________________
२८० भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.४. गा. ८३
0 प्रकरणस्य उपोद्धातः ० श्रुतगोचरा भाषा असत्या, उन्मत्तवचनवत्तद्वचनस्य घुणाक्षरन्यायेनाऽऽपाततः संवादेऽपि प्रमाणत्वेनाऽव्यवहारात्।
कथं तर्हि श्रुते अवतरत्येषा, तज्ज्ञानस्य सदसदविशेषादिहेतुनाऽज्ञानत्वादिति? सत्यम्, अविशेषितश्रुतपदेनोभयोपग्रहात्, विशेषितस्यैव प्रातिस्विकरूपानुप्रवेशेनाभिलापादिति दिग। मिथ्यादृष्टौ सिध्ययतीति भावः। अत एवोक्तं प्रकरणकृता तत्त्वार्थटीकायां-बहुप्रकारभ्रान्तज्ञानप्रवाहपतितं किञ्चिदभ्रान्तमपि ज्ञानं तेषां भ्रान्तमेव भ्रमशक्तेरनपगमादिति (त. टी. १३३) इति उपयुक्तस्येति । अत्राऽपि न सम्यगुपयुक्तत्वं किन्तु मिथ्योपयुक्तत्वं, तज्ज्ञानस्य मोक्षौपयिकत्वाभावात्। तदुक्तं ज्ञानार्णवे 'मिथ्यादृष्टिज्ञाने सम्यक्प्रवृत्त्यादिद्वारा मोक्षहेतुतावच्छेदकज्ञानत्वाभाव एवाज्ञानत्वम्। (ज्ञाना. प्र. त. श्लो. १५ वृ.) मोक्षानौपयिकमिथ्याज्ञानप्रयुक्तत्वेनाऽसत्यत्वम् । घुणाक्षरन्यायेनेति । घुणः काष्ठकीटकः तेन काष्ठवेधे कृते यथाकथञ्चिदक्षरं निष्पाद्यते स घुणाक्षरन्याय उच्यते। तदुक्तं वर्धमानेन "घुणोत्किरणात्कथञ्चिन्निष्पन्नमक्षरं घुणाक्षरां तदिव यदकुशलेन दैवान्निष्पाद्यते तर्पणाक्षरीयम्।।" ( ) यत्र दैवात्सञ्जातं कार्यं न तु यत्नेन तत्रायं न्यायः प्रवर्तते। अजाकृपाणीयकाकतालीयान्धचटकान्धकवर्तकीयाभाणकादिन्याया अपि प्रकृतार्थे प्रयुज्यन्ते। आपातत इति । संशयादिग्रस्तत्वमविचारितवाक्यात्वं वा आपातत्त्वं, तसिलर्थः प्रयोज्यत्वं, तस्य चान्वयः संवादे। ततश्चाऽविचारितवाक्यप्रयोज्यसंवाद इत्यर्थः । तस्मिन् सत्यपि प्रमाणत्वेन = प्रमाजनकत्वेन = सत्यत्वेनेति यावत् । अव्यवहारात् = व्यवहाराभावात् । सदसदविशेषादिहेतोरिति तून्मत्तवचनवदित्यनेन लभ्यते।
इदमाकर्ण्य कश्चित् शङ्कते - कथमिति। सदसदविशेषादीति आदिशब्देन यदृच्छोपलब्ध्यादिग्रहणम्। तदुक्तं विशेषावश्यकभाष्ये श्रीजिनभद्रगणिना 'सदसदविसेसणाओ भवहेउजाहिच्छिओवलम्भाओ। नाणफलाभावाओ मिच्छदिहिस्स अन्नाणं ।। (वि. भा. ३१९) इति । अभ्युपगमपूव विशेषं द्योतयति सत्यमिति। अविशेषितश्रुतपदेनेति। अयं भावः अक्षरादिसप्रतिपक्षाः श्रुतज्ञानस्य चतुर्दश भेदाः प्रसिद्धाः। तदुक्तं देवेन्द्रसूरिणा 'अक्खरसन्निसम्मं साइयं खलु सपज्ज-वसियं च । गमियं अंगपविठं सत्त वि एए सपडिवक्खा ।। (प्र. कर्म. १६) यदि अत्र सम्यक्श्रुतभावभाषेति विशेषरूपेण प्रतिपादितं स्यात तर्हि न मिथ्याश्रुतविषयकभावभाषाया ग्रहणं स्यात। तच्च नास्ति। अतः है तब तो ठीक है कि उसकी भाषा असत्य है मगर जब मिथ्यादृष्टि पंडितजी आदि किसी जैन साधु को जैनशास्त्र पढाता है या तो श्रुत से अविरुद्ध बात करता है तब उसकी भाषा कैसे मृषा बनेगी? क्योंकि वह भाषा तो श्रुत के अनुरूप ही है" - ठीक नहीं है, क्योंकि उन्मत्त पुरुष के वचन की तरह उसकी भाषा में घुणाक्षरन्याय से आपाततः संवाद होने पर भी उस भाषा का प्रमाणत्वेन=सत्यत्वेन व्यवहार नहीं होता है। आशय यह है कि जैसे उन्मत्त मनुष्य, जिसने दारु पिया है या धतुरा खाया है जिस के कारण उसकी बुद्धि चरने को गई है, अपनी पत्नी को बहन कहता है, बहन को पत्नी कहता है, माँ को पत्नी भी कहता है। शायद वह अपनी पत्नी को पत्नी कहे या माँ को माँ कहे फिर भी लोक में उसका वचन प्रमाणभूत नहीं कहा जाता है क्योंकि उसकी अक्ल चरने को गई है। वैसे घुणाक्षर न्याय से मिथ्यादृष्टि की भाषा में क्वचित् संवाद उपलब्ध हो फिर भी वह प्रमाण नहीं है। घुणाक्षरन्याय यह है कि जैसे लकडे के किडे लकडे को काटते हैं तब लकडे में छोटे छोटे छिद्र बन जाते हैं। कभी कभी बहुत अच्छी डीझाइन भी बन जाती है और कभी कभी छिद्र ऐसे भी बन जाते हैं कि जिसके कारण क, ख आदि अक्षर बन जाते हैं। लकडे के किडे को डिझाइन बनाने का या अक्षर बनाने का कुछ ज्ञान या आशय नहीं होता है मगर लकडे को कोरते कोरते यकायक बिना अक्षरादि बनाने के उद्देश के भी अक्षरादि बन जाते हैं। फिर भी लोग ऐसा नहीं कहते हैं कि लकडे के किडे को अक्षर या डिझाइन बनाने का ज्ञान है, क्योंकि वे किडे तो असंज्ञी-संमूर्छिम हैं। वे अक्षर तो भवितव्यतावश ही बन गये हैं। ठीक वैसे है मिथ्यादृष्टि को सम्यक्श्रुत का परिणाम नहीं है। अतः उस की भाषा सम्यक् श्रुत के परिणाम से नहीं कही जाती है। अतः आपाततः उसकी भाषा में क्वचित् संवाद उपलब्ध होने पर भी उसमें सत्यत्व का व्यवहार नहीं होता है, क्योंकि मिथ्यादृष्टि को सत् और असत् आदि का विवेकज्ञान ही नहीं होता है। अविवेकप्रयुक्त भाषा में सत्यत्व का व्यवहार कैसे हो सकता है? कथमपि नहीं।