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* प्रसङ्गसङ्गतिलक्षणोपदर्शनम् *
'एवमसच्चामोसा दुवालसविहा परूविआ सम्मं । दव्वम्मि भावभासा, तेण समत्ता समासेणं । ८० ।।
स्पष्टा।।८०।। अथैतासां भाषाणां मध्ये केषां काः सम्भवन्तीति प्रसङ्गादाह ।
सव्वा विहु सुरनारयनराण, विगलिन्दियाण चरमा य । पंचिंदियतिरियाणवि सा सिक्खालद्धिरहियाणं । । ८१ । । २
सुरनारकनराणां सर्व्वा अपि हि सत्याद्या भाषाः सम्भवन्ति । विकलेन्द्रियाः = द्वित्रिचतुरिन्द्रियाः, तेषां चतसृणां चरमा = असत्यामृषा भाषा भवति, तेषां सम्यक्परिज्ञानपरवञ्चनाद्यभिप्रायाभावेन सत्यादिभाषाऽसम्भवात् ।
सत्यादितोऽतिरिक्ता व्यवहारनयाश्रिता । चरमा भावभाषा ह्यसत्यामृषा विवेचिता ।।१।।
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पूवोत्तरग्रन्थयोरेकवाक्यप्रतिपादनार्थं सङ्गतिं प्रदर्शयति-प्रसङ्गादिति । प्रसङ्गसङ्गत्या इत्यर्थः । अत्र प्रसङ्गसङ्गतिश्च स्मृत्यस्योपेक्षानर्हत्वम्, उपस्थितविषयनिष्ठोपेक्षानर्हतावच्छेदकधर्मवत्त्वमिति यावत् । अन्ये तु प्रकान्तप्रकृतपदार्थज्ञानपूर्वकारपदार्थ - ज्ञानोपकारकत्वं प्रसङ्गसङ्गतिरित्याहुः । अप्रस्तुतार्थख्यापनं प्रसङ्ग इति केचित् । आगमशैल्या चेदं स्वामित्वद्वारमुच्यते । असत्यामृषेति । द्रव्यविषयकभावभाषात्वव्याप्यमसत्यामृषात्वमत्र बोध्यम् । विकलेन्द्रियाणां सत्यादिभाषा कुतो न सम्भवतीत्याशङ्कायामाह - सम्यक्परिज्ञानपरवञ्चनाद्यभिप्रायाभावेनेति । सम्यक्परिज्ञानाभावेन सत्यभाषाव्यवच्छेदः क्रियते । परवञ्चनाद्यभिप्रायाभावेनेत्यनेन मृषाव्यवच्छेदः कृतः । सत्यामृषाघटकीभूतपूर्ण हो गया। अब प्रकरणकार ८० वीं गाथा से इस विषय का उपसंहार करते हैं।
गाथार्थ :- इस तरह असत्यामृषा भाषा के १२ भेदों का सम्यक् प्ररूपण किया गया है। अतः द्रव्य में भावभाषा का निरूपण भी संक्षेप से पूर्ण हुआ । ८०
विवरणार्थ :- गाथा स्पष्टार्थवाली होने से इसका विवरण नहीं किया गया है । ६९ वीं गाथा से ले कर यहाँ तक भावभाषा के प्रथम भेद द्रव्यविषयक भावभाषा के चतुर्थ भेद के बारह भेद का आगम के तात्पर्य को बता कर विरोध - अव्याप्ति आदि दोषों का परिहार कर के वैसी हृदयंगम और न्यायपूर्ण शैली से उपाध्यायजी महाराज ने विवेचन किया गया है कि अत्यामृषा भाषा के संबंधी श्रोता के अज्ञान-संशय-विपर्यय दूर हो जाते हैं। अतः द्रव्यविषयक भावभाषा का संक्षेप से निरूपण भी सम्यक् रहा है - इसमें कोई संदेह नहीं है।
अथैतासां. इति। अब पूर्वप्रदर्शित द्रव्यविषयक भावभाषा के सत्यादि चार भेद में से किस किस जीव को कौन सी भाषा संभवित है? इस विषय का प्रकरणकार प्रसंग से निरूपण करते हैं। प्रसंगनिरूपण का अर्थ यह है कि मुख्य विषय के निरूपण में स्मृत एवं उपेक्षानर्ह विषय का निरूपण । ८१ वीं गाथा से प्रकरणकार सप्रसंग उपर्युक्त बात को बता रहे हैं।
गाथार्थ :- सुर, नारक और मनुष्यों को सर्व भाषा संभव है। विकलेन्द्रिय और शिक्षालब्धिरहित पंचेन्द्रिय तिर्यंच की चरमभाषा = असत्यामृषा स्वरूप होती है । ८१ ।
विवरणार्थ :- देव, नारक और मनुष्यों को सर्व भाषा यानी सत्य, असत्य, सत्यासत्य और असत्यामृषा चारों भाषा संभवित हैं। बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय को, जो विकलेन्द्रिय शब्द से कहे जाते हैं, चार भाषा में से अंतिम असत्यामृषा संभवित है। विकलेन्द्रिय जीवों को सत्य आदि तीन भाषा का संभव नहीं है। इसका कारण यह है कि विकलेन्द्रिय जीव को मन न होने से सम्यक् = यथावस्थित ज्ञान ही नहीं होता है कि यह घट है, घटशब्द का उच्चारण करने से श्रोता को उसका बोध होगा। जब यर्थार्थ ज्ञान ही नहीं है तब सत्य भाषा का संभव कैसे होगा ? वैसे दूसरों को ठगने का अभिप्राय भी नहीं होता है जिसकी वजह से मृषा भाषा का संभव हो। जब सत्य या असत्य भाषा का ही संभव नहीं है तब सत्यामृषा भाषा का कैसे संभव होगा ? अतः पारिशेषन्याय से विकलेन्द्रिय की भाषा असत्यामृषा सिद्ध होती है।
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१ एवमसत्यामृषा द्वादशविधा प्ररूपिताः सम्यक् । द्रव्ये भावभाषा समाप्ता समासेन ।। ८० ।।
२ सर्वा अपि खलु सुरनारकनराणां विकलेन्द्रियाणां चरमा च । पञ्चेन्द्रियतिरश्चामपि सा शिक्षालब्धिरहितानाम् । । ८१ । ।