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* अपवादतो मृषामिश्रभाषणाऽनुज्ञाऽऽविष्कारः *
स्पष्टा । नवरं प्रतिषेधो विना कारणं, कारणे तु तयोरप्यनुज्ञैवेति द्रष्टव्यम् ||८६ ।।
ननु भावतः सत्यामृषे चारित्रे सम्भवत इत्युक्तम् ततः किमसत्याऽपि साधोर्वक्तुमनुज्ञातेत्याशङ्कायामाहद्रव्यतोऽपीति । नान्ये = न मृषासत्यामृषे । द्रव्यतोऽपि मृषाभाषाया निषेधः किं पुनः भावत इत्याशयः । तदुक्तं प्रज्ञापनायां 'भासा चउप्पगारा दोण्णि य भासा अणुमता उ' । (प्रज्ञा. भाषा. पदसूत्र १६५) दशवैकालिकेऽपि 'दुहं तु विणयं सिक्खे दो न भासिज्ज सव्वसो ।' (दश. अ. ७ गा. इत्युक्तम् । इदं चोत्सर्गतो ज्ञेयमित्याह प्रतिषेधो विना कारणं, कारणे त्विति । साधोर्मृषासत्यामृषाभाषानुज्ञाकारणं च प्रवचनापभ्राजनादिकं प्रकल्पग्रन्थादितो ज्ञेयम् । नवरमुत्सर्गतो निषिद्धेऽप्यपवादतोऽनुज्ञाते मृषासत्यामृषे निश्चयतः सत्ये एवान्तर्भवत इति ध्येयम्। अनुज्ञैवेति । एवकारेण कारणे सति तयोः प्रतिषेधो नास्तीति व्यज्यते । अनुज्ञा च कर्तुरिष्टत्वे सति वक्त्रनुमतत्वम् । निषेधाभावव्यञ्जिकेच्छेति अन्ये । प्रकृते चारित्रभावभाषाधिकारात् मृषासत्यामृषयोरुत्सर्गतो निषेधः अपवादतोऽनुज्ञाच यतिं प्रत्येवेत्याद्यूहनीयम् । । ८६ । ।
न्यायाचार्यवचोऽलंकृत्य यशोविजयेन हि । चतुर्थस्तबके भावभाषा शेषा प्रदर्शिता । ।१ ।।
इति मुनियशोविजयविरचितायां मोक्षरत्नाभिधानायां भाषारहस्यविवरणटीकायां चतुर्थः स्तबकः ।
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है ।। ८५ ।।
द्रव्यतः अर्थात् व्यवहार से भी साधु के लिए सत्य और असत्यामृषा ये दो भाषा ही बोलने के लिए अनुज्ञात हैं, अन्य भाषा नहीं - इस बात को प्रकरणकार ८६ वीं गाथा से बता रहे हैं।
गाथार्थ :- बोलने के लिए दो भाषा ही अनुज्ञात है सत्य और असत्यामृषा भाषा । मृषा और सत्यामृषा ये दो भाषा बोलने के लिए प्रतिषिद्ध हैं । ८६ ।
विवरणार्थ :- गाथार्थ स्पष्ट होने से इस गाथा का विवरणकार ने विशेष विवरण नहीं किया है। मगर यहाँ दो भाषा बोलने की अनुज्ञा दी गई है और दो भाषा का निषेध किया गया है वह सामान्यतः द्रष्टव्य है अर्थात् कारणविशेष की उपस्थिति न हो तब उत्सर्ग से सत्य और असत्यामृषा भाषा ही बोलनी चाहिए। यदि शासनअपभ्राजनानिवारण, संयमरक्षा आदि कारण उपस्थित हो तब तो मृषा और असत्यामृषा (मिश्र) बोलने की भी तीर्थंकर गणधरादि भगवंतों से साधु को अनुज्ञा दी गई ही है। मगर वह द्रव्यतः मृषा या मिश्र भाषा भी निश्चयतः = भावतः सत्य में ही अंतर्भूत होती है- इत्यादि बात पर ध्यान देना चाहिए । । ८६ ।।
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