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* निष्क्रियप्रार्थनायां निश्चयतो मृषात्वम् *
२५३ प्रार्थितोपायप्राप्तावपि तदकरणे च प्रार्थना परमार्थतो मृषैव । तदुक्तम् 'लद्धिल्लियं च बोहिं अकरितोऽणागयं च पत्थेतो। अण्णं दाइं बोहिं, लब्भिसि कयरेण मुल्लेण ।। (आ.नि. ११००)त्ति। एवं स्वधियाऽभ्यूह्यम् ३।७४ ।। ___उक्ता याचनी ३। अथ पृच्छनीमाह गौणमित्यत्र बलवत्प्रमाणाभावेन शक्यते इदमपि वक्तुं यदुत प्रार्थितोपायस्य दातरि मुख्यं दातृत्वमन्यत्र तु गौणमिति । ततश्च विनिगमकाभावेनोभयत्र मुख्यं दातृत्वमभ्युपेयं अन्यत्र पक्षपातात्। एतेन तीर्थकरा न दातारः रागद्यभावादित्यादयः प्रयोगाः प्रत्युक्ताः कालात्ययापदिष्टदोषोद्भवद्विकटकोपाटोपोत्कटकटुकण्टकडङ्कितत्वात्। एतेन प्रार्थिताप्राप्तेर्विसंवादित्वात्कथमसत्यामृषेति निरस्तम् परमभक्तिप्रयुक्ततादृशयाचन्या विसंवादित्वाभावात्। तदुक्तम्भत्तीइ जिणवराणं परमाए खीणपिज्जदोसाणं। आरूग्गबोहिलाभं समाहिमरणं च पावंति।। (आ.नि. १०९८) वस्तुतः सानुबन्धारोग्यादिप्राप्तिनिमित्तत्वेनारोग्याधुपायदातृत्वमेव मुख्यं दातृत्वमिति तु ध्येयम्। __ ननु जिनभक्तिमात्रादेवाऽऽरोग्यबोधिलाभादि भविष्यत्येव ततः किमनेन वर्तमानकालदुष्करेण रत्नत्रयकष्टानष्ठानेन? इत्याशङकायां सत्यां निश्चयनयं पुरस्कृत्य प्राह प्रार्थितोपायप्राप्तावपीति। प्रार्थितारोग्याधुपायभूतरत्नत्रयोपदेशप्राप्तावपि, तदकरणे = प्रार्थितसाधकतयोपदिष्टोपायेऽप्रवर्त्तने, परमार्थतः = परमार्थमाश्रित्य, मृषैव, न सत्येत्येवकारार्थः। एतेन तीर्थंकरविषयिणी याचनी भाषा मृषा स्वाविषये प्रवर्त्तनादिति प्रत्युक्तम् हेतोः स्वरूपासिद्धत्वात्, स्वाविषयविषयकत्वप्रयुक्तं न नैश्यिकमृषात्वमपि तु याचनीभाषाघटकीभूतस्वोद्देश्यकदानेच्छारूपयाचनाया अलीकत्वप्रयुक्तमिति गूढार्थः ।
नियुक्तिवचनसंवादं दर्शयति 'लद्धिल्लियमिति' । अस्या हारिभद्रव्याख्यालेशः प्रदर्श्यते-' लब्धां च बोधिमकुर्वन्ननागतां च प्रार्थयन् अन्नंदाइंति निपातोऽसूयायाम् । अन्ये तु व्याचक्षते - अन्यामिदानीं बोधिं लप्स्यसि किं? कतरेण मूल्येन? इयमत्र भावना- बोधिलाभे सति तपःसंयमानुष्ठानपरस्य प्रेत्य वासनावशात्तत्तत्प्रवृत्तिरेव बोधिलाभोऽभिधीयते । तदनुष्ठानरहितस्य पुनर्वासनाऽभावात्तत्त्कथं तत्प्रवृत्तिः? इति बोधिलाभानुपपत्तिरित्यादिसूचनार्थमभ्यूह्यमित्युक्तम् । __इदं तु ध्येयम्-व्यवहारनयमतेन याचनी भाषाऽसत्यामृषैव न तु मृषा अन्यथा प्रतिमाप्रतिपन्नश्रमणादीनामियमनुज्ञाता न स्यात् । अनुज्ञाता चेयं तेषां, तदुक्तं स्थानाङ्गे पडिमापडिवन्नस्स णं अणगारस्स कप्पंति चत्तारि भासातो भासित्तए । तं जहा-जायणी. पृच्छणी अणन्नवणी पट्ठस्स वागरणी। (स्था. ४/१/२३७) इति। ततश्चास्या असत्यामृषात्वमेव व्यवहारनयाभिप्रायेण चतुर्विधभाषाविभागस्य प्रक्रान्तत्वादिति । ७४।।
. * तीर्थंकर भगवंत में पारमार्थिक दातृत्व है * समाधान :- दातृत्वान्तर. इति । आपने जो यह बात बताई कि मुख्य दातार तो वही है कि जो जिस चीज की प्रार्थना की गई है उसीका प्रदान करे - वह नियुक्तिक होने से प्रमाण नहीं है। जिस बात में कुछ युक्ति न हो उसका स्वीकार कैसे किया जा सकता है? यदि युक्तिशून्य बात का भी स्वीकार हो तब तो हम यह भी कह सकते हैं कि 'मुख्य दातार वही है जो जिस चीज की प्रार्थना की गई है उसकी प्राप्ति के सच्चे उपाय का उपदेशप्रदान करें।' तब तो तीर्थंकर भगवान से अन्य दातार में गौण दातृत्व की सिद्धि और तीर्थंकर भगवंत में मुख्य दातृत्व की सिद्धि हो जायेगी। अतः यही मानना होगा कि प्रार्थित चीज के दाता की तरह प्रार्थित चीज के उपाय के उपदेशदाता में भी मुख्य दातृत्व ही है। अतः तीर्थंकर भगवंत भी मुख्य दानवीर है - यह सिद्ध हो जाता है। इष्टदाता की अपेक्षा इष्टोपायदाता सानुबन्ध इष्टप्राप्ति में निमित्त होता है।
प्रार्थितो. इति। इसके अतिरिक्त यह भी द्रष्टव्य है कि आरोग्य, बोधिलाभ आदि की प्रार्थना करने पर भी जो उसके उपायभूत मोक्षमार्ग में, जो कि तीर्थंकर भगवंत से बताया गया है - स्थापित किया गया है, प्रवृत्त नहीं होता है उसकी प्रार्थना ही झूठी है, सच्ची नहीं। इसीलिए तो श्रीभद्रबाहुस्वामीजी ने ही आवश्यकनियुक्ति में कहा है कि बोधि को प्राप्त करने पर भी जो उसका पालन नहीं करता है और दूसरे भव में बोधि-जिनधर्मप्राप्ति या दीक्षा की प्रार्थना करता है वह किस मूल्य से दूसरी बार बोधि को प्राप्त