________________
२८४ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.४. गा. ८४
० केवलिनि द्रव्यश्रुतसद्भावसिद्धिः ० द्रव्यश्रुतं प्रतीत्य भावभाषायाः केवलज्ञानेऽपि सम्भवात् । तदुक्तम् 'केवलनाणेणत्थे णाउं जे तत्थ पन्नवणजोग्गे। ते भासइ तित्थयरो श्रुतसत्त्वे केवलानुत्पादात्केवलज्ञानसत्त्वे श्रुतध्वंसः सिध्यति। ततः केवलश्रुतयोः सहानवस्थानादपि न तदुपादानं कर्तव्यम्, श्रुतासत्त्वे तदुपयोगस्याऽप्यसम्भवात्। एतेनातीतश्रुतापेक्षया केवलिनि असत्यामृषाश्रुतभावभाषाभिधानमिति कुचोद्यमपास्तम् वान्तसम्यग्दर्शनस्याऽपि मिथ्यादृष्टेः सतः तत्प्रसङ्गाच्चेति। ततश्चावधिमनःपर्याययोः श्रुतसमानकालीनत्वेऽपि केवलज्ञानस्य तदसमानकालिकत्वान्न श्रुतभावभाषायां ज्ञानत्रिकोपादानं युक्तमिति नन्वाशयः ।
सहानवस्थानमङ्गीकृत्य विशेषं द्योतयति सत्यमिति । द्रव्यश्रुतं प्रतीत्येति । अनेन केवलिनि भावश्रुताभावोऽङ्गीकृतः। भावभाषाया इति । केवलज्ञानोपयुक्तत्वेनात्र भावभाषात्वं ज्ञेयम् । श्रुतभाषात्वं च केवलिवचनस्य द्रव्यश्रुतत्वेनेति भावः। आवश्यकनियुक्तिसंवादं प्रदर्शयति 'केवलनाणेणत्थे' इत्यादि। केवलज्ञानोपलब्धार्थैकदेशभूतप्रज्ञापनीयार्थाभिधायकः शब्दराशिर्भाष्यमाणः तीर्थकरस्य वाग्योगः शेषं श्रुतं = कारणे कार्योपचाराद् द्रव्यश्रुतं भवतीति गाथातात्पर्यम् । तदुक्तं श्रीहेमसूरिणा-"केवलिनः शब्दमात्रं श्रोतॄणां श्रवणानन्तरलक्षणे शेषकाले श्रोतृगतज्ञानकारणत्वेनोपचाराच्छ्रुतं भवति न तु भणनक्रियाकाल इति। अथवा अन्यथा व्याख्यायते- स केवलिनः सम्बन्धी वाग्योगः श्रुतं भवति, कथम्भूतम्? शेषं = गुणभूतमप्रधानम् औपचारिकत्वादिति। अन्ये तु पठन्ति-वइजोगसुयं हवइ तेसिंति। तत्र तेषां भाषमाणानां सम्बन्धी वाग्योगः श्रोतृगतश्रुतकारणत्वात् श्रुतं भवति द्रव्यश्रुतमिति अर्थः । अथवा तेषामिति श्रोतॄणां, तानाश्रित्येत्यर्थः । भाषकगतं वाग्योग एव श्रुतं वाग्योगश्रुतं भवति भावश्रुतकारणत्वाद् द्रव्यश्रुतमेवेत्यर्थः अथवा तानर्थान् भाषते केवली । वाग्योगश्चायमस्य भाषमाणस्य भवति तेषां श्रोतॄणां भावश्रुतकारणत्वात् श्रुतमसौ भवति" (वि. भा. गा. ८२९ मल. वृत्ति.) .
नन्वेवं भाषकस्य विभङ्गज्ञानोपयुक्तत्वेऽपि कदाचिच्छ्रोतुः भावश्रुतकारणत्वेन तदीयवाग्योगेऽप्युपचारेण द्रव्यश्रुतत्वं स्यात्। ततो ज्ञानचतुष्कोपादानं कर्तव्यम्? न कर्तव्यम्, कादाचित्कत्वात् परममुनीनामनभिमतत्वाच्च उपचारे है न कि अवधि आदि तीन ज्ञान की। अतः श्रुतभावभाषा के निरूपण में अवधि आदि तीन ज्ञान की बात करना अवसरोचित नहीं है। इसका कारण यह है कि जब केवलज्ञान की प्राप्ति होती है तब श्रुतज्ञान ही नहीं रहता है, क्योंकि श्रुतज्ञान के नाश के बिना केवलज्ञान की उत्पत्ति ही नहीं होती है। केवलज्ञान और श्रुतज्ञान एक साथ प्रकट अवस्था में विद्यमान नहीं रहते हैं तब केवली को श्रुतज्ञान का उपयोग कैसे संभवित है? अतः तीन ज्ञान की बात श्रुतभावभाषा में करना अनुचित है। ..
* द्रव्यश्रुत की अपेक्षा केवली में भावभाषा * समाधान :- सत्यं इति । आपकी यह बात तो सत्य है कि केवलज्ञान की उत्पत्ति श्रुतज्ञान के नाश के बिना नहीं होती है। अतः केवली में श्रुतज्ञान नहीं होता है। अतएव श्रुतज्ञान का उपयोग भी केवली को असंभवित है। मगर यहाँ आपसे जो बात कही गई है वह भावश्रुत की अपेक्षा से सत्य है। अर्थात् केवली को भावश्रुत नहीं होता है। केवली में द्रव्यश्रुत तो विद्यमान रहता है। अतः यहाँ केवली में जो श्रुतभावभाषा बताई गई है वह द्रव्यश्रुत की अपेक्षा से ज्ञातव्य है। अर्थात् द्रव्यश्रुत की अपेक्षा से केवली में भावभाषा का यहाँ विधान किया गया है। यहाँ यह शंका कि - "आगम में तो सिर्फ ऐसा ही कहा गया है कि छाद्मस्थिक ज्ञान का नाश होने पर केवलज्ञान उत्पन्न होता है। मगर यहाँ छाद्मस्थिक ज्ञान के एक अंशभूत श्रुतज्ञान का ग्रहण किया गया है वह भावश्रुत की अपेक्षा से ही है न कि द्रव्यश्रुत की अपेक्षा से भी - इस बात में प्रमाण क्या है?" निराधार है, क्योंकि हमने यहाँ जो कहा है कि द्रव्यश्रुत की अपेक्षा से केवली में भावभाषा का संभव है वह बात अप्रामाणिक नहीं है मगर प्रामाणिक है, शास्त्रप्रमाणसिद्ध है। केवली में द्रव्यश्रुत की सत्ता का प्रदर्शक यह रहा आवश्यकनियुक्ति का पाठ । उसका अर्थ यह है कि "तीर्थंकर भगवान केवलज्ञान से (सब द्रव्य-पर्यायरूप) अर्थ को जान कर उनमें से जो अर्थ विषय प्रज्ञापनीय होते हैं, उन्हें कहते हैं। यह वचनयोग शेषश्रुत=द्रव्यश्रुत होता है"| चरम श्रुतकेवली श्रीभद्रबाहुस्वामी के वचन से ही केवली में द्रव्यश्रुत की सिद्धि होती है। इस गाथा का तात्पर्य यह है कि केवली देशना देते हैं उससे श्रोता के भावश्रुतज्ञान की उत्पत्ति होती है अर्थात् केवली की वाणी श्रोता के
१ केवलज्ञानेनाऽर्थान् ज्ञात्वा ये तत्र प्रज्ञापनायोग्याः। तान्भाषते तीर्थकरो वचोयोगः श्रुतं भवति शेषम् ।।