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२७० भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.४. गा.७८
० लक्षणलक्षणानि ० इति मानसः सन्देहः । परोक्षसंशयाभ्युपगमे तात्पर्यनिश्चयस्य प्रतिनियतार्थनिश्चयहेतुत्वेन तत्संशये शाब्द एव वा स इतीयं संशयकरणी।
अनेकार्थपदं श्रुत्वेति प्रायिकं, संशयहेतुत्वमात्रमेव लक्षणम् । अतः स्थाणुर्वा पुरुषो वेति भाषाऽपि प्रतियोगिपदाभ्यां कोटिद्वयं
प्रायिकमिति परिचायकमिति । परिचायकत्वञ्च तदघटकत्वे सति अर्थविशेषज्ञापकत्वम् । अनेकार्थपदं श्रुत्वेत्यस्य लक्षणवृत्तितयाऽङ्गीकारे तु इदं तटस्थलक्षणं स्यात्। कादाचित्कत्वे सति व्यावर्तकत्वं तटस्थलक्षणत्वं यथा देवदत्तस्य तिलकादिकम् | सत्यन्तेन स्वरूपलक्षणव्यवच्छेदः क्रियते। ननु तर्हि अस्याः स्वरूपलक्षणं किमित्याशङ्कायामाह - संशयहेतृत्वमात्रमेव लक्षणमिति। मात्रपदमनेकार्थपदश्रवणव्यवच्छेदार्थः तेन नाऽव्याप्तिरनुपदमेव वक्ष्यमाणस्थले। एवकारोऽयोगव्यवच्छेदार्थः, स च लक्षणमित्यनन्तरं योज्यः यद्वा एवकारस्य तात्पर्यग्रहकत्वमिति भावनीयम। संशयहेतवचनत्वमिति प्रकरणाल्लभ्यते। तेन न सामान्यधर्मदर्शनादावतिव्याप्तिः। प्रसङगात लक्षणलक्षणानि प्रदर्श्यन्ते। व्यतिरेकिहेतुवचनं लक्षणमित्येके। लक्ष्यमात्रव्यापको धर्मो लक्षणमित्यन्ये। असाधारणधर्मो लक्षणमित्यपरे। लक्षणं ज्ञानजनकज्ञानविषय इति परे। अव्याप्त्यतिव्याप्त्यसम्भवदोषत्रयशून्यं लक्षणमित्यपि केचित्। सजातीयविजातीयव्यावर्तको लक्ष्यगतः कश्चिल्लोकप्रसिद्धाकारो लक्षणमिति ऋजवः। वेदान्तिनस्तु लक्ष्यतावच्छेदकसमनियतत्वं लक्षणम् । तच्च लक्ष्यतावच्छेदकेन सह समव्याप्तिकत्वम्, यथा अन्तःकरणावच्छिन्नं चैतन्यं प्रमातृचैतन्यमिति वदन्ति । समानासमानजातीयव्यवच्छेदकं लक्षणमिति पामराः। व्यतिकीर्णवस्तुव्यावृत्तिहेतुर्लक्षणमिति तु स्याद्वादिनो वयम् ।
प्रतियोगिपदाभ्यामिति। स्थाणुपुरुषपदाभ्यां । प्रतियोगित्वं चात्र विरोधित्वम् । न चात्र विरोधो न पदयोः किन्तु तादात्म्येन पदार्थयोः समवायेन पदार्थतावच्छेदकयोर्वेति पदयोः कथं प्रतियोगित्वमिति वाच्यम प्रतियोगिवाचकपदाभ्यामित्यत्र तात्पर्यात्। कोटिद्वयमिति। स्थाणुत्वपुरुषत्वरूपकोटिद्वयम् । कोटित्वं च प्रकृते संशयजनकज्ञानी
* परोक्षसंशय की उत्पत्ति * परोक्षसंशयाभ्यु. इति । नव्य मनीषियों ने परोक्ष संशय का भी स्वीकार किया है। उनका आशय यह है कि तात्पर्यज्ञान शाब्दबोध का हेतु होता है। तात्पर्य यानी वक्ता के अभिप्राय का निश्चय होने पर श्रोता को निश्चयात्मक शाब्दबोध होता है वैसे तात्पर्य में संशय होने पर यानी संशयात्मक तात्पर्यज्ञान होने पर संशयात्मक शाब्दबोध होना न्यायप्राप्त है। अतः अनेकार्थक पद के तात्पर्य का निश्चय होने पर जैसे प्रतिनियत अर्थ का निश्चयात्मक शाब्दबोध होता है वैसे ही अनेकार्थक पद के तात्पर्य में संदेह होने पर संशयात्मक शाब्दबोध होता है कि 'लवण आनयन मेरा कर्तव्य है या अश्व आनयन?' संशय प्रत्यक्ष ही होता है परोक्ष नहीं - इसमें कोई विनिगमक न होने से वह नियम मान्य नहीं हो सकता है। अतः अपनी सामग्री के अनुसार संशय कभी प्रत्यक्षरूप होता है और कभी परोक्षस्वरूप होता है। परोक्ष संशय का अर्थ यहाँ शाब्द संशय ऐसा अभिप्रेत है। अतः नव्य नैयायिक के मत के अनुसार तात्पर्यग्राहक भोजनप्रकरण आदि के अभाव में 'सैन्धवमानय' शब्द से शाब्दज्ञानात्मक संशय होता है। प्राचीन नैयायिक के मतानुसार यहाँ मानस प्रत्यक्षात्मक संशय होता है। संशय का स्वरूप चाहे कैसा भी हो मगर तादृश संशय को उत्पन्न करने से वह भाषा संशयकरणी भाषा कही जाती है। यथानाम तथा गुण ।
* संशयकरणी भाषा का लक्षण * अनेका. इति। यहाँ जो कहा गया है कि जिस भाषा के अनेक अर्थवाले पद को सुन कर श्रोता को संशय होता है वह संशयकरणी भाषा है। उसमें अनेकार्थवाले पद को सुन कर - यह अंश प्रायिक है। अर्थात् वह अंश सब संशयकरणी भाषा में रहता है - ऐसा नहीं है मगर अमुक संशयकरणी भाषा में ही रहता है। अतः वह संशयकरणी भाषा के लक्षण में प्रविष्ट नहीं है, सिर्फ परिचायक है। संशयकरणी भाषा का लक्षण तो सिर्फ संशयहेतुत्व ही है जो कि उस भाषा में रहता ही है। अर्थात् संशयहेतुवचनत्व ही संशयकरणी भाषा का लक्षण है। संशयकरणी भाषा का ऐसा लक्षण बनाने से सब संशयकरणी भाषा का संग्रह होता है। अतः 'स्थाणुर्वा पुरुषो वा' यह भाषा भी संशयकरणी के उक्त लक्षण से संगृहीत होती है। उक्त भाषा में स्थाणु और पुरुष ये दो पद प्रतियोगिपद है अर्थात् विरुद्ध अर्थ के वाचक हैं। स्थाणुत्व और पुरुषत्व एक वस्तु में नहीं रहते हैं। अतः परस्परविरुद्ध हैं। विरुद्ध