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* मिश्रभाषाया दशविधत्वातिरेकप्रत्याख्यानम् *
उक्ताऽद्धामिश्रिता ९ । अथाऽद्धाद्धामिश्रितामाह
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'रयणी दिवसस्स व देसो देसेण मीसिओ जत्थ । भन्नइ सच्चामोसा, अद्धद्धामीसिया एसा । । ६७ ।।
रजन्या दिवसस्य वा देशः = प्रथमप्रहरादिलक्षणः, देशेन = द्वितीयप्रहरादिलक्षणेन यत्र मिश्रितो भण्यते एषा अद्धाद्धामिश्रिता समावेशादिति । रजनीप्रतियोगिकोत्पत्तौ एकद्वयादिक्षणव्यवधानाभावस्य बाधितत्वेऽपि प्रहरादिव्यवधानाभावस्याऽबाधितत्वेन भ्रमप्रमाजनकत्वात्सत्यामृषात्वमिति भावः । विपक्षे बाधमाह अन्यथेति । प्रदर्शितरीत्या सत्यामृषात्वाऽस्वीकारे । तथाप्रयोगप्रसङ्गादिति । मध्याह्नकालेऽपि 'रजनी वर्त्तत इत्यादिवचनप्रयोगप्रसङ्गादिति । ततश्च यथाविधव्यवधाने सति प्रयोजनवशाद् यादृशवचनप्रयोगो लोके जायते तस्यांशतो बाधाबाधाभ्यां सत्यामृषात्वं तथाविधव्यवधानातिक्रमेण यादृच्छिकतादृशप्रयोगे तु मृषात्वमेवेति पर्यवसितम् । ननु तर्हि लक्षणैव कथं नाङ्गीक्रियते ? इत्याह पदान्तरे लक्षणा च नानुशासनस्वरससिद्धेति । तथाविधवचनानां सत्यामृषायां समावेशप्रदर्शनान्नानुशासनस्य लक्षणायां स्वरस इत्युन्नयनादिति स्वयमूह्यम् । ६६ ।।
मध्यंदिनो जात इति । यद्यपि विद्यमानप्रागभावप्रतियोगिके मध्यंदिने स्वप्रतियोगिकोत्पत्तिक्षणध्वंसवैशिष्ट्यस्य बाधेन भ्रमजनकत्वात्तादृशवाक्यस्याऽसत्यत्वमेव तथापि लक्ष्यतावच्छेदकाव्यवहितोत्पत्तिकत्वघटकीभूतव्यवधानाभावकूटेंऽशतो बाधाबाधाभ्यां भ्रमप्रमाजनकत्वेन सत्यामृषात्वस्याऽप्रत्यूहान्न कश्चिद्दोष इति सर्वं चतुरस्रम् ।
नन्वेवं सत्यद्धाद्धाद्धामिश्रिताऽपि वक्तव्या, न च तस्या अद्धाद्धामिश्रितायामेवान्तर्भावान्नातिरेक इति वाच्यम् एवमद्धाद्धामिश्रिताया अप्यद्धामिश्रितायामेवान्तर्भावात्तुल्यन्यायेनाद्धाद्धामिश्रितायाः स्वतन्त्रताऽपि हन्येतेति चेत् ? नैवम् अनितिविस्तरसङ्क्षेपरुचिनयाभिप्रायेण सत्यामृषाविशेषविभागप्रदर्शनात् परममुनीनां पर्यनुयोगानर्हत्वात् एतेनानन्त* अद्धामिश्रित भाषा सत्यामृषास्वरूप ही है- स्याद्वादी
स्याद्वादी :- न लक्ष्य इति। आपने अपने नाम पर धब्बा लगा दिया, बिना सोच समझ कर बोलने से देखिये यदि आपने लक्षणा मानी फिर भी लक्ष्यतावच्छेदक तो आपके मत से अव्यवहितोत्पत्तिकत्व ही बनेगा जिसका घटक एक अंश है अव्यवधान या व्यवधानाभावसमूह । सूर्यास्त होने में जब १०/१५ मिनट की देर है तब 'रजनी वर्त्तते' यह वाक्य कहा जाता है, मगर रात्री की उत्पत्ति में सर्वथा व्यवधान = अंतर का अभाव नहीं है किन्तु १५ मिनिट का व्यवधान ही है। फिर भी १ प्रहर आदि काल का व्यवधान नहीं है। अतः व्यवधान का अभाव भी है। रात की उत्पत्ति में १०/१५ मिनट का व्यवधान होते हुए भी १ प्रहरादि का व्यवधान नहीं होने से लक्ष्यावच्छेदकघटकीभूत व्यवधानाभावसमूह के एक अंश में बाध और अन्य अंश में बाधाभाव होने से यह भाषा सत्यामृषा ही है, केवल सत्य या केवल मृषा नहीं है। यदि ऐसा न माना जाय तब तो १ प्रहर का व्यवधान होने पर भी दिन में ३ या ३ । । बजे 'अब तो रात हो गई है' इत्यादि वचनप्रयोग की आपत्ति होगी। मगर ऐसा प्रयोग नहीं होता है। अतः मानना होगा कि लक्ष्यतावच्छेदकघटक में आंशिक संवाद और विसंवाद होने से यह भाषा सत्यमृषा ही है। आपने जो यह कहा था कि 'लक्षणा के स्वीकार में तो यह भाषा सत्य ही बन जायेगी' - वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि यहाँ लक्षणा करने में अनुशासन का स्वरस नहीं है। अद्धामिश्रित भाषा का सत्यामृषा भाषा में प्रदर्शन किया है इसीसे पता चलता है कि यहाँ पदान्तर में लक्षणा अनुशासनस्वरससिद्ध नहीं है। सौ बात की एक बात, अद्धामिश्रित भाषा सर्वथा सत्य या सर्वथा मृषा नहीं है, मगर सत्यामृषा ही है । ६६ ।।
अद्धामिश्रित भाषा का निरूपण पूर्ण हुआ । अब द्रव्यविषयक भावभाषा के तृतीयभेदरूप सत्यामृषाभाषा के अंतिम और दशवे भेद अद्धाद्धामिश्रित भाषा को उपाध्यायजी महाराज ६७ वीं गाथा से बता रहे हैं।
गाथार्थ :- रात या दिन का कुछ भाग अन्य भाग से जहाँ मिश्रित हो जाता है, वह भाषा अद्धाद्धामिश्रित सत्यामृषा भाषा कही जाती है । ६७ ।
१. रजन्या दिवसस्य च देशो देशेन मिश्रितो यत्र । भण्यते सत्यामृषाऽद्धाद्धामिश्रितैषा । । ६७ ।। २. एवं सत्यामृषाभेदा उपदर्शिताः समयसिद्धाः । भाषामसत्यामृषामतः परं कीर्तयिष्यामि । ६८ ।।