषयकवचनव्यवहारस्य इस तरह इस श्लोक में कालशंकित, देशशंकित, कालअनवधृत, देशअज्ञात भाषा, उपघातक भाषा परुष (कठोर) भाषा, संगादिदूषित भाषा, अप्रीतिजनक भाषा आदि को बोलने का निषेध किया गया है। इससे यह सूचित होता है कि प्रयोजनवश किसीसे, कब, कहाँ, किस शब्द से किस ढंग से बात करें? इस विषय में सावधानी रखना साधु एवं साध्वी के लिए अतिआवश्यक है।।८७।। ___ ग्रंथकार श्रीमद्जी जरूरत पड़ने पर साधु भगवंत किस, शब्दों का प्रयोग न करे और किस शब्द का प्रयोग करे? इस विषय को वाक्यशुद्धि अध्ययन के अनुसार ८८ वी गाथा से सुस्पष्ट करते हैं। गाथार्थ :- पंचेन्द्रिय प्राणियों के विषय में स्त्रीत्व या पुरुषत्व का निर्णय न होने पर जाति का प्रयोग करना चाहिए, अन्यथा जनपदव्यवहार सत्य भाषा होने पर भी विपरिणाम होता है।८८| विवरणार्थ देखने से गाथार्थ स्पष्ट हो जाएगा। देखिए * विशेषधर्मानिर्णयदशा में साधारणधर्म का प्रतिपादन कर्तव्य * विवरणार्थ :- मूल गाथा में 'पंचिंदियपाणाणं' सामासिकपद ग्रहण किया गया है मगर स्त्रीमनुष्य और पुरुषमनुष्य के सम्बन्धी वचन का विधि-निषेध ८७ वी गाथा में और उसके विवरण में बताया गया है। इसलिए पंचिंदियपाणाणं' पद से यहाँ पंचेन्द्रिय तिर्यंच १ पञ्चेन्द्रियप्राणिनां स्त्रीपुरुषानिर्णये वदेज्जातिम् । इतरथा तु विपरिणामः जनपदव्यवहारसत्येऽपि।।८८||

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