Book Title: Bhasha Rahasya
Author(s): Yashovijay Maharaj, 
Publisher: Divyadarshan Trust

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Page 310
________________ * कल्पान्तरप्रदर्शनबीजाविष्करणम् * २७९ वा = अथवा, अवितथपरिणामरहितस्य = सम्यक् श्रुतपरिणामविकलस्य, मिथ्यात्वाविष्टस्य उपयुक्तस्याऽनुपयुक्तस्य वा सर्वाऽपि प्रकृतं प्रस्तुमः। ननु भवद्भिः प्रकृते हेत्वाद्युपयोगाभावप्रतिपादितो दशवैकालिकनिर्युक्तौ च 'अणुवउत्तो अहेउअं चेव' (दश. अ. ७ नि श्लो. २८०) इत्युक्तमतो विरोधः सम्पनीद्यते । अयं भावः अहेतुकमिति अत्र भेदप्रतियोगिविधया हेतोः प्रवेशात्ं, तदज्ञाने तदज्ञानात्, भेदज्ञानस्य प्रतियोगिज्ञानसम्पाद्यत्वात्, भेदप्रतियोगिज्ञानं लौकिकसन्निकर्षजन्यमलौकिकसन्निकर्षजन्यं वेत्यन्यदेतत् । ततोऽहेतुकं भाषणे समायातो हेतूपयोगो भवद्भिर्वार्यते कथम्? न हि शब्दार्थाज्ञाने शब्दप्रयोगः सम्भवतीति स्ववधाय शस्त्रोत्थापमनमेतदित्याशयेन शङ्कते हेत्वाद्यनुपयोग इति । समाधत्ते - विपरीतव्युत्पत्तेरिति । विपरीतहेतुज्ञानादिति । न हि सद्धेतूपयोगविरहेऽपि असद्धेतौ हेतुत्वप्रकारकं ज्ञानं न सम्भवतीति। ततः सद्धेतूपयोगविकलः सम्यग्दृष्टि विरुद्धहेतुकं युक्त्यागमविरुद्धं यद्भाषते सा श्रुतविषयिणी मृषा भावभाषेत्यर्थः फलितः । ननु लोकोत्तरं तु प्रामाण्यं अनेकान्तवासनोपनीतानन्तधर्मात्मकवस्त्ववगाहित्वेन संशयविपर्यायादावपि सम्यग्दृष्टेर्न यत इति महाभाष्यादौ प्रसिद्धं तद्वदेवानाभोगादिनाऽहेतुकं भाषणेऽपि तद्भाषायां सत्यत्वमेव वक्तुमर्हति न मृषात्वम्, अन्यथा सम्यगुपयुक्तत्वे सत्यपि गुरुनियोगादितः तथाविधसम्प्रदायलब्धार्थादितो वा वितथभाषणसम्भवेन मृषात्वं तन्निमित्तः कर्मबन्धश्च प्रसज्येतेत्याशङ्कायामाह वा = अथवेति । सम्यक् श्रुतपरिणामविकलस्येति । मिथ्यादृष्टौ कदाचित् स्वरूपतो यत् सम्यक् श्रुतं तत्सद्भावेऽपि तत्परिणामो नास्ति । तेन नातिप्रसङ्गः । एवञ्चात्र श्रुते स्वरूपतः सम्यक्त्वस्य नाधिकारोऽपि तु स्वामिकृतस्येति तात्पर्यग्रहणाय 'परिणामे' त्युक्तम् । विशेषणाभावप्रयुक्तो विशिष्टाभावो के बिना ही कोई बोलता हो ? अतः विवक्षारूप उपयोग के अभाव में तो समकितदृष्टि को भी मौन ही रहना पडेगा । तब तो भाषा की ही उत्पत्ति नहीं होगी तो फिर वह सत्य है या असत्य ? द्रव्यभाषा है या भावभाषा ? श्रुतविषयक है या द्रव्यविषयक है ? इत्यादि बातों को भी कोई अवसर न रहेगा। मगर समकितदृष्टि जीव आगमोक्त हेतु आदि के अनुपयोग से भी कभी बोलता हुआ देखा जाता है। अतः यह मानना होगा कि उसमें शब्दजनक विवक्षा = बोलने की इच्छास्वरूप उपयोग विद्यमान ही है, जिससे प्रयुक्त होने से वह भाषा भावभाषा कही जाती है। अतः भावभाषा का जनक विवक्षारूप उपयोग है और प्रकृत में हेतु आदि के उपयोग का अभाव है- यह सिद्ध हो जाता है। शंका :- हेत्वाद्यनु. इति । एक शंका का समाधान मिलते ही दूसरी समस्या खडी हो जाती है। आप कहते हैं कि हेतु आदि के अनुपयोग से समकितदृष्टि बोलता है तब वह भावभाषा मृषा कही जाती है और श्रीदशवैकालिक नियुक्ति में कहा है कि अनुपयुक्त हो कर अहेतुक बोलने पर वह श्रुतविषयक भावभाषा मृषा होती है तब तो आप के वचन और नियुक्ति के वचन में विरोध ही होगा, क्योंकि हेतु आदि के अनुपयोग में अहेतुक भाषण का कैसे संभव होगा ? क्योंकि अहेतुक में नञ् शब्द के प्रतियोगिरूप में हेतु का ही प्रवेश है। तब तो हेतु के उपयोग के बिना 'यह अहेतुक है' यह कैसे मालुम होगा? और वैसा मालुम न होने पर अहेतुक भाषण कैसे होगा ? = समाधान :- विपरीत इति। ठीक ही कहा है कि कोयला होय न ऊजलो, सो मन साबुन लाय। यहाँ तक अनेक शास्त्रों की तथ्यपूर्ण बातें कही फिर भी आप निराधार शंका कर रहे हैं। सम्यग्दृष्टि अनुपयोग से अहेतुक बोलता है इस शास्त्रवचन का तात्पर्य यह है कि वह अनुपयोग से विपरीतहेतुवाला वचन बोलता है। यानी सम्यग् हेतु के उपयोग बिना विपरीत हेतु = युक्तिशून्य हेतु का प्रतिपादन कर रहा है। अतः उसकी भाषा मृषा है। विपरीत हेतु के ज्ञान में सम्यग् हेतु के ज्ञान की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि सम्यग् हेतु से अज्ञात मनुष्य को भी विपरीत हेतु का ज्ञान होता हुआ देखा जाता है। आप अपनी अक्ल लगाओ और शास्त्र के तात्पर्य की खोज करो। सिर्फ विरोध करने से कुछ तत्त्व प्राप्त नहीं होगा। * मिथ्यादृष्टि की सर्व श्रुतविषयक भावभाषा असत्य है * वा. अथवा. इति । अथवा तो यह भी कह सकते हैं कि सम्यक् श्रुत के परिणाम से शून्य मिथ्यादृष्टि की, चाहे वह उपयुक्त हो या अनुपयुक्त हो, श्रुतविषयक सब भाषा असत्य है। यहाँ यह शंका कि- "जब मिथ्यादृष्टि श्रुतविषयक विपरीत भाषा बोलता

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