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२९६ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.५. गा. ८८
.० सामाचारीकथनस्य गुणावहत्वम् ० अतो व्यतिरेके उक्तदोषात् अन्वये च पृष्टानां सामाचारीकथनेन गुणसम्भवात् यथोक्तमेव विधेयमित्यवधेयम् ।।८८ ।। किञ्च । पतंगो इत्थिणिद्देसो मधुकरी मच्छिया एवमादि, आयरिओ आह-सइ विह नपुंसगभावे जणवयसच्चेण व्यवहारसच्चेण य एस दोसपरिहारओ भवइत्ति पंचिंदिएसु पुण सतिवि एवमादि जणवयसच्चादीहिं तहावि जाईओ चेव वत्तव्वा, कहं? गोवालादीणमचित्तिया भवेज्जा-जहा एते ण सुदिट्ठधम्मा जम्हा इत्थिपुरिसविसेसमजाणाणा एगयरणिद्देसं कुव्वंति। एवमादि दोसा भवंतित्ति काऊण पंचिदियाणं एगयरणिद्देसे एस पडिसेहो सव्वपयत्तेण कीरइत्ति। (द.वै.जि.चू.पू. २५२)
व्यतिरेके उभयसाधारणजात्यप्रयोगे, उक्तदोषात् श्रोतुर्विपरिणामरूपदोषात्, अन्वये = उभयसाधारणधर्मप्रयोगे एकतरप्रयोगे, इति यावत्। यथोक्तान्वयप्रयोगकरणे सति 'कस्माद् भवन्त एवमुभयसाधारणजाति?' प्रयुञ्जन्ति इत्येवं पृष्टानां 'यावज्जीवं त्यक्तसकलमृषावादानामस्माकमियं कथनमर्यादा यत्सूक्ष्ममप्यलीकं परिहर्तव्यमि'त्येवं सामाचारिकथनेन गुणसम्भवात् = 'अहो! सूक्ष्ममप्यनृतं त्यक्तुकामा एते भगवन्तः' इत्यादिरूपस्य सत्प्रशंसाबोधिबीजाधानप्रवचनप्रभावनाद्यात्मकस्य गुणस्य श्रोतॄणां सम्भवात् । यथोक्तमेव = जातिज्ञापकपदघटितप्रयोग एव । स्वरूपतो व्यवहारसत्येऽपि विशेषावबुद्धस्य श्रोतुः देवगुर्वादिविरुद्धपरिणामजनकत्वेन साधोः विशेषापरिज्ञानदशायामन्यतरप्रयोगो निषिद्धः । एतेन 'तस्माद् वस्तुनः कियद् दूरेणेदं' इति वचनं किमिति न प्रयोक्तव्यमिति पर्यनुयोगः प्रत्युक्तः सर्वैः दूरतोऽपि पशुविशेषरूपत्वेन ज्ञायमानेऽपि अतिसामान्यधर्मपुरस्कारेण वचनव्यवहारस्य लोकविरुद्धत्वाच्चेति भावः । वाचक शब्दों को असत्य कहना नामुनासिब है।
समाधान :- स किं? इति। यदि आप एकेन्द्रियादि में पुंलिंगादि प्रतिपादक शब्द में जनपदसत्यत्व या व्यवहारसत्यत्व मानते हैं तो क्या यह समाधान हमारे लिए सुलभ नहीं है? यदि हम भी ऐसा कहें कि - "स्त्रीत्व या पुरुषत्व का निर्णय न होने पर यह गाय है या यह बैल है' इत्यादि शब्दों का प्रयोग करने पर भी वह भाषा मृषा नहीं है किन्तु जनपदसत्य या व्यवहारसत्य है, क्योंकि लोक में ऐसा लिंगविपर्यय का व्यवहार देखा जाता है, एकेन्द्रिय में प्रवृत्त स्त्रीलिंगादि शब्दों की तरह" - तो क्या आप अपने हाथ से हमारे मुँह को बंद कर सकते हैं? नहीं, कदापि नहीं। यहाँ अनुमानप्रयोग का आकार इस तरह हो सकता है - विपरीतलिंगप्रतिपादक 'इयं गौः' इत्यादि भाषा व्यवहारसत्य भाषा है, क्योंकि प्रसिद्ध लोकविवक्षा से प्रयुक्त है, आमलकी आदि शब्दवत्।
* पंचेन्द्रिय में विपरीतलिंगघटित भाषा त्याज्य - उत्तरपक्ष * उत्तरपक्ष :- सति अपि व्यव. इति। पंचेन्द्रिय तिर्यंच में विपरीतलिंगप्रतिपादक भाषा चाहे जनपदसत्य हो या व्यवहारसत्य हो मगर उसमें स्त्रीत्व या पुरुषत्व का जब तक विशेषरूप से निर्णय न हो तब तक एकतर प्रयोग अर्थात् यह गाय है' या यह बैल है' ऐसा शब्दप्रयोग साधु को नहीं करना चाहिए, क्योंकि तादृश शब्द को सुन कर श्रोता को विपरिणाम होने की संभावना है। आशय यह है कि प्राणी साधु भगवंत से बहुत दूर होने के सबब अपनी निगाह से 'यह गाय ही है या बैल ही है' ऐसा निर्णय साधु भगवंत को नहीं हो सकता है तब यदि यह गाय है' ऐसा प्रयोग महात्माजी करे तब सुननेवाले गोपाल आदि को, जिन्हें यह ज्ञात है कि 'पुरोवर्ती प्राणी बैल है, गाय नहीं', यह महसूस होता है कि - "ये जैन साधु भगवंत कैसे हैं? गाय है या बैल? यह भी अच्छी तरह पहचानते नहीं है। न मालुम अलौकिक परभव में हितकारक ऐसे धर्म को भी जानते होंगे या नहीं"। इस तरह गोपाल आदि धर्म-देव-गुरु के विरुद्ध परिणाम को उत्पन्न करने के सबब तादृश वचनप्रयोग साधु के लिए त्याज्य है, उपादेय नहीं।
* अन्वय-व्यतिरेक से जातिपदघटित शब्दप्रयोग ही उपादेय * अतो व्य. इति। संपूर्ण गाथा का सारांश यह है कि विशेषानिर्णयदशा में पुंलिंग का या स्त्रीलिंग शब्द का प्रयोग करने का नतीजा यह आता है कि श्रोता को धर्मविरुद्ध परिणाम उत्पन्न होने की संभावना होती है जब कि पुंलिंग या स्त्रीलिंग का प्रयोग किए बिना जातिपदघटित शब्दप्रयोग करने पर गुण की संभावना है। देखिये, जब साधु भगवंत प्रयोजनवश गोपालादि से प्रश्न करते हैं कि - इस गोजातीय प्राणी से (गाय या बैल जैसे दिखनेवाले प्राणी से) जंगल कितना दूर है?' तब यदि गोपाल आदि प्रश्न करे कि - वह तो बैल है, अतः आप "उस बैल से जंगल कितना दूर है?" ऐसा प्रश्न क्यों नही करते हो? तो साधु भगवंत