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२४२ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.३. गा. ६७
०विनिगमनाविरहनिराकरणम् ० सत्यामृषा । यथा प्रथमपौरुष्यामेव वर्तमानायां कश्चित् कञ्चित् त्वरयन् वदति - 'चल मध्यंदिनो जात' इत्यादि उक्ताऽद्धाद्धामिश्रिता १०।।७।।
तदेवमुपदर्शिताः सत्यामृषाभेदाः । अथैतन्निरूपणसिद्धत्वमसत्यामृषानिरूपणप्रतिज्ञां चाऽऽह "एवं सच्चामोसाभेया उवदंसिया समयसिद्धा। भासं असच्चमोसं अओ परं कित्तइस्सामि ।।६८।।
स्पष्टा ।।६८।। मिश्रितादिवत् पर्याप्तापर्याप्तसूक्ष्मबादरैकद्व्यादीन्द्रियादिमिश्रिताया अपि प्रदर्शनं कर्तव्यं यद्वा तद्वदेवानन्तमिश्रितादिप्रदर्शनमपि न कर्तव्यं विनिगमनाविरहादिति प्रत्युक्तमित्यादि निपुणतरं निभालनीयम् ।।६७।। __एवमिति। षट्पञ्चाशत्तमगाथातः प्रारभ्य सप्तषष्ठीगाथापर्यन्तं लक्षण-भेद-निदर्शनादिप्रदर्शनप्रकारेण| समयसिद्धा इति। प्रज्ञापनादशवैकालिकनियुक्त्याद्यागमप्रसिद्धा इति यावत् । अनेन स्वमनीषिकाव्यवच्छेदः कृतः।
निश्चयतो मृषा वाक्सत्यामृषा व्यवहारतः । यथा सूत्रानुसारेण, स्यात्तथा दर्शिताऽधुना ।।१।। इति मुनियशोविजयविरचितायां मोक्षरत्नाभिधानायां भाषारहस्यविवरणटीकायां तृतीयः स्तबकः।
* अद्धाऽद्धामिश्रित सत्यामृषा भाषा - १०/३ * विवरणार्थ :- रात या दिन का प्रथम प्रहर आदि स्वरूप एक भाग द्वितीय प्रहरादि रूप अन्य भाग से जहाँ मिश्रित होता है, वह भाषा अद्धाद्धामिश्रित सत्यामृषा भाषा कही जाती है। यह उदाहरण से स्पष्ट हो जायेगा। जैसे कि दिन की प्रथम पौरुषी विद्यमान होने पर ही जब कोई ऐसा कहे कि - 'चल चल अभी तो मध्याह्न हो गया।' इत्यादि भाषा अद्धाद्धामिश्रित भाषा स्वरूप है। यहाँ अद्धाद्धा का अर्थ है दिन रूप अद्धा-काल के एक देशरूप अद्धा काल। वह अन्य प्रहर से मिश्रित हो कर कहा जाता है। इसलिए इस भाषा को अद्धाद्धामिश्रित भाषा कहते हैं। इस तरह अद्धाद्धामिश्रित भाषा का निरूपण पूर्ण हुआ।।६७।। ___ अद्धाद्धामिश्रितभाषा के निरूपण से सत्यामृषा भाषा के भेदों का निरूपण पूर्ण हुआ। अब श्रीमदजी द्रव्यविषयक भावभाषा के तृतीय भेदरूप सत्यामृषा के निरूपण की समाप्ति को और असत्यामृषाभाषा के, जो कि द्रव्यविषयक भावभाषा का चतुर्थ और अंतिम भेद हैं, निरूपण की प्रतिज्ञा को ६८ वी गाथा से बता रहे हैं।
गाथार्थ :- इस तरह आगम में प्रसिद्ध सत्यमृषा के भेद बताये गये। अब मैं (प्रकरणकार) असत्यमृषा भाषा को कहूँगा।६८ ।
विवरणार्थ :- गाथा स्पष्ट होने से विवरणकार के रूप में प्रकरणकार ने विवरण नहीं किया है। बात भी सही ही है कि इस प्रकरण में ५६ वी गाथा से लेकर ६७ वीं गाथा पर्यंत लक्षण, भेद, हेतु, दृष्टांत आदि के द्वारा उपाध्यायजी ने सूक्ष्मरूप से सत्यामृषा भाषा का निरूपण किया है अब प्रकरणकार अपनी प्रतिज्ञा का निर्वाह करने के लिए असत्यामृषा भाषा का, जिसके निरूपण की प्रतिज्ञा की गई है, लक्षण बता कर विभाग बता रहे हैं।
१ अनधिकृता या तिसृस्वपि न चाराधनविराधनोपयुक्ता । भाषाऽसत्यामृषा एषा भणिता द्वादशधा ।।६९।।