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* आपवादिककनैमित्तिकभावभाषणविधिः * विघ्नतो वाऽगमनादौ गृहस्थमध्ये लाघवादिप्रसङ्गाच्च ।
यदि पुनरुत्सर्गतो निषिद्धमपि नक्षत्रादियोगं गृहस्थानां पुरः कथयेत् तदा निमित्तादेष्यत्कालज्ञानेऽपि विध्याराधनार्थमेवं वदेद् यत् 'अद्य यथेदं निमित्तं दृश्यते तथा वर्षेण भवितव्यम्' 'अमुको वाऽऽगमिष्यती'ति। परनिश्चिताऽपि च त्रिषु कालेषु शङ्कितैव यथा देवदत्त इदं करिष्यतीत्याद्येति । तामपि न वदेत् । कथं पुनः परनिश्चितां वदेदिति चेत्? इत्थम् अयमेवं भणति आगमिष्यामीति न पुनर्जायते आगमिष्यत्येवेति। ग्राममवश्यं गमिष्याम इत्यर्थः । विघ्नत इति । तदुक्तं श्रीजिनदासगणिना 'तत्थ वाघातो भवेज्जा । तओ तेसिं गिहत्थाणं एवं चित्तमुप्पज्जइ जहा मुसावादी एसत्ति अहवा वायगेण गणिणा वा आपुच्छिओ ताहे तेसिं गिहत्थाणं एवं चिंतया भवेज्जा जहा एत्तिल्लगमवि एते ण जाणंति जहा वाघाओ भविस्सइ न वा भविस्सइत्ति, न कोऽपि एतेसिं णाणविसओ अत्थित्ति एवमाइ बहवे दोसा भवंति त्ति (द.वै.जि.चू.पू. २४७) इति अन्यत्राऽप्युक्तम्- 'अन्नह परिचिंतिज्जइ कज्जं परिणमइ अन्नहा चेव । विहिवसयाण जियाणं मुहुत्तमेत्तंपि बहुविग्धं ।। ( )
उत्सर्गतो निषिद्धमिति। नक्खत्तं सुमिणं जोगं निमित्तं मंतभेसज्जं गिहिणो तं न आइक्खे भूयाहिगरणं पयं ।। (द.वै. ८/५१) इत्यादिना निषिद्धम्। अपवादविधिमाह- 'विध्याराधनार्थमिति। यत्याचारपरिपालनार्थमिति। तदुक्तं श्रीजिनदासगणिमहत्तरै कारणजाए पुण जया भणिज्ज तदा इमेण प्पगारेण जहा, जहेत्थ निमित्तं दीसइ तहा अज्ज वासेण भवियव्वं अमुको वा आगमिस्सइ। (द.वै.जि.चू.पृ. २४७) ।
परनिश्चितेति। तदुक्तं श्रीजिनदासगणिमहत्तरैः 'जावि परणिस्सिया सावि संकिया जहा देवदत्तो इदाणी आगमिस्सइ इमं वा सो करिस्सइ। एवं तिसुवि कालेसु परणिस्सिया ण भाणियव्वा, कहं पुण वत्तव्वं? जहा सो एवं भणियाइओ, ण पुण णज्जइ किमागमिस्सइ ण वा आगमिस्सइ? इमं काहिति न काहिति वा? एवमाइया।'
* नक्षत्र आदि का आपवादिक वचन * यदि. इति । गृहस्थ आदि के समक्ष नक्षत्रादियोग का बयान करना साधु के लिए उत्सर्गमार्ग से निषिद्ध है फिर भी कारणविशेष की उपस्थिति होने पर अपवादमार्ग से उसका कथन गृहस्थ के समक्ष करना हो, तब साधु भगवंत को शास्त्रोक्त निमित्त के सबब भविष्यकाल का और भविष्यकाल की घटनाओं का ज्ञान होने पर भी विधि शास्त्रवचन का पालन करने के लिए ऐसा बोलना चाहिए कि देखिए, आज यह निमित्त दिखता है। अत एव बारिस होनी चाहिए' अथवा यह निमित्त देखा जाता है इसी सबब अमुक मनुष्य यहाँ आना चाहिए' इत्यादि। आपवादिक संयोग में निमित्तप्रदर्शनपूर्वक भावी घटना का बयान करने से जिनाज्ञा की आराधना होती है।
* अन्यनिश्चित भाषा के कथन की पद्धति * परनिश्चिता. इति। उपर्युक्त बात से यह स्पष्ट हो गया है कि जब तक स्वयं किसी चीज का अच्छी तरह निश्चय न हो जाय या कुछ काम ठीक तरह मुकरर्र न हो जाए तब तक उसका निश्चितरूप से बयान नहीं करना चाहिए। जब किसी घटना का स्वयं को निश्चय न हो मगर अपने दोस्त को या अन्य किसीको निश्चय हो और वह हमसे ऐसा कहे कि कल देवदत्त यह काम करेगा' तब भी हमारे लिए तो वह भाषा शंकित ही है, क्योंकि देवदत्त ने स्वयं हमसे यह नहीं कहा है कि मैं कल यह काम करनेवाला हूँ'। दशपूर्वधर आदि से अन्य लोग से सूनी गई बातों पर पूरा भरोसा रखना यह नादानी है। अतः अन्य निश्चित भाषा हमारे लिए तो तीन काल में शंकित ही है। इसी सबब परनिश्चित भाषा का प्रयोग अवधारणपूर्वक नहीं करना चाहिए।
यदि यहाँ यह दहशत हो कि - 'जिस बात का स्वयं निश्चय नहीं हुआ है और हमारे पास न समय और शक्ति है कि उस बात की जाँच हम स्वयं कर सके तो उस बात को दूसरों के मुँह से, जिसको उस बात का अच्छी तरह निश्चिय हो चूका है, सून कर या जान कर क्या हम अन्य व्यक्ति से उस घटना का बयान नहीं कर सकते? अगर परनिश्चित घटना का कथन करने की अनुज्ञा नहीं होगी तब तो बहुत कुछ ऐसी बाबतों का, जिसका हम स्वयं निर्णय नहीं कर सकते हैं, अन्यसे कथन करना निषिद्ध होने से हमारा व्यवहार ही बंद हो जाएगा।' - तो यह नामुनासिब है, इसका कारण यह है कि परनिश्चित बात का कथन करने का सर्वथा निषेध नहीं है मगर अपनी और से हम ऐसा कह सकते हैं कि 'मेरा दोस्त चैत्र मुझे यह कह चूका है कि देवदत्त यहाँ आयेगा' मगर न मालुम वह आयेगा ही या नहीं। इस तरह से कथन करने का आशय यह है कि मानो कि कुछ कारण से देवदत्त यहाँ न आया तब भी हम पर झूठा बोलने का इल्जाम नहीं होता है और न तो हमारी भाषा मृषा बनती है, क्योंकि हम यह बता चूके हैं कि मेरे दोस्त ने मुझे यह कहा था, मैं नहीं जानता हूँ कि वह जरूर आयेगा ही। विवाद से और मृषावाद से बचने का यह उचित और उत्तम मार्ग है, जो आर्ष पुरुषों से प्रदर्शित है।