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२९४ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.५. गा. ८८
० पृच्छादौ साधारणवचनप्रयोगानुज्ञा ० मिथः स्त्रीत्व-पुरुषत्वानिश्चये सति, जातिं वदेत्। मार्गप्रश्नादौ प्रयोजने उत्पन्ने सति 'अस्माद् गोरूपजातात् कियद्रेण इदं?' इत्येवमादि (ग्रन्थाग्रम्-९०० श्लोक) लिङ्गाऽविशिष्टमुभयसाधारणधम्म प्रतिपादयेत् अन्यथालिङ्गव्यत्ययेन मृषावादापत्तेः। विना तु कारणमव्यापार एवोचितः साधूनामिति ध्येयम्।
ननु यद्येवं लिङ्गव्यत्ययेन मृषावादस्तदा प्रस्तर-मृत्तिका-करकावस्यायादीनां नियमतो नपुंसकत्वे कथमन्यलिङ्गप्रयोगा?
कादाचित्कत्वादाह गवादीनामिति। भावप्रधाननिर्देशादिति । अयं च 'स्त्रीत्व-पुरुषत्वाऽनिर्णय' इत्यत्र त्वप्रत्यये हेतुः । विप्रकृष्टदेशावस्थितत्वेनेति । अयं च तयोरनिर्णये हेतुः । उभयसाधारणधर्ममिति स्त्रीपुरुषसाधारणधर्ममिति । अन्यथा = जात्यप्रतिपादने। अव्यापार=वचनाप्रयोगः। तदुक्तं चूर्णी - पंचिदिएसु पाणेसु दूरओ अवस्थिएसु जइ ताव कारणं णत्थि ततो अव्वावारो चेव साहूणं । अह पओयणं किंचि भवइ तं पंथं वा ण जाणइ उवदिसइ जाहे वा तेसिं पाणाणं इत्थीपुरिसविसेसे अजाणमाणो वा णो एवं वदेज्जा जहा-एसा इत्थी अयं पुरिसोत्ति। पायसो य लोगो अविसेसियं आलवइ अभिहाणेण भाणियव्वं जहा गोजातियाइ चरंति कागजातिया वा हरंति एवं महिसपसआदिवि भाणियव्वा । (द.वै.जि.पू.पृ. २५२)
स्त्रीपुरुषत्वानिर्णये सति जाति विना एकतरप्रयोगे लिङ्गविपर्ययेन मृषावादाभ्युपगमे प्रस्तरादीनामेकेन्द्रियत्वेन (ग्रं. ६००० श्लोक) नियमतो नपुंसकत्वे सिद्धे कथं 'अयं प्रस्तरः इयं मृत्तिका' इत्यादीनां भिन्नलिङ्गप्रयोगाणां मृषात्वमेव स्यादित्याशयेन शङ्कते ननु। भावितमेवैतदिति न पुनः तन्यते। व्युत्पन्नः प्रत्युत्तरयति-जनपदेति।
गाय आदि पशु का ग्रहण अभिप्रेत है। तथा मूलगाथा में थीपुरिसानिण्णए' ऐसा कहा गया है मगर वह निर्देश भावप्रधान है। अर्थात् स्त्री और पुरुष का अनिर्णय होने पर - ऐसा अर्थ अभिप्रेत नहीं है किन्तु 'स्त्रीत्व और पुरुषत्व का अनिर्णय होने पर' - यह अर्थ विवरणकार को अभिमत है। स्त्री और पुरुष द्रव्य धर्मी कहा जाते हैं, भाव=धर्म नहीं। जब कि स्त्रीत्व और पुरुषत्व भाव-धर्म कहे जाते हैं। यहाँ निर्दिष्ट स्त्री और पुरुष पद भावप्रधान होने से उनका अर्थ स्त्रीत्व और पुरुषत्व होता है। अस्तु! प्रस्तुत में तात्पर्य यह है कि गाय - बैल आदि बहुत दूर देश में रहे हुए होने के सबब अपनी निगाह से 'यह गाय ही है या यह बैल ही है' इत्यादि निर्णय नहीं होता है और उस प्राणी को बताने की आवश्यकता हो तब उसमें गाय या बेल शब्द का प्रयोग नहीं करना चाहिए किन्तु गाय और बैल में साधारण धर्म जाति का उल्लेख करना चाहिए। देखिए जब साधु भगवंत विहार करते हैं और आगे जाने का मार्ग किसीसे पूछना हो या वैद्य का घर जानना हो तब किसी गोपाल से दूरस्थित प्राणी को, जो गाय है या बैल है' ऐसा निर्णय साधु महाराज को नहीं हुआ है, बता कर ऐसा पूछना चाहिए कि 'उस गोजातीय (गाय या बेलरूप से दीखनेवाले) प्राणी से वैद्य का घर कितना दूर है? गोत्वजाति गाय और बैल दोनो में रहती है। यदि विशेष निश्चय न होने पर भी उस बेल से वह मार्ग कितना दूर है?' इस तरह प्रश्न किया जाय और वास्तव में वह बैल न हो किन्तु गाय हो तब तो विपरीत लिंग का (स्त्रीलिंगयुक्त में पुल्लिंग का) कथन करने से मृषावाद की यानी साधु में मृषावादित्व की प्राप्ति होगी। अतएव तादृशस्थल में विशेषलिंग का प्रयोग न कर के उभयसाधारण जाति वाचक पशु, प्राणी आदि पद का ही प्रयोग करना चाहिए। गुजराती में उभयलिंग साधारण कुतरु, बलाडु, गधेडु, ढोर, वाछरडु' इत्यादि शब्द का तब प्रयोग करने की व्यवस्था प्रसिद्ध है। यहाँ यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि यह भाषा कारणविशेष की उपस्थिति होने पर ही प्रयोग करने योग्य हैं। यदि कुछ कारण उपस्थित न हो तब तो मूक रहना ही साधु के लिए उचित है।
* पंचेन्द्रिय में विपरीतलिंगवाचक भाषा व्यवहारसत्य होने से अत्याज्य - पूर्वपक्ष * पूर्वपक्ष :- ननु यद्येवं. इति। यदि आपकी दृष्टि से विपरीत लिंग का प्रयोग होने पर मृषावाद होता है तब तो एकेन्द्रिय आदि में पुल्लिंग या स्त्रीलिंग का अभिधान करने पर अवश्य मृषावाद ही होगा। आशय यह है कि एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय में सदा के लिए नपुंसकवेद का उदय रहता है - ऐसा आगम में बताया गया है। अतः वे नपुंसक ही होते हैं - यह बात निर्विवाद सिद्ध है। फिर भी उनमें पुल्लिंग और स्त्रीलिंग का प्रयोग देखने में आता है। देखिए