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२५८ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.४. गा.७५
___० अर्थवादानां प्रवृत्त्यादिसाधनत्वसिद्धिा साधनताज्ञानजनकतया वाक्यान्तरस्य च विध्युन्नायकतया। जिनकल्पादौ वा शैक्षस्य प्रवृत्तिः तदानीं कृतिसाध्यत्वाभावात्। एतेन तदुपकरणशून्यस्येष्टसाधनताज्ञानात्प्रवृत्तिप्रसङ्गो निरस्तः, स्वेष्टसाधनत्वविरहेण तदानीं कृत्यसाध्यत्वात् । न वा तृप्तस्य भोजने प्रवृत्तिः तदानीमिष्टसाधनत्वाभावादिति। विधिवाक्यं चाधिकारिणं प्रत्येवं प्रवर्तकं न त्वनधिकारिणं प्रति एतेन सूरिमंत्रादिविध्युपदेशस्यानधिकारिप्रवर्तकत्वमपास्तम्, तं प्रति बलवदनिष्टाननुबन्धित्वविरहात्। एवमिति । प्रवृत्तिजनकेच्छाप्रयोजकभाषात्वमित्युक्ते आज्ञापन्यामतिव्याप्तिः स्यात् तस्यास्तथात्वादित्यत भयाप्रयोज्येति प्रवृत्तिविशेषणम्, आज्ञापन्या भयप्रयोज्यप्रवृत्तिजनकेच्छाप्रयोजकभाषात्वादिति विशेषणाभावप्रयुक्तविशिष्टाभावसिद्धिः।
नन्वेवं निषेधकप्रज्ञापन्यामव्याप्तिः स्यात् तस्या निवृत्तिजनकेच्छाप्रयोजकभाषारूपत्वात्। न च प्रवृत्तिपदस्य निवृत्त्युपलक्षणत्वान्न दोष इति वाच्यम्, तथापि 'हिंसया नरकं गच्छेदि'त्यादितो भयप्रयोज्यनिवृत्तेरेव जायमानत्वेनाऽव्याप्तेस्तादवस्थ्यादिति चेत्? उच्यते, भयपदस्याऽत्र प्रज्ञापकसकाशादागामिप्रत्यवायनिमित्तकभयार्थपरत्वान्न दोषः प्रज्ञापकस्य प्रत्यवायजननेऽनधिकारात् तादृशेच्छाजनकं चेष्टसाधनताज्ञानं तज्जनकं च विधिवाक्यमित्यतः कारणं विहाय प्रयोजकमित्युक्तम्। प्रयोजकत्वं चात्र परम्परया कारणत्वरूपं न तु प्रेरणानुकूलव्यापाराश्रयत्वरूपं, बाधात्। तदेवाह तादृशेच्छाप्रयोजकत्वं = भयाऽप्रयोज्यप्रवृत्तिजनकेच्छाप्रयोजकत्वम्। तादृशपरम्परकारणत्वमेव प्रदर्शयति तज्जनकेष्टसाधनताज्ञानजनकतयेति भयाप्रयोज्यप्रवृत्तिजनकेच्छाजनकेष्टसाधनताज्ञानजनकतयेति।
इष्टसाधनतेत्युपलक्षणं कृतिसाध्यत्वादेः विध्यर्थस्य यद्वा विशेषणमेव, कृतिसाध्यत्वज्ञाने सत्यपीष्टसाधनत्वज्ञानाभावेन विषभक्षणादिजनकेच्छोत्पादाभावात् तदज्ञानेऽपि स्वर्णपर्वताद्यानयनेच्छाया इष्टसाधनत्वज्ञानेन जायमानत्वात् । प्रक्रिया चैवम-प्रथमं विधिवाक्यश्रवणादिष्टसाधनत्वादिज्ञानं इदं मदीयमिष्टसाधनमित्याद्याकारकं जायते तत इष्टसाधनताज्ञानेन चिकीर्षा जन्यते ततः कृतिः ततः भयाप्रयोज्या प्रवृत्तिर्जायत इति। एवं विधेर्भयाप्रयोज्यप्रवृत्तिजनकेच्छाजनकेष्टसाधनताज्ञानजनकत्वेन तादृशेच्छाप्रयोजकत्वनिर्वाह इति भावः ।
नन्वेवं सत्यर्थवादोपदेशे प्रज्ञापनीलक्षणं कथं सङ्गमनीयम्? इत्याशङ्कयामाह वाक्यान्तरस्येति अर्थवादस्येत्यर्थः । प्राशस्त्यनिन्दान्यतरपरं वाक्यमर्थवादः। केचित्तु विध्यनधीनप्रवृत्त्युत्तम्भकवचनमर्थवाद इत्याचक्षते। विध्यसमउससे सेवक की प्रवृत्ति होती है वह भयप्रेरित होती है, क्योंकि आज्ञा का पालन न करने पर बडे अनिष्ट की प्राप्ति होने का उसे ख्याल रहता है। जब कि प्रज्ञापनी भाषा में ऐसा नहीं है। 'जिनं पूजयेत्' अर्थात् 'जिनेश्वर भगवंत की पूजा करनी चाहिए' इस विधि वाक्य से श्रोता को जिनपूजा में प्रयत्नसाध्यता और इष्ट साधनता का ज्ञान होने से वह जिनपूजा में स्वेच्छा से प्रवृत्ति करता है न कि 'मैं जिनपूजा न करूंगा तो भारी अनिष्ट की मुझे प्राप्ति होगी' इत्यादि भय से। अतः प्रज्ञापनी भाषा के लक्षण में भयाप्रयोज्य ऐसा प्रवृत्ति का विशेषण लगाया गया है। विधिप्रत्ययघटित वाक्य भयाप्रयोज्य प्रवृत्ति की जनक इच्छा को साक्षात् उत्पन्न नहीं करता है मगर उसमें इष्टसाधनता का ज्ञान करा कर इच्छा को उत्पन्न करता है। आशय यह है कि 'जिन पूजयेत्' इत्यादि विधिउपदेश से श्रोता को यह ज्ञान होता है कि 'जिनपूजा मेरे इष्ट सुखादि का साधन है'। इस इष्टसाधनता के ज्ञान से श्रोता को जिनपूजा की इच्छा होती है जो जिनपूजारूप प्रवृत्ति की जनक होती है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि विध्युपदेश तादृश इच्छा को साक्षात् उत्पन्न नहीं करता है मगर इष्टसाधनता के ज्ञान को उत्पन्न करने के द्वारा तादृश इच्छा को उत्पन्न करता है। अतएव प्रज्ञापनी भाषा का लक्षण तादृशेच्छाजनकभाषात्वं न कह कर तादृशेच्छाप्रयोजकभाषात्वं इस रूप से बताया गया है। साक्षात् या परंपरा से जो कारण हो उसे प्रयोजक कहा जाता है। यहाँ परंपरा से कारणरूप अर्थ में प्रयोजकशब्द अभिप्रेत है।
* अर्थवाद भी प्रज्ञापनी भाषा है * वाक्यान्तरस्य. इति। यहाँ यह शंका हो सकती है कि 'विधिवाक्य में तो इष्टसाधनता ज्ञान को उत्पन्न करने के द्वारा तादृशेच्छाप्रयोजकत्वरूप की उपपत्ति हो सकती है मगर वाक्यान्तर में, जो विधिवाक्यरूप नहीं है किन्तु अर्थवादरूप है, तादृश - इच्छाप्रयोजकत्व की उपपत्ति कैसे हो सकेगी?' - इसका समाधान यह है कि अर्थवाद भी विधिअनुमापक होने के रूप में तादृशेच्छा