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* वाक्यलक्षणप्रतिपादनम् *
जीवा पण्णत्ता? इत्यादिभाषाणामेव लक्ष्यत्वात् । उक्ता पृच्छनी ४ ।
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अथ प्रज्ञापनीमाह । विनीतः = शिक्षितो विनयो येन एतादृशे शिष्ये, यो विधिवादः = विध्युपदेशः, सा प्रज्ञापनी प्रज्ञप्ता कर्तव्यत्वप्रतिपादकः प्रत्ययः तद्घटितं वाक्यं वा ।
एकतरपरिग्रहे तस्यैव दूषणायेति । तत्र च भगवता स्याद्वादस्य निखिलदोषविनिर्मुक्तत्वात्तमवलम्ब्योत्तरमदायि । विस्तरस्तु व्याख्याप्रज्ञप्तितोऽवसेयः अनुपयोगित्वादिह नोच्यते । अलक्ष्यत्वात् = लक्ष्यतानाक्रान्तत्वात् । न हि लक्ष्यताविनिर्मुक्ते लक्षणाप्रवृत्तिदोषः प्रत्युत गुण एवेति भूषणं न दूषणमिति भावः । अनेन वाक्छलं सामान्यच्छलमुपचारच्छलमिति त्रितयमेतत्पृच्छनीभाषाबहिर्भूतमिति व्यज्यते ।
ननु तर्हि कासां लक्ष्यत्वमित्याशङ्कायामाह - कुत इति । न चैतत्स्वच्छन्दमतिविजृम्भितम्। तदुक्तं चूर्णौ-पुच्छणी जहा कओ आगच्छसि? कत्थ वा गच्छत्ति ? तथा कतिविधा णं भंते! जीवा पण्णत्ता ? एवमादि। (जि.द.वै. चू. पृ. २३९) पृच्छनासामान्यविधिस्तूत्तराध्ययनसूत्रोक्ताभ्यः " आसणगओ न पुच्छिज्जा णेव सिज्जागओ कयाइवि । आम्डुओ संतो पुच्छिज्जा पंजलिउडो ।। (उत्त. १/२२ ) इत्यादिगाथाभ्योऽवसेयः । विशेषविधिस्तु प्रकल्पग्रन्थादितो ज्ञेयः । कर्तव्यत्वप्रतिपादकः प्रत्यय इति । पाणिनिये लिङ्तव्यत्तव्यानीयर्ण्यदादिः सिद्धहेमे च सप्तम्यादिः । तादृशप्रत्ययमात्रोक्तौ च नं प्रवृत्त्यौपयिककर्तव्यताविशेषज्ञानं जायतेऽतः कल्पान्तरं प्रदर्शयति तद्धटितं वाक्यं वेति । लिङ्गादिप्रत्ययघटितं वाक्यमित्यर्थः । समभिव्यवहारो वाक्यमित्येके । एकतिङ्गन्तार्थमुख्यविशेष्यकं वाक्यमित्यपरे । स्वार्थबोधसमाप्तं वाक्यमित्यन्ये । पदसमूहो वाक्यमिति ऋजवः । आकाङ्क्षायोग्यतासन्निधिमत्पदसमुदायो वाक्यमिति परे । शाब्दप्रतीजन्यशाब्दप्रतीतिजनकं पदात्मकं वाक्यमिति केचित् । वाक्यपदीये तु - 'आख्यातशब्दः १ संघातोर जातिः३ सङ्घातवर्तिनी। ४एकोऽनवयवः शब्दः क्रमो५ बुद्ध्यनुसंहतिः६ | पदमाद्यं७ पृथक्सर्व ८ पदं साकाङ्क्षमित्यपि । वाक्यं प्रति मतिर्भिन्ना बहुधा न्यायवादिनाम् । । ' ( वा. प. का. २ / श्लो. १-२ ) इत्यष्टधा वाक्यस्वरूपं मतभेदेन विस्तरतः प्रतिपादितं ततोऽवसेयम् ।
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है। ये प्रश्न जिज्ञासा से नहीं किये गये थे मगर भगवंत के पराजय के उद्देश से किये गये थे कि 'यदि भगवंत द्रव्यार्थिक नय का आश्रय ले कर 'मैं एक हूँ' ऐसा प्रत्युत्तर देंगे तब में पर्यायार्थिक नय का आश्रय ले कर अनेकत्व की सिद्धि करूँगा' इत्यादि । श्रीमहावीरस्वामी ने तो स्याद्वाद का आश्रय ले कर अत्यंत निर्दोष उत्तर दिया, वह बात अलग है मगर हमारा आशय तो यह है कि सोमिल ब्राह्मण ने जो प्रश्न किये वे जिज्ञासा प्रयुक्त न होने से उनमें पृच्छनी भाषा के लक्षण की प्रवृत्ति न होने से पृच्छनी भाषा का लक्षण अव्याप्तिदोषग्रस्त बनेगा ।
समाधान :- छल. इति। आप हमारे कथन के तात्पर्य को ही नहीं जानते हैं। अतः ऐसी शंका कर रहे हैं। सोमिल ने जो प्रश्न किये थे वे तो वाक्छलरूप थे, जो पृच्छनी भाषा के लक्ष्य ही नहीं हैं। जो अपना लक्ष्य नहीं है, उसमें लक्षण की अप्रवृत्ति तो गुणस्वरूप है, दोषरूप नहीं। अतः पृच्छनी भाषा का लक्षण नितांत निर्दोष है।
* प्रज्ञापनी भाषा ५/४ *
अथ प्रज्ञा. इति । प्रकरणकार गाथा के पश्चार्द्ध से प्रज्ञापनी भाषा का, जो असत्यामृषा का पाँचवाँ भेद है, निरूपण कर रहे हैं। जिसने विनय का अभ्यास किया है अर्थात् जो विनयी है ऐसे शिष्य को विधिउपदेश देना यह प्रज्ञापनी भाषा है - ऐसा जिनेश्वर भगवंतों ने बताया है। विधि का अर्थ है कर्तव्यताप्रतिपादक प्रत्यय, जिसके लिए सिद्धहेमव्याकरण में सप्तमी संज्ञा रखी गई है और पाणिनीयव्याकरण में इसके लिए लिङ् संज्ञा रखी गई है। यह प्रत्यय यहाँ विधिशब्द से अभिप्रेत है या तो उस प्रत्यय से घटित वाक्य को भी विधि कहते हैं। अतः यह फलित हुआ कि विनयवंत शिष्य को कर्तव्यताप्रतिपादक उपदेश देना यह प्रज्ञापनी भाषा है। विधि का अर्थ कृतिसाध्यत्व आदि ही है, अपूर्व आदि नहीं। अर्थात् विध्युपदेश को सुन कर श्रोता को 'यह कार्य मत्कृतिसाध्य है यानी मेरे प्रयत्न से सिद्ध हो सकता है' यह बोधहोता है मगर जिसको मीमांसक अपूर्व कहते हैं, नैयायिक अदृष्ट कहते हैं और