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२९२ भाषारहस्यप्रकरणे
स्त. ५. गा. ८७
● प्रवचनलाघवादिदोषजनकभाषापरिहारः तथा स्त्रियमधिकृत्य 'हे आर्थिके ! प्रार्जिके!' इत्याद्या तथा 'हे भट्टे! स्वामिनी!' त्याद्या, 'हे होले! गोले! इत्याद्या वा या सग तत्प्रद्वेषप्रवचनलाघवादिदोषजननी पुरुषमधिकृत्यापि च पुल्लिंगाभिलापेनोक्तरूपा या आमन्त्रणी तामपि न भाषेत ।
आर्थिके इति । मातुः पितुर्वा माता = आर्यिका तस्या अपि याऽन्या माता सा प्रार्जिका इत्यधुनाऽपि महाराष्ट्रदेशे प्रसिद्धम्। ननु अस्या निषेधे किं कारणं ? उच्यते स्नेहाभिसम्बन्धशङ्कादयो दोषाः स्युः । तदुक्तं श्रीजिनदासगणिना 'एयं भणंतस्स हो जायइ परोप्परो, लोगो य भणेज्जा एवं वा लोगो चिंतेज्जा-एसऽज्जवि लोगसन्नं णं मुयइ चाटुकारी वा संगो वा परोप्परो होज्जा, नियगा वा जाणेज्जा - एस खोहित्तुकामोत्ति, रूसेज्ज वा जहा समणा या एवं भइ को जाणइ कोऽवि एसो त्ति एवमादि दोसा भवेज्जा । (द.वै.जि.चू. पृ. २५० )
हे होल इति । नानादेशापेक्षया कुत्सादिगर्भाणि एतानि आमन्त्रणवचनानि । तदुक्तं श्रीहरिभद्राचार्येण 'होलादिशब्दास्तत्तद्देशप्रसिद्धितो नैष्ठुर्यवाचकाः, अतः तत्प्रतिषेधः (द.वै. ७/१४ हा.टी.) तदुक्तं श्रीजिनदासगणिनाऽपि एयाणि वि देसं पप्प आमंतणाणि । तत्थ वरदातडे हलेत्ति आमंतणं, लाडविसए समाणवयमण्णं वा आमतणं जहा हलित्ति, अति मरहट्ठविसए आमंतणं दोमूलक्खरगाणं चाटुवयणं अण्णेत्ति, भट्टेति लाडाणं पतिभगिणि भण्णइ, सामिणि गोमणिओ चाटुए वयणं होलेत्ति आमंतणं । (द. वै.जि.चू. पृ. २५० ) लाघवादयो दोषा भवन्तीति तन्निषेध इतिभावः । तदुक्तं अगस्त्यसिंहसूरिणाऽपि 'होले, गोले, वसुले त्ति देसीए लालणगत्थाणीयाणि पियवयणामंतणाणि। एतेहि माधुज्जरणीय थीजणो त्ति सव्वेहिं इत्थियं नेव आलवे । (द.वै.अ. चू. पृ. १६९) तदुक्तं दशवैकालिकेऽपि तहेव होले गोलित्ति, साणे वा वलित्ति अ । दमए दुहए वावि नेव भासिज्ज पन्नवं । । अज्जिए पज्जिए वावि अम्मो माउसिअत्ति अ । पिउस्सिए भायणिज्जत्ति धूए णत्तुणिअत्ति अ ।। हले हलित्ति अन्नित्ति भट्टे सामिणि गोमिणि । होले गोले वसुलित्ति इत्थि नेवमालवे ।। (द.वै. ७/१४-१५-१६) ।
पुरुषमधिकृत्येति । हे आर्यक! हे भट्ट ! हे होल! इत्यादिरूपा । तदुक्तं दशवैकालिके अज्जए पज्जए वावि बप्पो चुल्लपिउत्ति अ । माउलो भाइणिज्झत्ति, पुत्ते णत्तुणिअत्ति अ ।। हे भो हलित्ति अन्नित्ति भट्टे सामिअ गोमिअ । होल गोल वसुलित्ति पुरिसं नेवमालवे ।। (द.वै. ७/१८-१९ ) ।
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उस आमंत्रित स्त्री में जातीय सम्बन्ध होने की शंका होने के सबब तादृश शब्द से संबोधन करना निषिद्ध है। इसी तरह 'होले, गोले' इत्यादि शब्द प्रियवचनवाले आमंत्रण हैं, जिनको सुन कर संबोध्य स्त्री और संबोधन करने वाले साधु में परस्पर स्नेह आदि उत्पन्न होता है, जिसका नतीजा बहुत बूरा होने की संभावना होती है और लोगों को भी तादृश शब्द सुन कर कुछ शंका होने का अवकाश रहता है, जिसके सबब साधु के प्रति द्वेष और जिनशासन की लघुता - हीलना-अपभ्राजना आदि दोष उत्पन्न होते हैं। इसी तरह पुरुष की अपेक्षा 'हे दादा! हे नाना! हे परदादा!' हे परनाना !' इत्यादि शब्दों से गृहस्थ को आमंत्रित करना साधु के लिए निषिद्ध है। दादा और पौत्र की या चाचा और भतीजा आदि की दीक्षा होने के बाद भी अपने दीक्षित दादा या चाचा आदि से 'हे दादा! हे चाचा! हे पिताजी महाराज! हे मामाजी महाराज!' इत्यादिरूप से संबोधन करना दीक्षित पौत्र और भतीजा आदि के लिए अनुचित है। तात्पर्य यह है कि सांसारिकसम्बन्ध के स्मारक एवं ममत्वकारक होने से संसारी लोग की तरह चाचा, भतिजा, पिताजी महाराज आदि शब्दों का प्रयोग साधु-साध्वी को नहीं करना चाहिए, चाहे सम्बन्ध हो या न हो ।
* मूलनाम या गोत्रवाचकशब्द से आमंत्रण करना चाहिए *
कारणे. इति । जिन शब्दों से संबोधन करने पर दोष की प्राप्ति होती है उन शब्दों के प्रयोग का निषेध बता कर विवरणकार कहते हैं कि यदि कारण उपस्थित हो तब उस स्त्री या पुरुष को उसके नाम से ही आमंत्रण देना चाहिए जिससे लोगों को साधु के प्रति न कोई शंका हो और न तो संबोध्य स्त्री या पुरुष को साधु के प्रति अप्रीति या द्वेष हो । यदि उस स्त्री या पुरुष का नाम याद न हो तब उसके गोत्र के वाचक शब्द से उसे संबोधन करना चाहिए। जैसे कि 'हे काश्यपगोत्रे! हे काश्यपगोत्र !' इत्यादि ।