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* शृङ्गग्राहिकान्यायप्रदर्शनम् *
प्रश्ने 'यत्प्रतिभासते तत्कुरु' इति प्रतिवचने कस्यापि शृङ्गग्राहिकयाऽनिर्द्धारणात् सा अनभिगृहीता भवति ।
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नन्वेकतरानवधारणं प्रतिषेधवचनेऽप्यस्तीत्यतिव्याप्तिरिति चेत् ? न, प्रकृतप्रवृत्त्यप्रतिबन्धकस्यानवधारणस्य विवक्षितत्वात्, एकतरस्येति। इदं चैकतमस्याऽप्युपलक्षणम् एकग्रहे तत्सजातीयग्रहणन्यायात्, तमपः तरप्प्रत्ययसजातीयत्वात् । एवमभिगृहीतायां भावनीयम् । शृङ्गग्राहिकयेति । शृङ्गं गृह्यते यस्यां क्रियायां सा शृङ्गग्राहिका । अनेकधर्मकलिते वस्तुनि प्रातिस्विकधर्मस्य अनेकेषु पदार्थेषु वा प्रतिनियतपदार्थस्य प्रदर्शनेऽयं शृङ्गग्राहिकान्यायः प्रवर्त्तते । एतन्यायं प्रदर्शयता बृहदारण्यकभाष्यवृत्ती आनंदगिरिणोक्तं 'यथा गोमण्डलस्थां गां शृङ्गं गृहीत्वा विशेषतो दर्शयति' "एसा बहुक्षीरे "ति (बृ. उप. भ. वृ. १ - ४ - ४६६) । अनेनैव न्यायेन तत्त्वार्थभाष्ये नयानां निर्भासकत्वं प्रतिपादितम् । प्रकृते तृतीयार्थो जन्यत्वं तस्य चानिर्द्धारणपदार्थनिर्द्धारणाभावप्रतियोगिन्यन्वयः । ततः शृङ्ग्राहिकान्यायजन्यनिर्द्धारणाभावात् 'गम्ययपः कर्माधारे' (सि.हे.२/२/७४) इति सिद्धहेमसूत्रेण तादृशाभावमाश्रित्येत्यर्थः । व्यतिरेकमुखेन न्यायप्रदर्शनमेतत् ।
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'नैव किंचित् करणीयमि'त्यत्रैकतरानवधारणत्वसद्भावेनाऽनभिगृहितत्वं स्यादित्याशयेन मुग्धः शङ्कते नन्विति । समाधत्ते-प्रकृतेति। ततश्च प्रकृतप्रवृत्त्यप्रतिबन्धकैकतरानवधारणवचनत्वमनभिगृहीतत्वमितिफलितम् । प्रकृतत्वं च प्रकरणप्राप्तत्वं प्रतिज्ञाविषयत्वं वेत्यन्यदेतत् । एवञ्च नानिश्चयात्मकज्ञानेऽप्यतिव्याप्तिः । तुल्यफलहेतुत्वप्रतिसन्धानेनेति समानफलहेतुतानुमानेनेत्यर्थः । अयं भावः 'यत्प्रतिभासते तत्कुरु' इति प्रत्युत्तरं श्रुत्वा श्रोतुरेवमनुमानात्मको बोधो जायते एतानि कर्माणि तुल्यफलसाधनानि पर्यनुयुक्ताप्तपुरुषेण अविशेषकर्तव्यतयाऽनुज्ञातत्वात् । यदि फलविशेषसाधनत्वमेतेषु स्यात् तर्हि शृङ्गग्राहिकयाऽऽप्तपुरुषानुज्ञातत्वं स्यात्, न चैतेषु विशेषरूपेणानुज्ञातत्वमपि तु अविशेषरूपेण, प्रत्युत्तर को अनभिगृहीत भाषा कहते हैं। जैसे कि अनेक कार्य करने का अवसर उपस्थित होने पर 'यह कार्य करना या वह कार्य करना ? इस उल्झन से ग्रस्त पुरुष जब अपने मान्य पुरुष को यह प्रश्न करता हैं कि इन कार्यों में से मैं किस कार्य का प्रारंभ करूं? तब यदि मान्य पुरुष ऐसा जवाब दे कि 'तुमको जो ठीक लागे वह करो तब यह प्रतिवचन अनभिगृहीत भाषास्वरूप ज्ञातव्य है, क्योंकि यह प्रत्युत्तर शृङ्गग्राहिकान्याय से अर्थात् विशेषरूप से किसी कार्य का निश्चायक नहीं है। शृङ्गग्राहिका न्याय यह है कि - अनेक गोपाल अपनी अपनी गायों को एक मैदान में चरने के लिए छोड देते हैं। सादृश्य होने के कारण - 'किस गोपाल की कौन कौन धेनु हैं' - इसका निश्चय साधारणतया सभी को नहीं होता है। जिसकी जो गाय होती है वह गोपाल अपनी अपनी गायों के विशेष धर्म को जानता है। इसलिए मैदान से अपने अपने गोष्ठ जाने के समय अपनी अपनी गायों का शृंग पकड कर उस दिशा में ले जाते हैं जिस दिशा में उनका गोष्ठ होता है। शृङ्गं गृह्यते यस्यां क्रियायां सा शृङ्गग्राहिका - इस व्युत्पत्ति
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के
अनुसार जिस क्रिया में शृङ्ग का ग्रहण आवश्यक होता है उस क्रिया को शृङ्गग्राहिका या शृङ्गग्राहिका न्याय कहते हैं। इस न्याय से अनेक कार्यों में से किसी कार्यविशेष का ज्ञान = निश्चय जहाँ हो वहाँ इस न्याय की अन्वयमुखी प्रवृत्ति होती है। प्रस्तुत में श्रोताको कार्यविशेष का निश्चय मान्य पुरुष के जवाब से नहीं होता हैं। अतः यहाँ व्यतिरेक मुख से इस न्याय की प्रवृत्ति होती
है ।
शंका :- नन्वेक. इति। आप यह कहते हैं कि जिस भाषा से विशेषरूप से एक कार्य का निश्चय न हो वह अनभिगृहीत भाषा है तब तो निषेधवचन भी अनभिगृहीत वचनरूप बन जायेगा, क्योंकि किसी एक कार्य का अवधारण उस वचन से नहीं होता है। आशय यह है कि इन कार्यों में से मैं किस कार्य को करूँ ?' इत्यादि प्रश्न का प्रत्युत्तर 'इनमें से एक भी कार्य मत करो' ऐसा मिले तो यह निषेधवचन, जो प्रत्याख्यानी भाषारूप में मान्य है, कहा जाता है जिससे कार्यविशेष में प्रवृत्ति करने का श्रोता को निश्चय नहीं होता है। अतः प्रस्तुत कार्य में से किसी कार्यविशेष करने का निश्चायक न होने से यह वचन भी अनभिगृहीत भाषारूप बन जायेगा। निषेधवचन भी प्रवृत्तिविशेष करने का निश्चायक नहीं ही है ।
* प्रवृत्ति के अप्रतिबन्धक अनवधारण का अनभिगृहीतभाषा में निवेश
समाधान :- न, प्रकृत. इति । वाह ! नाना के आगे ननिजल की बातें! आप जो कहना चाहते हैं वह हमें ठीक तरह से मालुम है। इसलिए अनभिगृहीत भाषा का लक्षण सिर्फ अनवधारणवचन नहीं है किन्तु प्रकृत प्रवृत्ति का अप्रतिबन्धक अनवधारण वचन है