________________
* मृषाभाषालक्षणद्वयभेदप्रदर्शनम् *
१९९
तथाहि - चतुर्द्धाऽसत्या भाषा प्रवर्त्तते, द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्चेति । द्रव्यतः सर्वेषु द्रव्येषु, क्षेत्रतो लोकेऽलोके वा, लक्षणयोरैक्यापत्तिः उपधेयसाङ्कर्येऽप्युपाध्योरसाङ्कर्याद्विति । एतेन क्वचिदव्याप्तिरपि प्रत्युक्ता व्यवहारनयाभिमतायाः सर्वस्या मृषाभाषाया तादात्म्येन तादृगन्यतरत्वव्याप्तत्वात्, अन्यतरत्वस्यैव तल्लक्षणत्वात् । न च गौरवम्; प्रमाण-प्रवृत्तिसमये सिद्ध्यसिद्धिभ्यां पराहतत्वात् । एतेन पुनरुक्तिदोषोऽपि निरस्त इत्यादि भावनीयम् ।
द्रव्यत इत्यादि। द्रव्यमाश्रित्येत्यर्थः । तदुक्तं पाक्षिकसूत्रेऽपि से मुसावाए चउव्विहे पन्नत्ते - दव्वओ, खित्तओ, कालओ, भावओ त्ति' इति । सर्वेषु द्रव्येष्विति । विषयत्वं सप्तम्यर्थः । तेन सर्वद्रव्यविषयिणी मृषाभाषेत्यर्थः यथा 'नास्ति आत्मा' 'अनन्तप्रदेशमय आत्मा श्यामाकतण्डुलमात्रो वे 'त्यादिः ।
क्षेत्रत इति । क्षेत्रमाश्रित्येत्यर्थः । नन्वाकाशस्य द्रव्यत्वेन तेनैव तदुपक्षयात्क्षेत्रतोऽसत्यभाषाया अतिरिक्त उपन्यासो व्यर्थ इति चेत् ? मैवम्, लोकालोकान्यतररूपाकाशस्य द्रव्यत्वेऽपि लोके क्षेत्रत्वेन प्रसिद्ध्या पृथगुपादाने दोषाभावात् । एवमेव दिन-रात्र्यादिरूपस्य समयस्य द्रव्यत्वेऽपि लोके कालत्वेन प्रसिद्ध्या पृथगुपादाने न दोषः, तथैव लोकव्यवहारानुसारित्वोपपत्तेः । यद्वा कालत इत्यनेन कालस्य न विषयविधया निर्देशः किन्तु अधिकरणविधयेति न कश्चिद् क्योंकि अलक्ष्य में लक्षण का गमन ही अतिव्याप्ति का लक्षण है। वह अतिव्याप्ति इस तरह आयेगी कि उपमावचन, जैसे कि 'चन्द्रमुखी' यह वचन, मुख चन्द्र नहीं है फिर भी चन्द्ररूप से मुख का बोध कराता है। अतः असत्यवचन बन जायेगा । कल्पितोपमान में तो स्पष्ट ही वाच्यार्थ का बाध होने असत्यवचन के लक्षण का गमन सिद्ध ही है ।
-
* उपमासत्य भाषा मृषा नहीं है *
समाधान :- यथार्थ इति । हमने जो मृषाभाषा का लक्षण बताया है वह वैसे ही हमें मान्य नहीं है, मगर हमारा तात्पर्य यह है कि - जो वचन यथार्थ तात्पर्य के अभाव से प्रयुक्त हो और जो जैसा न हो वैसा उसका बोधक हो वह वचन मृषाभाषा के लक्षणरूप है। इस तरह गाथा का अर्थ करने से कोई भी दोष नहीं आयेगा, क्योंकि चरितोपमान, कल्पितोपमान आदि वचन यथार्थ तात्पर्य के अभाव से प्रयुक्त नहीं है किन्तु यथार्थ तात्पर्य से ही प्रयुक्त है। यह बात तो ३४वीं गाथा में 'भावाबाहेण' पद से बतायी गई है। पुनः वहाँ अनुसन्धान करने से यह ज्ञात हो जायेगा कि उपमावचन यथार्थ तात्पर्य से ही प्रयुक्त है। अतः अतस्मिंस्तद्वचनरूप होते हुए भी यथार्थ तात्पर्य के अभाव से प्रयुक्त न होने से वह असत्यभाषा के लक्षण से आक्रान्त नहीं है। अतएव अतिव्याप्तिदोष का कोई अवकाश नहीं है।
* मृषा भाषा का पारिभाषिक लक्षण *
परि. इति । अब मृषा भाषा का पारिभाषा के अनुसार लक्षण बताया जाता है कि विराधक भाषा मृषा है। यह मृषा भाषा का लक्षणान्तर यानी दूसरा लक्षण है। मतलब कि विराधकवचनत्व ही मृषाभाषा का पारिभाषिक लक्षण है। यहाँ यह शंका हो कि - 'प्रथम लक्षण और द्वितीय लक्षण एक ही है, क्योंकि यथार्थ तात्पर्य से शून्य ऐसा जो अतस्मिंस्तद्वचन है वह भी विराधक वचन ही है, आराधक नहीं। अतः पारिभाषिक लक्षण लक्षणान्तर = द्वितीय लक्षण कैसे होगा?' तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि विराधकत्व यहाँ सद्भूतनिषेधत्व आदि रूप से अभिप्रेत है। आशय यह है कि प्रथमलक्षण असद्भूत के उद्भावनस्वरूप है, सद्भूत के निषेधरूप नहीं । अतः सद्भूतनिषेधत्वरूप अभिप्रेत विराधकत्व 'पीतः शंखः' इत्यादि वचन में, जो कि मृषा भाषा के प्रथम लक्षण से आक्रान्त है, न होने से उसमें विवक्षित विराधकत्व नहीं है। अतएव उसमें द्वितीय लक्षण की प्रवृत्ति नहीं होती है। इस तरह सद्भूतप्रतिषेध आदिरूप से विराधकत्व की विवक्षा करने से उभय लक्षण में ऐक्य आदि किसी दोष की आपत्ति नहीं आती है।
* मृषा भाषा के द्रव्य-क्षेत्र आदि की अपेक्षा चार भेद *
तत्र इति । मृषा भाषा में द्रव्यादि चार भंग ज्ञातव्य हैं। ज्ञातव्य यह पद मूलगाथा में नहीं लिया गया है, लेकिन अर्थ के अनुरोध से उसका अध्याहार करना आवश्यक है। मृषा भाषा के चार भेद इस तरह हैं कि द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः और भावतः । द्रव्य की अपेक्षा से मृषा भाषा सर्व द्रव्यों में प्रवृत्त होती है। सर्व द्रव्य मृषा भाषा के विषय हो सकते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा से लोक और अलोक मृषा भाषा के विषय होते हैं। जैसे कि लोकसंबंधी असत्य वचन 'लोकाकाश अनन्तप्रदेशमय है' इत्यादि वचन । वास्तव
-