Book Title: Bhasha Rahasya
Author(s): Yashovijay Maharaj, 
Publisher: Divyadarshan Trust

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Page 330
________________ २९९ * अवक्तव्यभाषादोषावेदनम् * तथा दोह्यादिष्वपि अर्थेषु साध्यक्रियाभिधायीनि वचनानि न वदेत्, यथा-दोह्या गावः, दम्या गोरथकाः, वाह्या रथयोग्या वेति । 'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा मणुस्सं वा गोणं वा महिसं वा मिगं वा पशुं वा पक्खि वा सरीसिवं वा जलयरं वा सेत्तं परिवूढकायं पहाए णो एवं वदेज्जा-थुल्लेति वा पमेतिलेति वा वट्टेति वा वज्झेति वा वादिमेति वा एयप्पगारं भासं सावज्जं जाव णो भासिज्जा । से भिक्खू वा भिक्खुणी वा मणुस्सं वा जाव जलयरं वा से त्तं परिवूढकायं पेहाए एवं वदेज्जा-परिवूढकाएत्ति वा उवचितकाए त्ति वा थिरसंघयणेत्ति वा चियमंससोणिए त्ति वा बहुपडिपुण्णं इंदिएत्ति वा एयप्पगारं भासं असावज्जं जाव भासिज्जा' ।। (आचा. २/४/२/१३८) तदुक्तं चूर्णावपि 'तत्थ मणुस्सो अप्पत्तियं करेज्जा, अक्कोसेज्ज वा, लुणणडहणाणि वा, करेज्जा, एवमादि। महिसादि तिरिया तस्स वयणं सोऊण मंसादीणं अट्टाए मारेजेज्जा, न केवलं एवं धम्मविरुद्धं किन्तु लोगविरुद्धमवि। कहं? तमेरिसं भासमाणं सोऊण लोगस्स चिन्तिया भवेज्जा जहा - किमेतस्स पव्वतियस्स एयारिसाए अहिद्रोणाए वया निसिरियाएत्ति?" (द.वै.जि.चू.पृ. २५३)। साध्यक्रियेति। प्रकृते साध्यत्वं भाविकालवृत्तिधर्मवत्त्वं निष्पाद्यत्वं वा न तु अवयवत्वावच्छिन्नविषयतानिरूपितविषयताप्रयोजकत्वम्। तेन निष्पाद्यायाः क्रियाया अभिधायीनीत्यर्थः। क्रियान्तराकाङ्क्षानुत्थापकतावच्छेदकरूपवत्त्वं साध्यक्रियात्वमित्यन्ये। दोह्याः = दोहार्हाः, दोहसमय आसां वर्तत इति यावत् । गोरथका इति। कल्होडा इति श्रीहरिभद्रसूरयः । देशीशब्दोऽयं वत्सतरवाचकः । तदुक्तं देशीनाममालायां 'कल्होडो वच्छयरे' (दे.ना. २/६ पृ. ५९) इति। प्राचीनतमचूर्णी तु - 'गोजोग्गा रहा गोरहजोग्गत्तणेण गच्छंति गोरहगा, पंडुमधुरादीसु किसोरसरिसा गोपोतलगा अण्णत्थ वा तरुणतरुणारोहा जे रहम्मि वाहिज्जति अमदप्पत्ता खुल्लगवसभा वा ते वि।' (द.वै.अ.चू.पृ. १७०) इत्युक्तम। श्रीजिनदासगणिमहत्तरास्तु 'गाओ जे (रहजोग्गा) रहमिव वा धावति ते गोरहगा भण्णंति, अहवा गोयरगा य पसवसमण्णा भवंति' (द.वै.जि.चू.पू. २५३) इति व्याचक्षते। गोरथकः त्रिहायणो बलिवर्दः इत्यन्ये । ___ वाह्या इति । चूर्णी - 'वाहिमा नाम जे सगडादीभारसमत्था' इत्युक्तम् । प्राचीनतमचूर्णौ तु 'वाहिमा णंगलादिसव्वहै' इत्यादि शब्दों का प्रयोग करने के लिए प्रवृत्त होते हैं। दूसरी बात यह है कि प्रमेदुर आदि शब्द का प्रयोग लोकविरुद्ध भी है। 'यह आदमी तगडा है - पट्ठा है' इत्यादि वाक्यों को, जो साधु भगवंत से कहे गये हैं, सुन कर लोगों को भी यह महसूस होता है कि 'न मालुम, यह साधु है या नहीं, क्योंकि यह असभ्य एवं पीडाकर वाक्य का प्रयोग करता है'। इस तरह यह सिद्ध होता है कि धर्मविरुद्ध और लोकविरुद्ध होने से स्थूल-प्रमेदुर-वध्य आदि शब्दों से घटित भाषा साधु के लिए निषिद्ध हैं। चाहे वह भाषा व्यवहार से सत्य हो या न हो। वहाँ परिवृद्ध आदि शब्दों का ही प्रयोग करना चाहिए, क्योंकि वे शब्द न धर्मविरुद्ध है और न लोकविरुद्ध । साधु की परिभाषा के ज्ञाता होने से श्रोता साधु को वक्ता साधु के तात्पर्य का ज्ञान हो जाता है। अतः वक्ता साधु का प्रयोजन भी सिद्ध होता है। * निष्पाद्य क्रिया के सूचक विशेषण का प्रयोग नामुनासिब * तथा दोह्या. इति। जैसे धर्मविरुद्ध और लोकविरुद्ध वचन परिहार्य हैं वैसे साध्य क्रिया का अभिधायक वचन भी त्याज्य है। साध्य क्रिया का मतलब यह है कि जो क्रिया वर्तमान में निष्पाद्य है, पूर्व में निष्पन्न नहीं हो चुकी है। जैसे कि गाय दुहने योग्य है, बैल दमन करने योग्य है' इत्यादि वाक्य । यह गाय दुहने योग्य है - इस वाक्य को सुन कर गोपाल आदि को यह प्रतीत होता है कि - "साधु भगवंत कहते हैं कि अभी गायों के दुहने का समय हैं । अतः वर्तमान में गोदोहन मेरा कर्तव्य है अर्थात सांप्रत काल में सब से पहले गोदोहन क्रिया को ही मुझे करना चाहिए।" इस निश्चय के सबब गोपाल आदि गाय के दुहने में प्रवृत्त होते हैं। इस तरह सावद्य क्रिया में प्रवर्त्तनरूप अधिकरण दोष साधु को प्राप्त होता है तथा दूसरे सुननेवालों को यह प्रतीत होता है कि - 'साधु भगवंत भी संसार के कार्यों का उपदेश दे रहे हैं, कमाल है!' इस तरह तादृश वचन के प्रयोग से साधु भगवंत की और जिनशासन की लघुता होती है। अतः तादृश वचन का प्रयोग त्याज्य है। विवरण में साध्यक्रिया के उदाहरण में दूसरा उदाहरण

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