Book Title: Bhasha Rahasya
Author(s): Yashovijay Maharaj, 
Publisher: Divyadarshan Trust

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Page 283
________________ २५२ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त. ० प्रार्थित-तदुपायाऽन्यतरदातुर्मुख्यदातृत्वम् ० (आ.नि. १०९५) परमार्थतो दातृत्वमपि तेष्वस्त्येव । अत एवोक्तम् - "जं तेहिं दायव्वं तं दिन्नं जिणवरेहिं सव्वेहिं। दंसणनाणचरित्तस्स, मोक्खमग्गस्स उवएसोत्ति ।। (आ.नि. १०९६)। न चेदं दातृत्वं गौणम् दातत्वान्तरस्य तथात्वे विनिगमकाभावात् । इत्यादि । व्याख्यालेशः प्रदर्श्यते । एषा = प्रक्रमाद् याचनी, भाषा असत्यामृषा। कुतः? इत्याह नवरं = केवलं भक्त्या भाषिता । प्रयोगस्त्वेवम् एषा भाषाऽसत्यामृषा भक्तिमात्रप्रयुक्तत्वात्। नवरंपदसार्थकतां प्रदर्शयति नहु=नैव क्षीणप्रेमद्वेषा = ददति समाधिं च बोधिं चेति। ततश्च दातृत्वाभावेऽपि भक्तिमात्रप्रयुक्तत्वादसत्यामृषात्वं सिध्यतीति भावार्थः । ___ वस्तुगतिमनुरुध्याह परमार्थत इति। दातृत्वमपीति। किं पुनः याचनीविषयत्वमित्यपिशब्दार्थः। अत एवेति । तीर्थकराणां दातृत्वादेवेति। नियुक्तिवचनं प्रदर्शयति जमिति | व्याख्यालेशः प्रदर्श्यते। यत्तैः तीर्थकरैः दातव्यं तद्दत्त जिनवरैः सर्वैः ऋषभादिभिः दर्शनशानचारित्रस्य, मोक्षमार्गस्योपदेशः । आदर्शान्तरेऽत्यपादः 'एस तिविहस्स उवएसो' इति एवं वर्तते। तत्र च 'एषः = आरोग्यादिप्रसाधकः त्रिविधस्योपदेश' इत्यर्थः कार्यः। ततश्च प्रार्थितोपायोपदेशदातृत्वसिद्धिरित्यर्थः। प्रार्थितवस्तुदातृत्वमेव मुख्यं प्रार्थितवस्तूपायदातृत्वं तु भाक्तमिति शङ्कां निरसितुमुपक्रमते न चेति । इदं = प्रार्थितोपायविषयकं । समाधत्ते- दातृत्वान्तरस्य प्रार्थितदातुः, तथात्वे = मुख्यदातृत्वे, विनिगमकाभावात् = एकतरपक्षपातियुक्तिविरहात् । अयं भावः प्रार्थितोपायस्य दातरि गौणं दातृत्वं न तु मुख्यं, प्रार्थितस्य दातरि मुख्यं दातृत्वं न सत्यभाषास्वरूप ही है। तीर्थंकर भगवंतो को प्रार्थना करने में विप्रलिप्सा का कहाँ अवकाश है? अतः निश्चयनय के अभिप्राय से यह प्रार्थनावचन सत्यत्वरूप गुण से अलंकृत होने से निर्दोष ही है, सदोष नहीं। ___अत एव इति। लोगस्स सूत्र का प्रार्थनावचन भक्तिप्रयुक्त होने से निर्दोष ही है। इसीलिए तो आवश्यकनियुक्ति में श्रीभद्रबाहुस्वामीजी ने भी यही कहा है कि 'यह भाषा (आरुग्गबोहिलाभं इत्यादि लोगस्स सूत्र की प्रार्थनापरक भाषा) असत्यामृषा है, क्योंकि यह भाषा केवल वीतराग भगवंतों के प्रति भक्ति से कही जाती है'। भक्तिमात्र से कही जाती है इसका आशय यह है कि तीर्थंकर भगवंतों के राग-द्वेष आदि दोष क्षीण हो जाने से वे किसीको कुछ भी नहीं देते हैं तब समाधि और बोधि तो कैसे देंगे? अर्थात् वे समाधि और बोधि (जिनधर्मप्राप्ति) नहीं देते हैं। सिर्फ भक्तिप्रयुक्त होने से यह असत्यामृषा भाषा है। * परमार्थतः तीर्थंकर में दातृत्व है * परमार्थतो. इति । यहाँ जो अभी कहा गया वह भी अभ्युपगमवाद से कहा गया है। वास्तव में तो तीर्थंकर परमात्मा में दातृत्व है ही। यह तो चतुर्दशपूर्वधर चरमश्रुतकेवली भद्रबाहुस्वामीजी को भी अभिमत है। तीर्थंकर भगवंतों में पारमार्थिक दातृत्व होने से ही आवश्यक नियुक्ति में ही अगली गाथा में कहा गया है कि 'तीर्थंकर भगवंतों जो कुछ देनेवाले थे वह सब तो जिनेश्वर भगवंतों ने दे दिया ही है, क्योंकि सम्यग् दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्षमार्ग का उपदेश, जो आरोग्य, बोधिलाभ आदि का साधक है, सब तीर्थंकर भगवंतों ने दिया ही है' । अतः-'तीर्थंकर भगवान् कुछ भी नहीं देते है। इसलिए वे प्रार्थना के विषय नहीं हैं। अतएव उनसे की जानेवाली प्रार्थना याचना असत्यामृषा नहीं है, किन्तु मृषा ही है' - ऐसी जो पूर्व में शंका की गई थी वह निराधार सिद्ध हो जाती है, क्योंकि अपने अभिमत आरोग्य-बोधिलाभ आदि के उपायभूत दर्शन-ज्ञान-चारित्र का उपदेश तो तीर्थंकर भगवंतों ने दिया ही है। शंका :- न चेदं. इति । आपकी यह बात ठीक नहीं है, क्योंकि प्रार्थना करनेवाला आरोग्य बोधिलाभ आदि की प्रार्थना करता है और भगवान् आरोग्य-बोधिलाभ आदि नहीं देते हैं मगर उनके उपाय का उपदेश देते हैं। अतः यह दातृत्व मुख्य नहीं है किन्तु गौण है। मुख्य दातार तो वही है कि जो जिस चीज की प्रार्थना की गई है उसीका प्रदान करे। अतः तीर्थंकर भगवंत में वास्तविक दातृत्व नहीं है। अतः पूर्व में जो कहा गया था कि 'रागादि का अभाव होने से तीर्थंकर भगवंत कुछ नहीं देते हैं। अतः वे प्रार्थना के विषय नहीं है' इत्यादि। वह ठीक ही है। ३ यत्तैर्दातव्यं तद्दत्तं जिनवरैः सर्वैः। दर्शनज्ञानचारित्रस्य मोक्षमार्गस्योपदेशः।।

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