Book Title: Bhasha Rahasya
Author(s): Yashovijay Maharaj, 
Publisher: Divyadarshan Trust

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Page 297
________________ २६६ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.४. गा. ७७ ० अनभिगृहीतायाः फलनिरूपणम् ० अस्याश्च फलं सर्वेषु कर्मसु तुल्यफलहेतुत्वप्रतिसन्धानेन प्रथमोपस्थित एव झटिति प्रवृत्तिर्न त्वधिकेच्छया कर्मान्तरसामग्रीविलम्बेन तद्विलम्ब इति ध्येयम्। आदेशान्तरमाह-अथवा डित्थादिकं = यदृच्छामात्रमूलकं, वचनं अनभिगृहीता। एतन्मते प्रागुक्तं वचनमाज्ञापनीविशेष एवेत्यतस्मात्तुल्यफलसाधनान्येतानि। तेन किमित्याह प्रथमोपस्थित एव झटिति प्रवृत्तिरिति। फलमित्यत्रान्वीयते तुल्यफलसाधनत्वानुमानेनोपस्थितिलाघवात् प्रथमोपस्थित एव झटिति प्रवृत्तिरनभिगृहीतायाः फलमिति। एवकारेणाऽप्रथमोपस्थितकार्यव्यवच्छेदः क्रियते। न हि तुल्यफलसाधनत्वज्ञाने सति कश्चिदुपस्थितिकृतगौरवं सहते। झटितिपदफलमाह-न त्वधिकेच्छयेति न त्वधिकलाभेच्छयेत्यर्थः । तृतीयार्थः प्रयोज्यत्वम् । ततोऽधिकलाभेच्छाप्रयोज्यकर्मान्तरसामग्रीविलम्बप्रयोज्यः तद्विलम्बः = प्रवृत्तिविलम्बो नास्तीत्यर्थः । अयं भाव इच्छाया तत्तत्कर्मसामग्रीघटकत्वेन तत्तत्कर्मसम्पाद्यफलाऽधिकलाभेच्छा जायते तदा तत्तत्कर्मसामग्रीघटकेच्छाविरहप्रयोज्यतत्तत्कर्मसामग्रीविघटनं स्यादेव किन्तु सैव नास्ति प्रसक्तेषु प्रस्तुतेषु कर्मसु तुल्यफलहेतुत्वनिश्चयेन अधिकफलहेतुत्वनिषेधस्याऽऽक्षेपात्, तस्य चाधिकलाभेच्छाप्रतिबन्धकत्वादिति मूलं नास्ति कुतः शाखा? इति न्यायापातः । इदं च यथाश्रुतव्याख्यानं कृतम् । यदि च कर्मान्तरसामग्रीविलम्बेनेत्यस्यानन्तरं वाकारः स्यात्तदा कर्मान्तरपदव्याख्यानं सुष्ठु सङ्गच्छेत् । तदा कर्मान्तरसामग्रीविलम्बनिषेधहेतुश्च प्रथमोपस्थित एव झटिति प्रवृत्तिरिति विभावनीयं सुधीभिः। श्रीमलयगियाद्यभिप्रायमुक्त्वा साम्प्रतं श्रीजिनदासगणिमहत्तराद्यभिप्रायं प्रदर्शयति आदेशान्तरमिति। यदृच्छामात्रमूलकमिति अलौकिकधातुमूलकमिति। वचनमिति। एतन्मते चाप्रसिद्धप्रवृत्तिनिमित्तकपदत्वमनभिगृहीतत्वमिति - ऐसा यहाँ अभिप्रेत है। आपसे प्रदर्शित निषेध वचन तो प्रस्तुत प्रवृत्ति का प्रतिबन्धक है, अप्रतिबन्धक नहीं। अतः तादृश निषेधवचन में अनवधारणवचनत्वरूप विशेष्य अंश की विद्यमानता होने पर भी प्रकृतप्रवृत्तिअप्रतिबन्धकत्वरूप विशेषण अंश की अविद्यमानता है। अतः विशेषणाभावप्रयुक्त विशिष्टाभाव की सिद्धि निराबाध होती है। अतः तादृशनिषेध वचन में अनभिगृहीत भाषा के लक्षण की अतिव्याप्ति नहीं होगी। अब आपकी शंका निर्मूल हो जाती है। * अनभिगृहीत भाषा का फल * अस्याश्च. इति । अनभिगृहीत भाषा से सब कार्य में समान फल की साधनता का अवगम होने से प्रथम उपस्थित कार्य में ही श्रोता की तुरंत प्रवृत्ति होती है। आशय यह है कि - जब मान्य पुरुष यह कहता है कि 'तुमको जो ठीक लगे वह करो' तब श्रोता को यह ज्ञात होता है कि "इन सब कार्यों का फल समान ही है, क्योंकि यदि इन कार्यों के फल में विशेषता होती तब तो अवश्य विशेषअधिक फलवाले कार्य की मान्य पुरुष ने अनुज्ञा दी होती। मगर आप्त पुरुष ने विशेषरूप से कार्य का नाम नहीं लिया है। अतः इन सब कार्यों का फल समान ही है। ये सब कार्य समानफल के साधन है।" ऐसा निश्चय होने से जो कार्य प्रथम उपस्थित होता है उसमें कार्यकर्ता की प्रवृत्ति तुरंत होती है। कार्य की प्रवृत्ति में विलंब नहीं होता है, क्योंकि श्रोता कार्यकर्ता को सब कार्य में तुल्यफल की साधनता का निश्चय होने से अधिक फल की इच्छा नहीं होती है। यदि प्रस्तुत अनेक कार्य में तुल्य फल की हेतुता का निश्चय न हो तब तो श्रोता को अधिक फल की इच्छा हो सकती है, जिससे तत् तत् कार्यसामग्री में विलंब हो सकता है, क्योंकि इच्छा भी कार्यप्रवृत्ति की सामग्री का एक अंश है। मगर प्रस्तुत में उपस्थित सब कार्य में समान फल की हेतुता का निश्चय हो जाने से अधिक फल की इच्छा नहीं रहती है। अतः कार्यसामग्री में विलंब भी नहीं होता है। अतएव प्रथमोपस्थित कार्य की प्रवृत्ति में विलंब भी नहीं होता है अपि तु उसीमें तुरंत ही प्रवृत्ति होती है। 'ध्येयं' शब्द से विवरणकार इस संबंध में शांति से ध्यान देने की सूचना दे रहे हैं। * अनभिगृहीत भाषा में आदेशान्तर का प्रदर्शन * आदेशा. इति । एक मत से अनभिगृहीत भाषा का स्वरूप और दृष्टांत बता कर अन्य मत से अनभिगृहीत भाषा को विवरणकार बताते हैं। अनभिगृहीत भाषा के संबंधी अन्य मत यह है कि डित्थादि वचन, जो कि यदृच्छामात्रमूलक होता है वह अनभिगृहीत भाषा है। इस मत के अनुसार अनभिगृहीत भाषा का लक्षण यदृच्छामात्रमूलकवचनत्व ऐसा प्राप्त होता है। असंभवित अर्थवाले धातु

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