Book Title: Bhasha Rahasya
Author(s): Yashovijay Maharaj, 
Publisher: Divyadarshan Trust

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Page 285
________________ २५४ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.४. गा.७५ ० मतभेदेन पृच्छानिरुक्तिः 'जिन्नासियत्थकहणं परूविया पुच्छणी जिणवरेहिं। पन्नवणी पन्नत्ता विणीयविणयम्मि विहिवाओ।७५।। जिज्ञासितस्य = ज्ञातुमिष्टस्य अर्थस्य कथनं तद्विदः पायें, जिनवरैः पृच्छनी प्रज्ञप्ता। न च निग्रहार्थं विकल्पोक्तायां 'एगे भवं दुवे भवं' इत्यादि सोमिलादिभाषायामव्याप्तिः, छलवाग्भूतायास्तस्या अलक्ष्यत्वात्। 'कुत आगतः' 'क्व गमिष्यसि' 'कइविहा णं भंते! उत्तरप्रयोजकः शब्दः पृच्छेति केषाञ्चिन्मतम । तदव्यपोहायाऽऽह-जिज्ञासितस्येति। एतेन प्रतिवचनानन्तरमाक्षेपोत्थानं पृच्छेति परेषां कथनं प्रत्युक्तम निग्रहवाक्छलादावतिप्रसक्तेः । तदुक्तमपरैरपि 'यत्रान्वेषणमर्थानां वाक्यैरभ्यर्थनापरैः। जिज्ञासुः पृच्छति परं सा पृच्छेत्यभिधीयते ।। 'प्राचीनचूर्णिकारस्याऽप्यत्रैव निर्भरः 'अविण्णातस्स संदिद्धस्स वा अत्थस्स जाणणत्थं तदभियुत्तचोयणं पृच्छणी। (दश. प्रा. चू. पृ. १६१) इत्यनेन ज्ञायते। परेऽपि 'अविज्ञातार्थज्ञानार्थमिच्छाप्रयोज्यवाक्यं पृच्छेत्याहः। ज्ञानोद्देश्यकप्रवृत्त्यधीनशब्दः पुच्छेत्यपि केचित। जिज्ञासाविष्करणं पृच्छेत्यन्ये । जिज्ञासाविषयकज्ञानानुकूलव्यापारः पृच्छेत्यपि वदन्ति। निजिघृक्षाप्रयुक्तभाषायामव्याप्तिं ऋजुः शङकते न चेति। सोमिलादीति। सोमिलशब्दवाच्या आगमप्रसिद्धा बहवः । एको द्वारवत्यां नगर्यां गजसुकुमारमारको ब्राह्मणः। अन्यो वाराणसीवास्तव्यः पार्श्वनाथस्वामिशिष्यो निशीथसूत्रोक्तः, परोऽपापावास्तव्यो ब्राह्मणो यस्य यज्ञे समायाता इन्द्रभूत्यादयः वीरान्तिके प्रव्रजिताः, अपर उज्जयिनीवास्तव्योऽन्धब्राह्मणः । अत्र च वाणियग्रामवास्तव्यो ब्राह्मणो व्याख्याप्रज्ञप्त्युक्तो ग्राह्यः, एगे भवं इत्याद्यन्यथाऽनुपपत्तेरिति । अव्याप्तिरिति। जिज्ञासितार्थकथनाभावादितिगम्यम् । समाधत्ते-छलवाग्भूताया इति । ननु सोमिलभाषाया वाक्छलत्वं कुतः? उच्यते 'एगे भवं? दुवे भवं? अक्खए भवं? अव्वए भवं? अवट्ठिए भवं? अणेगभूयभावभविए भवं?' इत्यादयः पर्यनुयोगाः सोमिलभट्टेन वाणिज्यग्रामवास्तव्येन श्रमणं भगवन्तं महावीरं प्रति कृताः। तस्यायमाशयः एको भवानित्येकत्वाभ्युपगमे भगवताऽऽत्मनः कृते श्रोत्रादिविज्ञानानामवययानां चात्मनोऽनेकतोपलक्षित एकत्वं दूषयिष्यामीति बुद्ध्या पर्यनुयोगः कृतः। द्वौ भवानिति च द्वित्वाभ्युपगमेऽहमित्येकत्वविशिष्टस्यार्थस्य द्वित्वविरोधेन द्वित्वं दूषयिष्यामीत्याशयेन पर्यनुयोगो विहितः। अक्खए भवमित्यादिना च पदत्रयेण नित्यात्मपक्षः पर्यनुयुक्तः । अणेगभूयभावभविए भवमिति अनेके भूताः = अतीताः भावाः = सत्तापरिणामा भव्याश्च = भाविनश्च यस्य स तथा। अनेन चातीतभविष्यत्सत्ताप्रश्नेनानित्यतापक्षः पर्यनुयुक्तः करेगा? क्योंकि वह यहाँ ही प्राप्त बोधि की उपेक्षा कर रहा है। अतः उसकी प्रार्थना याचना परमार्थ से तो मृषा ही है। इस विषय में स्वयं अधिक विचार करने की विवरणकार सूचना देते हैं। ७४ ।। याचनी भाषा का व्याख्यान पूर्ण हुआ। अब क्रमप्राप्त पृच्छनी भाषा, जो कि असत्यामृषा भाषा का चतुर्थ भेद है, बताई जा रही है। गाथार्थ :- जिज्ञासित अर्थ का कथन पृच्छनी है - ऐसा जिनेश्वर भगवंतों ने प्ररूपण किया है। विनीतविनय = विनेयजन के प्रति विधि को बताना यह प्रज्ञापनी भाषा है ऐसा जिनेश्वर भगवंतों ने बताया है।७५ । ___* पृच्छनी भाषा - ४/४ * विवरणार्थ :- जिस अर्थ को जानने की इच्छा होती है उस अर्थ का निवेदन-पर्यनुयोग उस अर्थ के ज्ञाता के पास करना यह पृच्छनी भाषा है - ऐसी श्रीजिनेश्वर भगवंतों ने प्ररूपणा की है। * सोमिल ब्राह्मण की भाषा * शंका :- न च निग्र. इति। यदि जिस अर्थ की जिज्ञासा है उसीका निवेदन करना पृच्छनी भाषा है तब तो वाणियग्राम के निवासी सोमिल ब्राह्मण की भाषा में पृच्छनी भाषा का लक्षण न जाने से अव्याप्ति आयेगी। सोमिल ब्राह्मण का प्रसंग भगवती सूत्र में इस तरह बताया गया है कि जब चरम तीर्थाधिपति श्रमण भगवान् महावीर केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद वाणियग्राम में पधारे तब सोमिल ब्राह्मण भगवान का निग्रह करने के लिए - हराने के लिए 'हे भगवंत! आप एक हैं या दो हैं?' इत्यादि प्रश्न करता १ जिज्ञासितार्थकथनं प्ररूपिता पृच्छनी जिनवरैः । प्रज्ञापनी प्रज्ञप्ता विनीतविनये विधिवादः।।७५।।

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