Book Title: Bhasha Rahasya
Author(s): Yashovijay Maharaj, 
Publisher: Divyadarshan Trust

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Page 305
________________ २७४ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.४. गा. ८१ ० भाषास्वामित्वद्वारदर्शनमा शिक्षा = संस्कारविशेषजनकः पाठः, लब्धिश्च जातिस्मरणरूपा तथाविधव्यवहारकौशलजनकक्षयोपशमरूपा वा, ताभ्यां' रहितानां पञ्चेन्द्रियतिरश्चामपि सा = असत्यामृषा भवति। तेऽपि हि न सम्यग्यथावस्थितवस्तुप्रतिपादनाभिप्रायेण भाषन्ते, नाऽपि परविप्रतारणबुद्धया किन्तु कुपिता अपि परं मारयितुकामा अपि एवमेव भाषन्त इति तेषामसत्यामृषैव भाषा। न च कुपितानां तेषां भाषा क्रोधनिःसृताऽसत्यैव स्यादिति वाच्यम् अव्यक्तत्वेनानवधारणीयत्वाद्, विलक्षणदलजन्यत्वाच्चेत्यवधेयम्। सत्यत्वासत्यत्वयोरभावसिद्धौ नितरां तद्घटितसत्यामृषानिषेधः सिद्ध्यति। तेऽपि = शिक्षालब्धिरहिताः पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चोऽपि, किं पुनर्विकलेन्द्रिया इत्यपि शब्दार्थः। कपिता अपीति. आस्तामकपिता इत्यपिशब्दार्थः। ममारयितुकामा इत्यपिशब्दार्थः । तदुक्तं प्रज्ञापनायाम् - 'पंचिंदियतिरिक्खजोणिया णो च्चं भासं, भासंति, णो मोसं भासं भासंति, णो सच्चामोसं भासं भासंति, एगं असच्चामोसं भासं भासंति णण्णत्थ सिक्खापुव्वगं उत्तगुणलद्धिं वा पड़च्च सच्चं पि भासं भासंति, मोसंपि, सच्चामोसंपि, असच्चामोसंपि भासं भासंति।' (प्र.भा.प.सू. १६७) इति । अव्यक्तत्वेनानवधारणीयत्वादिति। यथावस्थितार्थाप्रतिपादकत्वेन स्वार्थनिश्चयाजनकत्वादिति । स्वार्थनिश्चयाजनकत्वेन न तद्वति तत्प्रकारकशाब्दबोधजनकत्वं येन सत्यत्वं स्यात्, न वा तदभाववति तत्प्रकारकशाब्दबोधजनकत्वं येनाऽसत्यत्वं स्यात् न वांऽऽशिकसत्यासत्यत्वं येन मिश्रत्वं स्यात्। ननु तमुसत्यामृषात्वमपि कुतः स्यादित्यालक्षणदलजन्यत्वादिति। दलं = उपादानकारणम। विलक्षणत्वं च सत्यादिदलापेक्षयेति प्रस्तावाल्ल (पञ्चेन्द्रियतिर्यंच की भाषा) शिक्षा. इति। पंचेन्द्रिय तिर्यंच (पशु के दो प्रकार होते हैं। अमुक ऐसे पशु पक्षी होते हैं जिनको शिक्षा या लब्धि मिली होती है। शिक्षा का अर्थ है विशेष संस्कार का जनक अभ्यास । जैसे कि तोते को 'राम' आदि शब्द की शिक्षा दी जाती है। लब्धि का अर्थ है जातिस्मरण ज्ञान या तो तथाविध व्यवहारकुशलता का जनक क्षयोपशम (शक्ति)। अमुक प्राणी ऐसे भी तो शिक्षा मिली है और न तो लब्धि शिक्षा और लब्धि से शून्य पशु-पक्षी की भाषा भी विकलेन्द्रिय जीवों की भाषा की तरह असत्यामृषा होती है। सामान्य पशु-पक्षी आदि को सत्य आदि भाषा का संभव नहीं है। इसका कारण यह है कि वे न तो दूसरों को सम्यग् अर्थ बोध कराने के अभिप्राय से बोलते हैं और न तो दूसरों को ठगने के अभिप्राय से बोलते हैं। यदि यथावस्थित अर्थप्रतिपादन के अभिप्राय से वे बोले तब तो उसकी भाषा सत्य हो सकती है। यदि दूसरों को ठगने आदि के अभिप्राय से वे बोले तब उसकी भाषा असत्य हो सकती है। मगर सामान्य पशु-पक्षी तो गुस्सा आने पर भी और दूसरों को मारने का अभिप्राय होने पर भी बस ऐसे ही बोलते हैं। गाय, बैल, कुत्ता आदि कुपित हो या न हो, दूसरों को मारने की इच्छा हो या न हो, न तो दूसरों को अर्थबोध कराने के अभिप्राय से और न तो दूसरों को ठगने के अभिप्राय से बोलते हैं। बस वैसे ही प्रलाप करते हैं जिससे श्रोता को कुछ भी अर्थबोध नहीं होता है। अतः शिक्षा और लब्धि से शून्य पंचेन्द्रिय पशु-पक्षी की भाषा केवल असत्यामृषा भाषारूप ही होती है - यह सिद्ध होता है। शंका :- न च. इति। यदि कोपाविष्ट न हो उस दशा में भले ही सामान्य पशु-पक्षी की भाषा असत्यामृषा हो मगर जब वे कोपाविष्ट होंगे तब तो उसकी भाषा मृषा ही हो जायेगी क्योंकि व भाषा क्रोधनिःसत है। क्रोधजन्य सर्व भ में प्रतिपादन हो चूका ही है। अतः क्रोधाविष्ट अवस्था में प्रयुक्त सामान्य पशु-पक्षी की भाषा क्रोधनिःसृत मृषाभाषा ही सिद्ध होती है। अतः असत्यामृषा से अतिरिक्त भाषा का शिक्षालब्धिशून्य पशु-पक्षी में निषेध करना कैसे संगत हो सकता है? * कुपित सामान्य तियच की भाषा व्यवहारतः असत्यामृषा * समाधान :- अव्यक्तत्वेन. इति। जनाब ऐसी शंका करना यह आसमान पर थूकने जैसा है, क्योंकि इस शंका से आप आगम के ज्ञान से रहित हैं यह मालुम हो जाता है। इसका कारण यह है कि शिक्षालब्धिशून्य पशु-पक्षी कितना भी गुस्सा कर के बोले फिर भी उसकी भाषा अव्यक्त होती है - यथावस्थित वस्तु की प्रतिपादक नहीं होती है, अस्पष्ट ही होती है। अतः उस भाषा से श्रोता को अर्थ का कुछ भी निश्चय नहीं होता है। तब श्रोता को भ्रमात्मक निश्चय भी कैसे उत्पन्न हो सकेगा? जिसकी वजह से भाषा असत्य हो सके। अतः अर्थनिश्चायक न होने से उनकी भाषा मृषा नहीं है यह सिद्ध होता है। दूसरी बात यह है कि सत्य, १ ग्रहरहितानां - इति मुद्रितप्रतौ। २ यथास्थित. इति मुद्रितप्रतौ पाठः।

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