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* द्रव्य-भावसत्यत्वयोर्बलाबलत्वविचार: *
२८१ विशेषणविनिर्मुक्तश्रुतपदेन उभयोपग्रहात् = सम्यग्मिथ्याश्रुतग्रहणान्न दोषः कश्चित् ।
एवं सति मिथ्याश्रुतविषयकभावभाषाया अपि सत्यत्वं स्यादित्याशङ्कायामाह विशेषितस्यैवेति। सम्यग्मिथ्याविशेषणविशिष्टस्यैव श्रुतस्य प्रातिस्विकरूपानुप्रवेशेन = सत्यमृषादिप्रत्येकरूपेण प्रवेशेन, अभिलापात् = प्रतिपादनात्। अयं भावः भावभाषात्वसाक्षाद्व्याप्यद्वितीयजात्यवच्छिन्ने विषयविधया श्रुतत्वेन प्रवेशः। तेन न मिथ्यादृग्भाषाया असङ्ग्रहः । भावभाषात्वसाक्षाद्व्याप्यद्वितीयजात्यवच्छिन्ने च विषयविधया श्रुतत्वेन प्रवेशः। विशेषरूपं च प्रथमे उपयुक्त-सम्यक्श्रुतत्वं द्वितीये चानुपयुक्तसम्यक्श्रुतत्वं मिथ्याश्रुतत्वं वेति नाव्यवस्थादिदोषनिपातः । सम्यक्श्रुतत्वं च स्वाम्यपेक्षया बोद्धव्यम् न तु स्वरूपापेक्षया । तेन स्वरूपतो मिथ्याश्रुतस्याऽपि सम्यग्दृष्टिपरिगृहीतस्य यथोपयोगं स्याद्वादमहाराजसेवकनयविशेषापेक्षयाऽवलम्बनेऽपि तद्विषयिण्यां श्रुतभावभाषायां न सत्यत्वव्याहतिरित्यादिप्रदर्शनार्थं दिगित्युक्तम्।
प्रकृते दशवैकालिकनियुक्तिवचनसंवादं प्रदर्शयति-तदिति। ननु नियुक्तिकृता च' मिच्छद्दिठी वि य तहेव' इत्यत्र चकारेणोभयसमुच्चयः कृतः भवद्भिश्च 'वा = अथवे'त्युक्त्वा प्रथमपक्षः परित्यक्त इति कथं न वः तेन विरोधः मैवम्, तत्र चकारो न समुच्चयार्थे किन्तु वाकारार्थे इतिप्रदर्शनार्थमेवाऽत्र वाकारो गृहीतः। यद्वा वाकारो व्यवस्थायां ग्राह्यः । सा चेयं, सम्यग्दृष्टेरनुपयुक्तभावेन भाषमाणस्य भाषायाः श्रोतृवितथार्थबोधजनकत्वात्, मृषाभाषावर्गणाजन्यत्वात्, बाधितार्थकत्वाच्च व्यवहारतो मृषात्वमेव । अत एव क्षीणमोहगुणस्थानकेऽपि मृषावचनयोगो देशितः चतुर्थकर्मग्रन्थादा। अयञ्चाऽसत्यवचनयोगो न मोहमूलकः, तस्य प्रक्षीणत्वात् किन्त्वनाभोगनिमित्तको व्यवहारनयाभिमतः। अनाभोगतो वितथभाषणेऽपि परमगुरुप्रणीतयथोक्तवस्तुस्वरूपाभ्युपगमस्य तच्चेतसि सर्वदैवाऽविचलितत्वात्, प्रज्ञापनीयत्वादिगुणकलितत्वाच्च तद्भाषायां भावतः सत्यत्वमेव । उपेत्यवितथभाषणे सम्यग्दृष्टित्वहान्यापत्तेः । न च द्रव्यतोऽसत्यत्वं भावतः सत्यत्वमित्यभ्युपगमे सत्यामृषात्वप्रसङ्ग इति वाच्यम्, द्रव्यांशापेक्षयैव भ्रमप्रमाजनकत्वेन भाषायां सत्यामृषात्वस्याऽभ्युपगमात, न तु द्रव्यभावापेक्षया। युगपदुभयप्राधान्यार्पणेऽवक्तव्यत्वेऽपि तदन्यतरप्राधान्यार्पणे सत्या
शंका :- कथं. इति। यदि उन्मत्त पुरुष की तरह मिथ्यादृष्टि को सत् और असत् का भेदज्ञान नहीं है तब तो उसका ज्ञान अज्ञानरूप है। जब उसका ज्ञान अज्ञानस्वरूप है तब उसकी भाषा श्रुतविषयक कैसे होगी? उसकी भाषा श्रुतविषयक नहीं है मगर कुश्रुतविषयक है - मिथ्याश्रुतविषयक है। तब उसकी भाषा का श्रुतविषयक भावभाषा में समावेश ही कैसे हो सकेगा? अतः उसकी भाषा को श्रुतविषयक मृषा भावभाषा कहना भी सर्वथा असंगत ही है।
* श्रुतविषयक भावभाषा में श्रुतसामान्य का अधिकार * समाधान :- सत्यम्. इति। आपकी बात में इतना तो तथ्य है कि मिथ्यादृष्टि की वाणी कुश्रुतविषयक है। फिर भी आप आगे जो बात कर रहे हो उससे लगता है आप सींग कटा कर बछड़ों से मिलना चाहते हो। इसका कारण यह है कि श्रुतविषयक भावभाषा में विषयविधया सम्यक् श्रुत का उपादान नहीं किया है मगर अविशेषित श्रुत = श्रुतसामान्य का ग्रहण किया है। जब श्रुत का सम्यक् या मिथ्या इत्यादि विशेषण नहीं लगाया गया है तब तो निर्विशेषणक श्रुतपद से सम्यक् श्रुत की तरह मिथ्याश्रुत का भी ग्रहण न्यायप्राप्त है, क्योंकि श्रुतत्वनामक धर्म दोनों में समान ही है। अतः 'मिथ्यादृष्टि की भाषा में श्रुतत्वनामक धर्म नहीं है' - ऐसा जो आपने बताया था वह निराधार सिद्ध हो जाता है, क्योंकि मिथ्याश्रुत भी अश्रुत = श्रुतभिन्न नहीं है मगर श्रुत ही है। क्या नील घट भी घट नहीं होता है? अतः श्रुतविषयक भावभाषा में श्रुतसामान्य का विषयविधया ग्रहण होने से मिथ्यादृष्टि की मिथ्याश्रुतविषयक भावभाषा को श्रुतविषयक भावभाषा कहने में कोई विरोध नहीं है। हाँ, यह बात अलग है कि श्रुतविषयक सत्यादि भावभाषा में विशेषित श्रुत का ही ग्रहण होता है। अर्थात् श्रुतविषयक सत्य भावभाषा में विषयविधया उपयुक्त सम्यक् श्रुत का ग्रहण अभिप्रेत है और श्रुतविषयक मृषा भावभाषा में विषयरूप से अनुपयुक्त सम्यक् श्रुत या मिथ्याश्रुत का ग्रहण अभिप्रेत है। अतः मिथ्याश्रुतविषयक भावभाषा में सत्यत्व की या उपयुक्त सम्यक्श्रुतविषयक भावभाषा में असत्यत्व की आपत्ति भी नहीं रहती है। इस संबंध में अधिक विचार भी किये जा सकते हैं। इस बात की सूचना देने के लिए दिग् शब्द का विवरणकार ने प्रयोग किया है।