Book Title: Bhasha Rahasya
Author(s): Yashovijay Maharaj, 
Publisher: Divyadarshan Trust

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Page 302
________________ * शाब्दबोधकारणप्रदर्शनम * २७१ वाकारेण च विरोधमुपस्थाप्य संशयं जनयन्ती तादृश्येवेति ध्येयम् । ७८ ।। उक्ता संशयकरणी १०। अथ व्याकृतामाह भासा असच्चमोस पयडत्या वाअडा मुणेयत्वा। अइगंभीरमहत्था अहव अव्वत्ता । ७९ ।। व्याकृताऽसत्यामृषा भाषा, प्रकटः = सुज्ञानः अर्थो यस्यास्तादृशी 'मुणेअव्वा = ज्ञातव्या 'यथा एष भ्राता देवदत्तस्ये'त्यादिः। अर्थस्य सुज्ञानत्वं च 'तात्पर्यज्ञानादिबहुहेतुसम्पत्त्यविलम्बेनोऽचिरकालोत्पत्तिकप्रतिसन्धानविषयत्वं बोध्यम् ११।। प्रकारतावत्त्वरूपं ग्राह्यम्। विरोधमिति। एकधर्मितावच्छेदकविशिष्टविशेष्यकत्वावच्छेदेन विरुद्धत्वेन नानाधर्मप्रकारत्वं संशयत्वमिति तात्पर्येण 'एकधर्मिणि विरुद्धनानाधर्मप्रकारकज्ञानं संशय इति ब्रुवतां मतेन द्विकोटिक एव संशयः विरोधज्ञानं च तन्मते संशयकारणम् । अतो 'वाकारेण विरोधमुपस्थाप्य' इति तन्मतेनेदमुक्तमिति मन्तव्यम् । वस्तुतस्तु 'अयं स्थाणुर्वा पुरुषो वा? इत्यत्र स्थाणुत्व-तदभाव-पुरुषत्व-तदभावरूपकोटिचतुष्टयशाल्येव संशयः स्वीक्रियते। तादृशवाक्यादिदम्पदाद्धर्मिणः, स्थाणुपुरुषपदाभ्यां स्थाणुत्व-पुरुषत्वयोर्वाकारद्वयेन चाभावद्वयस्योपस्थितेरित्यादिसूचनार्थं ध्येयमित्युक्तम् । ७८ ।। (ग्रन्थाग्रम्-५५०० श्लोक)। तात्पर्यज्ञानादीति। आदिशब्देन पद-वृत्ति-पदार्थाकाङ्क्षा-योग्यतासत्तिज्ञानग्रहणं बोद्धव्यम्। कारणसप्तकजन्य त्वाच्छाब्दबोध्येति हेतोः। तात्पर्यज्ञानादिबहुहेतुसमवधानविलम्बाभावप्रयोज्या अचिरकालोत्पत्तिः यस्य प्रतिसन्धानस्य = शाब्दबोधस्य तद्विषयत्वरूपं सुज्ञानत्वमर्थस्याऽत्राभिप्रेतम् । अयं भावः शाब्दबोधस्य तात्पर्यज्ञानादिजन्यत्वेन तद्विलम्बे शाब्दबोधविलम्बो भवति तदविलम्बेन च तदविलम्बः। व्याकृतभाषाया भावितार्थत्वेन तात्पर्यज्ञानादिकविलम्बेनोपतिष्ठते। अतः शाब्दबोधोऽपि ताजक सम्पद्यते। तादृशशाब्धबोधविषयत्वेन सोऽर्थः तदभाषाऽपेक्षया सुज्ञानो भण्यते। तादृशविषयताकत्वेन सा व्याकृता भण्यते। प्रकटार्थकासत्यामृषावचनत्वं तल्लक्षणं बोद्धव्यम् । अतो न जनपदसत्यादावतिव्याप्तिः । अत्र बहु वक्तव्यम्। तत्तु नोच्यते विस्तरभयात्। अर्थ के वाचक उन दो पदों से स्थाणुत्व और पुरुषत्वरूप दो कोटि उपस्थित होती हैं। तथा उस वाक्य में जो 'वा' शब्द है उससे विरोध की उपस्थिति होती है। पुरुषत्व और स्थाणुत्वरूप दो धर्म में परस्पर विरोध का ज्ञान संशय का जनक है, क्योंकि एक ही धर्मी में अनेक विरोधी धर्म का भान होना यह संशय का ही स्वरूप है। अतः संशयजनक होने से 'स्थाणुर्वा पुरुषो वा?' यह भाषा भी संशयकरणी ही है। इस संबंध में शांति से ध्यान देने की सूचना कर के संशयकरणी भाषा के विवेचन को विवरणकार समाप्त करते हैं।७८ ।। अब प्रकरणकार ७९ वीं गाथा से व्याकृत और अव्याकृत भाषा का निरूपण कर रहे हैं। गाथार्थ :- स्पष्ट अर्थवाली असत्यामृषा भाषा व्याकृत भाषा कही जाती है। अव्याकृत भाषा वह है जो अत्यंत गंभीर महार्थ की बोधक होती है या तो अव्यक्त भाषा अव्याकृत भाषा है - यह जानना चाहिए।७९ । * व्याकृत भाषा - ११/४ * विवरणार्थ :- जिस भाषा का अर्थ प्रकट होता है ऐसी असत्यामृषा भाषा व्याकृत भाषा है - ऐसा ज्ञातव्य है। जैसे कि 'यह देवदत्त का भाई है' इत्यादि भाषा । इस असत्यामृषा भाषा का अर्थ प्रकट ही है अर्थात् सुज्ञान सरलता से ज्ञेय है। अर्थ की प्रकटता या सुज्ञानता का अर्थ है - तात्पर्यज्ञान आदि अनेक हेतु की झटिति उपस्थिति रहने से तुरंत ही उत्पन्न होनेवाले शाब्दबोध की विषयता है। आशय यह है कि शाब्दबोध के कारण पदज्ञान, वृत्तिज्ञान, तात्पर्यज्ञान आदि अनेक होते हैं। जब तक सभी कारण उपस्थित न हो तब तक कार्य उत्पन्न नहीं होता है। वक्ता कभी कभी ऐसे शब्दों का प्रयोग करता है जिसके कारण श्रोता को वक्ता के अभिप्राय = तात्पर्य आदि का तुरंत ज्ञान हो जाने से बिना विलंब के अर्थबोध हो जाता है। तादृश शाब्दबोध की विषयता जिस अर्थ में रहती है वह अर्थ प्रकट सुज्ञान कहा जाता है। अर्थात् तादृश शाब्दबोध का जो विषय होता है वह प्रकटार्थ कहा जाता है। तादृश प्रकटार्थ का बोध करानेवाली भाषा व्याकृत भाषा कही जाती है। व्याकृत भाषा का, जो कि असत्यामृषा भाषा का १ भाषा असत्यामृषा प्रकटार्था व्याकृता ज्ञातव्या। अतिगंभीरमहार्था अव्याकृता अथवा अव्यक्ता । ७९ ।। २ मुणिअव्वा - इति मुद्रितप्रतौ ।

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