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२२४ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.३. गा. ५७
0'मूले वृक्षः कपिसंयोगी तिवचनमीमांसा 0 धयंशे प्रमाजनकत्वात् । तस्माद्धय॑शविनिर्मोकेन परिस्थूरभ्रमप्रमाजनकत्वमादायैवैतभेदातिरेक इति ध्येयम्।
ननु तथापि 'मूले वृक्षः कपिसंयोगी' इत्यत्र मूलस्य कपिसंयोगावच्छेदकत्वांशेऽसत्यत्वेऽपि वृक्षस्य कपिसंयोगवत्त्वांशे
निगमनमाह तस्मादिति। मृषात्वावच्छेदेन धन॑शविषयकप्रमाजनकत्वसत्त्वेन मृषाभाषाविलयप्रसङ्गादिति। धन॑शविनिर्मोकेनेति। धन॑शप्रवेशमनादृत्येत्यर्थः। एतद्देदातिरेक इति। परिस्थूलव्यवहारनयाभिप्रायेण धर्मांशे विपर्ययाविपर्ययरूपत्वेन भ्रमप्रमाजनकत्वात्सत्यामृषात्मकस्य भाषाभेदस्याऽसत्यातोऽतिरिक्तत्वम्। तथा च प्रदर्शितभाषाया घटरूपधर्मांशे केवलं विपर्ययरूपत्वेन भ्रमजनकत्वादसत्यत्वमेव न तु सत्यामृषात्वम्, धर्मांशे भ्रमप्रमाजनकत्वाभावादिति। न चैवमपि मुण्डभूतले 'घटवद् भूतलमि'ति वाक्यस्य घटात्मकधर्मांशे भ्रमजनकत्वेऽपि भूतलत्वरूपधर्माशे प्रमाजनकत्वान्मिश्रत्वं दुर्निवारमिति वाच्यम् धर्मितावच्छेदकातिरिक्तधर्मांशे एव भ्रमप्रमाजनकवचनत्वस्य मिश्रलक्षणत्वादित्यादिसूचनार्थं ध्येयमित्युक्तम् ।
तथापीति। धर्मांशापेक्षयैव भ्रमप्रमाजनकत्वेन सत्यामृषात्वाभ्युपगमेऽपीति। मूले वृक्षः कपिसंयोगी इति। शाखायां कपिसंयोगसत्त्वदशायामिदं बोध्यम्। ननुमते अत्र मूले कपिसंयोगावच्छेदकत्वं वृक्षे च कपिसंयोगवत्ता भासते। सत्यत्वादिति। शाखायां कपिसंयोगसत्त्वादिति गम्यम्। सत्यामृषात्वमिति। अवच्छेदकत्वरूपधर्मांशे भ्रमजनकत्वेऽपि संयोगरूपधर्माशे प्रमाजनकत्वादिति भावः | समाधत्ते नेति । मूले इत्यत्रावच्छिन्नत्वं सप्तम्यर्थः, तस्य च कपिसंयोगिभी धर्मी अंश में प्रमाजनक होने से धर्मी अंश में तो सत्य ही है। मृषाभाषा भी केवल भ्रमजनक न होने से मृषाभाषा न रहेगी, मगर सत्यामृषा भाषा बन जायेगी। अर्थात् सवाँश में भ्रमजनक कोई भी भाषा न होने से कोई भी भाषा मृषा नहीं कहलायेगी। इस तरह सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने पर धर्मी अंश में प्रमाजनक होने से सत्य और धर्म अंश में भ्रमजनक होने से असत्य ऐसी भाषा को
हने पर मृषाभाषा का ही उच्छेद हो जायेगा। अतः यही मानना होगा कि - धर्मी अंश को छोड कर स्थूल दृष्टि से धर्म अंश में ही भ्रम और प्रमा का जनक जो वचन हो वह मिश्रभाषारूप है। अर्थात् अमुक धर्म अंश में भ्रमजनक और अमुक धर्म अंश में प्रमाजनक भाषा ही सत्यामृषा भाषा है। तब तो मुंड भूतल में 'घटवद् भूतलं' यह भाषा असत्य ही सिद्ध हो जायेगी, क्योंकि यह भाषा धर्म अंश में केवल भ्रमजनक ही है, भ्रम-प्रमा उभयजनक नहीं है। इस सम्बन्ध में शांति से विचार करने की सूचना देने के लिए विवरणकार ने 'ध्येयं' पद का प्रयोग किया है।
पूर्वपक्ष :- ननु तथापि इति । जो भाषा अमुक धर्म अंश में प्रमाजनक होने से सत्य हो और अमुक धर्म अंश में भ्रमजनक होने से असत्य हो वह भाषा मिश्रभाषा स्वरूप है - ऐसा कथन करने पर भी असत्यभाषा सत्यामृषा बन जायेगी। देखिये - जब वृक्ष में शाखावच्छेदेन कपिसंयोग है तब वक्ता यह बोलता है कि 'मूले वृक्षः कपिसंयोगी' यह वचन सत्यामृषा हो जायेगा। इसका कारण यह है उस वाक्य से जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसमें मूल कपिसंयोगावच्छेदकरूप से मालुम होता है और वृक्ष कपिसंयोगवाला है ऐसा ज्ञात होता है। वास्तव में कपिसंयोग का अवच्छेदक है शाखा । अतः कपिसंयोग की अवच्छेदकता शाखा में है, मूल में नहीं। फिर भी मूल में कपिसंयोगावच्छेदकतारूप धर्म का भान होता है जो कि तदभाववति तत्प्रकारक ज्ञान होने से भ्रमात्मक है। लेकिन वृक्ष में कपिसंयोगरूप धर्म का जो भान होता है वह तो प्रमात्मक ही है, क्योंकि वृक्ष में शाखावच्छेदेन कपिसंयोग तो विद्यमान है ही। इस तरह अवच्छेदकतारूप एक धर्म अंश में भ्रमात्मक ज्ञान का जनक होने पर भी कपिसंयोगरूप अन्य धर्म अंश में प्रमाजनक होने से वह वाक्य सत्यामृषा हो जायेगा। मगर लोक में उस वचन का मृषारूप से ही व्यवहार होता है न कि सत्यामृषा के रूप में। अतः आपके द्वारा किये गये परिष्कार से भी उपर्युक्त वचन में मृषात्व की उपपत्ति न हो सकेगी और सत्यामृषात्व की आपत्ति का परिहार भी न हो सकेगा।
* 'मूले वृक्षः कपिसंयोगी' वचन मिश्रभाषारूप नहीं है * उत्तरपक्ष :- न मूला इति । आप तो हिजडे के घर बेटा हुआ - ऐसी बात कर रहे हैं। जो भाषा मृषारूप से प्रसिद्ध है वह सत्यामृषा कैसे हो सकेगी? इसका कारण यह है कि 'मूले वृक्षः कपिसंयोगी' इस वाक्य से जो ज्ञान उत्पन्न होता है, उसमें वृक्ष में कपिसंयोग और मूल में कपिसंयोग की अवच्छेदकता का स्वतन्त्र भान नहीं होता है, मगर मूलावच्छिन्न कपिसंयोग का ही वृक्ष