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* संशयद्वैविध्यख्यापनम् *
२६९ ___ अथ संशयकरणीमाह । संशयकरणी च सा 'मुणियव्वा = ज्ञातव्या, यत्र = यस्यां, अनेकार्थ = बह्वर्थाभिधायकं, पदं श्रुत्वा श्रोतुः सन्देहो भवति। तथाहि - सैन्धवमानयेत्युक्ते सैन्धवपदस्य लवणघोटकादिष्वनेकेष्वर्थेषु शक्तिग्रहादनेकार्थपदजन्यशाब्दबोधे प्रकरणादीनां विशिष्य हेतुत्वेन तद्विरहे शाब्दबोधविरहेऽपि भवति वक्त्रभिप्रायसन्देहात् 'लवणानयनं घोटकानयनं वा मम कर्तव्यं' (मुक्ता. पृ. ६४४) इति मुक्तावलीकारस्य वचनं निरस्तम् एवं सति यागदानादीनामपि स्वर्गहेतुता विशीर्येत । वस्तुतस्तु तृणारण्यादीनां वहिलं प्रतीव प्रकरणादीनां शाब्दबोधं प्रत्येकशक्तिमत्त्वेनैव हेतुत्वम् । तेन 'प्रकरणादीनामननुगतानां नार्थविशेषबोधे शक्तेः सहकारित्वं, तात्पर्यग्राहकत्वेन तदनुगमे तु लाघवात्तात्पर्यग्रहत्वेनैव तत्सहकारित्वकल्पनमुचितम्' (म.स्या.र.पृ. २३) इति मध्यमस्याद्वादरहस्यवचनविरोधोऽपि परिहृत इति विभावनीयम् ।
तद्विरहे शाब्दबोधविरहेऽपीति। प्रकरणादिविरहे लवणाशाब्दबोधौपयिकसामग्र्या घोटकादिशाब्दबोधप्रतिबन्धकत्वात् घोटकादिशाब्दबोधसामग्र्याश्च लवणशाब्दबोधप्रतिबन्धकत्वात् तादृशवाक्यात् शाब्दबोधानुत्पादेऽपीति। ननु शाब्दबोधविरहे संशय एवं कथं भवेत्? येनेयं संशयकरणी स्यादित्याशङ्कायामाह भवति वक्त्रभिप्रायसन्देहादिति । 'लवणानयनं घोटकाद्यानयनं वा वक्तुरभिप्रेतमि'ति संशयात्, लवणानयनकर्तव्यताबुबोधयिषयेदमुक्तं घोटकाद्यानयनकर्तव्यताबुबोधयिषया वेति संशयादिति यावत्। मानसः सन्देह इति। उपनयसहकारेणेति गम्यम्, इदं च जीर्णनैयायिकमतंनुरुध्योक्तम् । कल्पान्तरं पुरस्कृत्याह-परोक्षसंशयाभ्युपगम इति। शाब्दसंशयाभ्युपगम इति। संशयात्मकानुमित्यादेरनभ्युपगमात् । तत्संशये = तात्पर्यसंशये। शाब्द एवेति। एवकारो मानससंशयव्यवच्छेदार्थः । है। यह मत चूर्णिकार का है। इस तरह संक्षेप से अनभिगृहीत भाषा का निरूपण पूर्ण हुआ।
* संशयकरणी भाषा - १०/४ * अब असत्यामृषा भाषा के दशवें भेद संशयकरणी भाषा का निरूपण करते हुए विवरणकार कहते हैं कि - जिस शब्द के अनेक अर्थ होते हैं उस पद को सुन कर श्रोता को सन्देह होता है कि 'इस शब्द का अर्थ यह है कि वह है?' अतः अनेक अर्थवाले शब्दों से घटित भाषा संशयकरणी भाषा कही जाती है। जैसे कि 'सैन्धवमानय' यह भाषा। सैन्धव शब्द के अर्थ नमक, अश्व आदि होते हैं। विवरण में जो आदिशब्द दिया है उससे वस्त्र और पुरुष का ग्रहण अभिप्रेत है क्योंकि सैंधव संस्कृतशब्द के अर्थ नमक, अश्व, वस्त्र और पुरुष हैं। सैंधवशब्द की नमक, अश्व आदि अर्थ में शक्ति गृहीत होने से सैंधवशब्द से उन अर्थों का स्मरण होता है। जिस शब्द के अनेक अर्थ होते हैं उस शब्द के सब अर्थ सर्वत्र उपयोगी नहीं होते हैं किन्तु अर्थविशेष यानी प्रतिनियत अर्थ ही उपयोगी होता है। अनेकार्थक शब्द का प्रस्तुत में वक्ता को क्या अर्थ अभीष्ट है? उसका ज्ञान श्रोता को प्रकरण आदि के बल से होता है। जैसे कि जब भोजन का प्रकरण होता है तब 'सैंधवमानय' वाक्य से 'नमक लाना मेरा कर्तव्य है' ऐसा श्रोता को ज्ञान होता है क्योंकि भोजनप्रकरण से सैन्धवशब्द का लवण अर्थ में तात्पर्य है - ऐसा श्रोता को ज्ञान होता है। वैसे ही जब प्रयाण का प्रसंग होता है तब 'अश्व को लाना मेरा कर्तव्य हैं' ऐसा श्रोता को शाब्दबोध होता है, क्योंकि गमनप्रकरण अश्वतात्पर्य यानी अश्व का बोध कराने के अभिप्राय से सैन्धवशब्द का प्रयोग किया गया है - इसका ज्ञापक होता है। इस तरह अनेक अर्थवाले शब्द से जन्य बोध के प्रति प्रकरणादि विशेषरूप से हेतु हैं यह निश्चित होता है।
* अनेकार्थक शब्द से संशय की उत्पत्ति * तद्विरहे शाब्द. इति । मगर जहाँ भोजन-गमन आदि का प्रकरण नहीं होता है वहाँ श्रोता को अनेकार्थक शब्दों को सुन कर शाब्दबोध नहीं होता है अर्थात् 'नमक लाना मेरा कर्तव्य है' ऐसा निश्चय या तो 'अश्व को लाना मेरा कर्तव्य है' ऐसा निश्चय नहीं होता है। उस स्थल में श्रोता को वक्ता के अभिप्राय में संशय होता है कि - 'नमकानयन में मुझे नियुक्त करना वक्ता को अभिप्रेत है या अश्व आनयन में नियुक्त करना?' वक्ता के अभिप्राय में ऐसा संशय हो जाने पर श्रोता को अपने विषय में भी यह संशय हो जाता है कि 'नमक लाना मेरा कर्तव्य है या अश्व आनयन?' यह संशय मानस प्रत्यक्ष ज्ञानरूप होता है। संशय को प्रत्यक्ष माननेवाले प्राचीन नैयायिकों के मत के अनुसार मानस संशय की उत्पत्ति यहाँ बताई गई है।
१ मुणितव्या - इति मुद्रितप्रतौ ।