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* वैयधिकरण्यदोषपरिहार *
शिक्षालब्धिसहितास्तु शुकसारिकादयोऽन्ये च तिर्यञ्चो यथायोगं चतुर्विधामपि भाषां भाषन्ते, शिक्षालब्धिभ्यां व्यक्तभाषोत्पत्तेरित्यवधेयम् ।।८१।। उक्ता द्रव्यभावभाषा। अथ श्रुतभावभाषामाह
'तिविहा सुअम्मि भासा सच्चा मोसा असच्चमोसा य।
सम्म उवउत्तस्स उ, सच्चा सम्मत्तजुत्तस्स ।।८।। भाषापदस्य प्रकरणमहिम्ना भावभाषापरत्वात् श्रुते = श्रुतविषया भावभाषा, त्रिविधा = त्रिप्रकारा भवति। तद्यथा सत्या, मृषा भ्यते। ततः सत्यादित्रयोपादानकारणीभूतभाषावर्गणाविलक्षणभाषावर्गणाजन्यत्वादित्यर्थः। प्रथमहेतुनाऽन्ययोगव्यवच्छेदः कृतः, द्वितीयेन चायोगव्यवच्छेद इति । यथासम्भवमनभिगृहीताव्याकृतयोः समावेशः कार्य इत्यादिसूचनार्थमवधेयमित्युक्तम्। ___ व्यक्तभाषोत्पत्तेरिति यथावस्थितार्थप्रतिपादकभाषोत्पत्तेरिति । ततः तद्भाषायाः स्वार्थनिश्चयजनकत्वेन यथायथं सत्यादित्वं सम्भवतीत्याशयः। तदुक्तं प्रज्ञापनायाम-'अहं भंते! उट्टे गोणे खरे घोडए अए एलते जाणति बुयमाणे अहमेसे बुयामि? गोयमा! णो इणढे समत्थे, णण्णत्थ सण्णिणो।' (प्रज्ञा.भा.प.सू. १६३) वृत्तिकारेण चात्र'सञी अवधिज्ञानी, जातिस्मरः, सामान्यतो विशिष्टमनःपाटवोपोतो वा, तस्मादन्यो न जानाति। सञी तु यथोक्तस्वरूपो जानीते' (प्र.पृ. १६९) इत्युक्तम् ।।८१।।
उक्तेति । पञ्चदश्यां गाथायां भावभाषाया द्रव्यश्रुतचरित्रभेदात् त्रैविध्यमुक्तम् । तत्रोक्ता = निरूपिता द्रव्यभावभाषा। अवसरसङ्गतिं प्रदर्शयति अथेति। श्रुते इत्यत्र सप्तम्यर्थः विषयत्वमित्यत आह - श्रुतविषयेति। त्रिविधेति। ननु असत्य और सत्यामृषा भाषा की उपादानकारणीभूत जो भाषावर्गणा होती हैं उनसे विलक्षण विजातीय भाषावर्गणा से शिक्षालब्धिरहित पशु-पक्षी की भाषा उत्पन्न होती है। असत्यामृषा भाषा की उपादानकारणीभूत भाषावर्गणा से जन्य होने से यह भाषा असत्यामृषा ही सिद्ध होती है न कि मृषा आदि। अतः शिक्षालब्धि से रहित पशु-पक्षी की भाषा असत्यामृषा ही है यह साफसाफ सिद्ध हो जाता है। अगर ऐसा आगम का ज्ञान आपको होता तो आपने जो शंका की है उसका उत्थान ही न होता।
शिक्षालब्धिसहिता. इति। जिनको शिक्षा या जातिस्मरणादि लब्धि प्राप्त हुई हैं ऐसे तोता-मेना आदि और अन्य पशु-पक्षी तो सत्यादि चारों भाषा को बोलते हैं। इसका कारण यह है कि शिक्षा और जातिस्मरण विशेष आदि से व्यक्त अक्षर की उत्पत्ति होती है जिससे श्रोता को अर्थ का निर्णय हो सकता है - यह तो रामायण में प्रदर्शित जटायु के प्रसङ्ग आदि से ज्ञात हो सकता है। अतः यदि वे यथावस्थित अर्थ का प्रतिपादन करे तब उनकी भाषा सत्य होगी और विपरीत अर्थ का प्रतिपादन करे तब उनकी भाषा मृषा होगी इत्यादि सुज्ञेय है।।८१।। .
इस तरह विशेषरूप से २१वीं गाथा से लेकर ८१ वीं गाथापर्यन्त भावभाषा के प्रथम भेद द्रव्यविषयक भावभाषा का लक्षण, भेद, प्रभेद, द्रष्टांत आदि से आगम के अनुसार निरूपण हुआ। द्रव्यविषयक भावभाषा के निरूपण को जलांजलि देने के बाद ८२ वीं गाथा से श्रीमद् प्रकरणकार श्रुतभावभाषा का निरूपण कर रहे हैं, जो भावभाषा का दूसरा भेद है- ऐसा १५ वीं गाथा में पूर्व बताया गया था।
गाथार्थ :- श्रुतविषयक भाषा के तीन भेद हैं - सत्य, मृषा और असत्यमृषा । सम्यग्दृष्टि सम्यक् उपयुक्त हो कर जो कुछ बोलता है वह सत्यभाषा है।८२/
* श्रुतविषयक भावभाषा - २ * विवरणार्थ :- 'श्रुते' पद में जो सप्तमी विभक्ति है उसका अर्थ है विषयत्व । अतः श्रुते भाषा' का अर्थ होगा श्रुतविषयक भाषा । प्रस्तुत में भावभाषा का प्रकरण चलता है। अतः प्रकरण के बल पर भाषापद भावभाषा का बोधक है। अतः अर्थ यह होगा श्रुतविषयक भावभाषा। इसके तीन प्रकार होते हैं - सत्य, असत्य और असत्यमृषा | गाथा के पश्चार्द्ध से श्रुतविषयक भावभाषा का - १ त्रिविधा श्रुते भाषा सत्या मृषा असत्यामृषा च । सम्यगुपयुक्तस्य तु सत्या सम्यक्त्वयुक्तस्य ।।८२।।