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* प्रवर्तकज्ञानस्वरूपमीमांसा *
२५७ यथा प्राणिवधान्निवृत्ता जीवा दीर्घायुषो भवन्तीति। इदमुपलक्षणं हिंसादिप्रवृत्तौ जीवो दुःखितो भवतीत्यादिनिषेघोपदेशस्यापि । उक्तं च 'पाणिवहाउ णियत्ता हवंति दीहाउआ अरोगा य। एमाई पन्नत्ता पण्णवणी वीयराएहिं।। ( ) त्ति। एवं च भयाप्रयोज्यप्रवृत्तिजनकेच्छाप्रयोजकभाषात्वम्' एतल्लक्षणम् । आज्ञापनीवारणाय भयाऽप्रयोज्येति। तादृशेच्छाप्रयोजकत्वं च विधेस्तज्जनकेष्टज्ञानात्प्रवृत्तिर्जायत एवेति व्यतिरेकव्यभिचारः। ततोऽपूर्वादिः न विध्यर्थः। किञ्च अपूर्वादिपदादपि प्रवृत्त्यापत्तिबुभुक्षितराक्षसी कथं पराकतु शक्येत मीमांसकमुख्यैः? आदिपदेन सङ्कल्पादिग्रहणम्। मानाभावेन सङ्कल्पज्ञानमपि न विध्यर्थः, इच्छात्मकस्य तस्य स्वरूपसतो हेतुत्वेन तदभावे तज्ज्ञानादप्रवृत्तेरिति सक्षेपः । मत्कृतवादरहस्यादिति। नेदानीमयं ग्रन्थ उपलभ्यतेऽस्माकं दौर्भाग्येन।
भवन्तीति। यद्यपीदमर्थवादवाक्यं न तु विधिवाक्यं तथापि तस्य विध्युन्नायकतया न तत्प्रदर्शने कश्चिद्दोषः। यथा चैततत्त्वं तथानुपदमेव स्फुटीभविष्यति। हिंसादिप्रवृत्तौ जीवो दुःखितो भवतीति। इदमपि न विधिवाक्यं किन्तु अनिष्टार्थबोधनद्वारा निषेधवाक्यैकवाक्यतया निवर्त्तकवाक्यरूपो निन्दार्थवादः।
ननु हिंसां न कुर्यादित्यत्र विध्यर्थनिषेधानुपपत्तिः हिंसाया आजीविकादिरूपेष्टसाधनत्वात् न च नायं विधिः हिंसाया रागप्राप्तत्वात्; एकत्र विधिनिषेधानुपपत्तेश्चेति वाच्यम् निषेधकोट्युपस्थापको विधिप्रतिरूपकोऽयं कुर्यादिति शब्द इति तात्पर्यात्। न च तथाप्यसुराऽविद्यादिवत् पर्युदासलक्षणया विरोध्यनिष्टसाधनतत्व-बोधनत्वोपपत्तेरिति वक्तव्यम्, नञोऽसमस्तत्वात् क्रियासङ्गतत्वेन प्रतिषेधवाचकत्वव्युत्पत्तेश्चेति चेत्? मैवम्, विशेष्यवति विशिष्टनिषेधस्य 'सविशेषणौ हि विधिनिषेधौ विशेषणमुपसङ्क्रामतः सति विशेष्यबाध' इति न्यायेन विशेषणनिषेधपर्यवसायितया 'हिंसा बलवदनिष्टसाधनमि'ति 'हिंसा न कुर्यादि'त्यनेन बोधनात् यद्वा हिंसायामिष्टसाधनत्वकृतिसाध्यत्वसत्त्वेऽपि बलवदनिष्टाननुबन्धित्वाभावात् 'हिंसां न कुर्यादि'ति विध्यर्थनिषेधोपपत्तेः विध्यर्थ-पर्याप्तिविरहात् पर्याप्तिसम्बन्धेन विध्यर्थविरहाद्वेति विभावनीयम।
इदं तु ध्येयम इदानीं कृतिसाध्यतादि'ज्ञानमेव प्रवर्तकम् न तु 'कृतिसाध्यतादि'ज्ञानम्। तेन न भावियौवराज्ये बालस्य यथा. इति। प्रज्ञापनी भाषा का उदाहरण बताते हुए विवरणकार कहते हैं कि प्राणीवध से निवृत्त जीव दीर्घायुष्यवाले होते हैं। यह प्रज्ञापनी भाषा है। इस वाक्य से अहिंसा में कर्तव्यता का ज्ञान होता है। इस वाक्य से 'अहिंसा मेरे प्रयत्न से साध्य है और मेरे इष्ट का साधन है' इत्यादि बोध होता है। दशवैकालिक चूर्णि आदि में जो यह उदाहरण बताया गया है वह निषेधोपदेश का भी ज्ञापक है। अर्थात् जैसे विधिउपदेश प्रज्ञापनी भाषा है ठीक वैसे ही निषेधोपदेश भी प्रज्ञापनी भाषा है। निषेध उपदेश के उदाहरण को स्वयं विवरणकार बताते हैं कि 'हिंसा में प्रवृत्त जीव दुःखी होता है। इस निषेधोपदेश से श्रोता को हिंसा में अकर्तव्यता की बुद्धि होती है। हिंसा की निवृत्ति का उपदेश मीलता है, जो हिंसानिवृत्ति प्रयत्नसाध्य है और इष्ट का साधन है। अन्यत्र भी कहा गया है कि 'प्राणीवध से निवृत्त जीव दीर्घजीवी और नीरोगी होते हैं' इत्यादि। यह भाषा प्रज्ञापनी हे - ऐसा वीतराग भगवंतो ने बताया है।
* प्रज्ञापनी भाषा का लक्षण * एवं च. इति । उपर्युक्त चर्चा से प्रज्ञापनी भाषा का लक्षण यह फलित होता है कि भयाप्रयोज्य ऐसी प्रवृत्ति की जनक जो इच्छा, उसकी प्रयोजक भाषा प्रज्ञापनी भाषा है। अर्थात् जो प्रवृत्ति भयप्रेरित नहीं होती है उस प्रवृत्ति के कारणभूत अभिलाष को प्रज्ञापनी भाषा परंपरा से उत्पन्न करती है। प्रवृत्ति का कारण अभिलाष है। यदि इच्छा न हो तब प्रवृत्ति नहीं होती हैं। अतः जीवदया आदि प्रवृत्ति को उत्पन्न करने के लिए जीवदया पालन की इच्छा होनी आवश्यक है। उस इच्छा की संपादक प्रज्ञापनी भाषा है। यहाँ प्रवृत्ति का विशेषण जो दिया गया है कि 'भयाऽप्रयोज्य' वह आज्ञापनी भाषा में प्रज्ञापनी भाषा के लक्षण की प्रवृत्ति न हो उस उद्देश से दिया गया है, क्योंकि आज्ञापनी भाषा से भी प्रवृत्ति होती है। अतः प्रवृत्तिजनक इच्छा की संपादक आज्ञापनी भाषा भी है। प्रज्ञापनी और आज्ञापनी भाषा में इतना साम्य होते हुए भी विषमता यह है कि आज्ञापनी भाषा से जो प्रवृत्ति होती है वह भयप्रेरित है और प्रज्ञापनी भाषा से जो प्रवृत्ति होती है वह भयप्रेरित नहीं होती है। आशय यह है कि राजा अपने सेवक को आज्ञा देता है,