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* श्रुतभावभाषात्रैविध्यस्थापनम् *
२७७ 'होइ असच्चा भासा, तस्सेव य अणुवउत्तभावेणं। मिच्छत्ताविट्ठस्स व, अवितहपरिणामरहिअस्स ।।८३।।
तस्यैव च = सम्यग्दृष्ट्र अनुपयुक्तभावेन वदतः श्रुतविषयिणी असत्या भावभाषा भवति । अथोपयुक्तानां भाषा भावभाषेति पूव प्रतिज्ञानाद् अनुपयुक्तानां तदभिधाने कथं न पूर्वापरविरोधः? इति चेत् न तत्राभिलापजनकविवक्षारूपोपयोगस्यैव ग्रहणाद् अत्र च युक्तभाषामुद्दिश्योपयुक्तभाषात्वरूपपूर्वोक्तभावभाषात्वविधाने स्पष्ट एव विरोधः । न ह्येवं भवति वह्निमान् पर्वतो धूमध्वजाऽभाववानिति अथाशयः। तन्निरस्यति-नेति। तत्रेति त्रयोदश्यां गाथायाम्। अविरोधादिति अयं भावः भाषाविवक्षयोः कार्यकारणभावसत्त्वेन सर्वत्र भावभाषायामभिलापजनकविवक्षारूपोपयोगजन्यत्वं निराबाधमेव । अतः 'उवउत्ताण' इत्यनेनाभिलापजनकविवक्षात्मकोपयोगशालिनां भावभाषेत्यभिप्रेतम्। प्रकृते चानुपयोगपदेन न शब्दजनकविवक्षारूपोपयोगशून्यत्वमभिप्रेतं किन्तु हेत्वाद्युपयोगविरहितत्वमभिप्रेतम्। अयं भावो शब्दजनकविवक्षारूपोपयोगजन्यसम्यग्दृष्टिभाषायां हेत्वाधुपयोगाजन्यत्वेनासत्यत्वं विधीयते। हर्यादिपदवत् वाचकसाम्येऽपि वाच्यवैषम्येनार्थविशेषसत्त्वेऽप्यर्थान्तरासत्त्वस्य प्रतिपादने न कश्चिद्विरोधलेशगन्धोऽपि। उक्तार्थदाार्थ विपक्षे बाधमाह - सर्वथानुपयोगे इति। तदा सम्यग्दृष्टौ अभिलापजनकविवक्षारूपोपयोगस्याऽप्यभावे इत्यर्थः कार्यः न तूपयोगसामान्याभावे इति, असिद्धेः, अजीवत्वप्रसङ्गाच्च। तूष्णीम्भावप्रसङ्गादिति । शब्दजनकविवक्षारूपोपयोगाभावे
शंका :- सम्यगुपयुक्त सम्यग्दृष्टि की श्रुतविषयिणी भावभाषा सत्य है - यह तो ज्ञात हुआ। मगर श्रुतविषयिणी असत्य भावभाषा किसमें संभवित है? यह तो आपने बताया नहीं। अतः उसका निर्वचन कीजिये।
प्रकरणकार उपर्युक्त शंका का समाधान ८३ वी गाथा से ही दे रहे हैं। यह रहा गाथार्थ।
गाथार्थ :- सम्यग्दृष्टि ही जब अनुपयुक्त होता है तब उसकी भाषा असत्य कही जाती है। अथवा सम्यक् परिणाम से रहित मिथ्यात्व से आविष्ट जीव की भाषा श्रुतविषयक असत्य भावभाषा होती है।८३।
*.श्रुतविषयक असत्य भावभाषा * विवरणाथ :- वही समकितदृष्टि जीव अनुपयुक्त हो कर अर्थात् श्रुतानुसारी उपयोग से शून्य हो कर जब श्रुतविषयक बोलता है तब उसकी श्रुतविषयक भावभाषा मृषा = असत्य होती है। अब शंका का समाधान मिल गया होगा।
शंका :- अथ. इति। आपने एक शंका तो हल कर दी। मगर दूसरी एक शंका खडी हो गई है। वह यह कि - आपने पूर्व में १३ वीं गाथा में यह बताया था कि 'उपयुक्त हो कर जो भाषा बोली जाती है वह भावभाषा है' और आप अभी ऐसा कह रहे हो कि 'अनुपयुक्त सम्यग् दृष्टि की श्रुतविषयक भावभाषा असत्य है'। स्पष्ट ही है कि आपके कथन से सम्यग् दृष्टि उपयोगशून्य हो कर बोलता है तब तो उसकी भाषा द्रव्यभाषा ही हो जायेगी न कि भावभाषा | जब वह भावभाषा ही नहीं है तो भावभाषाविशेषरूप श्रुतभावभाषा कैसे होगी? जब श्रुतभावभाषा ही नहीं है तब श्रुतविषयक असत्य भावभाषा भी कैसे होगी? मूलं नास्ति कुतः शाखा? अतः आप यहाँ जो कह रहे हैं कि- 'अनुपयुक्त समकितदृष्टि की श्रुतभावभाषा मृषा है' इसमें भावभाषात्व का बाध आपके ही वचन से प्राप्त होता है। अतः आपका वचन पूर्वापरविरोधग्रस्त हो जाता है। ठीक ही कहा है कि - गये थे रोजा छुडाने, उल्टी नमाज़ गले पडी।
___ * उपयुक्तत्व और अनुपयुक्तत्व के विरोध का परिहार * समाधान :- न. तत्राभिलाप. इति। ठीक ही कहा है कि खाल ओढ़ाये सिंह की, स्यार सिंह नहीं होय। सिर्फ शास्त्र पढ़ने से ही शास्त्र का रहस्य प्राप्त नहीं होता मगर गुरुसेवापूर्वक शास्त्र का ग्रहण-मनन-चिंतन करने से वह प्राप्त होता है। वह रहस्यप्राप्त होने पर सब विरोध मिट जाते हैं। देखिये, यहाँ शास्त्र के रहस्य को। १३ वीं गाथा में जो कहा गया है कि 'उवउत्ताणं भासा' इत्यादि इसमें उपयोग शब्द से शब्दोत्पादक विवक्षारूप उपयोग ही अभिप्रेत है न कि अन्य उपयोग भी। अर्थात् शब्दजनक विवक्षारूप उपयोग से जन्य भाषा भावभाषा होती है। जब कि यहाँ श्रुतविषयक मृषा भावभाषा में हेतुआदिविषयक उपयोग का अभाव अभीष्ट है। अतः कोई विरोध नहीं है। आशय यह है कि उपयोग के अनेक प्रकार होते हैं। भावभाषा का जनक जो उपयोग
१ भवत्यसत्या भाषा तस्यैव चानुपयुक्तभावेन । मिथ्यात्वाविष्टस्य वाऽवितथपरिणामरहितस्य ।।८३।।