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२६२ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.४. गा. ७६
० उपायेच्छासङ्ग्रहः ० यत्राऽपि शोभनमेतदित्येवोच्यते तत्रापि वक्त्रिच्छाविषयत्वमर्थात् प्रतीयत एव।
अथ यत्र जातदीक्षेच्छस्यापि पित्राद्यनुमत्यर्थं गुरुं प्रति प्रश्नस्तत्र 'यथासुखं मा प्रतिबन्धं कुर्याः' इत्युत्तरं तत्र कथमिच्छानुलोमत्वम् इच्छाया उत्पन्नत्वेन पुनरनुत्पदनादिति? मैवम्, तत्रोपेयेच्छाया उत्पन्नत्वेऽप्यनुमतिरूपोपाये कालविलम्बरूपानिष्टसाध
ननु यत्र वक्त्रा शोभनमेतदित्येवोक्तं न तु 'ममाऽप्यभिप्रेतमेतदिति तत्र कथमिच्छानुलोमत्वनिर्वाहः स्वेच्छाविषयत्वाप्रतिपादनादित्याशङ्कायामाह यत्रापीति । अर्थात् = अर्थमवलम्ब्य तात्पर्यवृत्त्या । अयं भावः कण्ठतः स्वेच्छाविषयत्वाकथनेऽपि शोभनमेतदिति श्रवणेन श्रोतुराप्ताभिप्रायविषयत्वं तात्पर्यमहिम्ना प्रतीयते एव। विवरणे क्रियासङ्गतैवकारोऽत्यन्तायोगव्यवच्छेदार्थः। उन्नीताप्ताभिप्रायविषयत्वेन स्वेष्टसाधनत्वनिश्चयात्ताजक् स्वेच्छा प्रादुर्भवतीतीच्छानुलोमत्वमव्याहतमिति । जातदीक्षेच्छस्येति । जमाल्यादेरिति शेषः । पुनरनुत्पादनादिति। न हि उत्पन्नं घटमुत्पादनाय कश्चिद् यतते न वा तथायने घटः पुनरुत्पद्यते। एवं विनष्टप्रागभावाया दीक्षेच्छाया भविष्यदुत्पत्तिप्रतियोगिकत्वाभावेन कथं तत्सहकारिकारणत्वरूपमिच्छानुलोमत्वं स्यात्? न च जातदिक्षेच्छायाः स्थितिसम्पादनार्थमुपयुक्तत्वादिच्छानुलोमत्वमिति वक्तव्यम्, उत्पन्नस्य सहकारिकारणानधीनस्थितिकत्वात्, न हि दण्डविनाशे जातो घटो विनश्यतीति अथाशयः। समाधत्ते मैवमिति। उपेयेच्छायाः = दीक्षारूपोपेयेच्छायाः। उत्पन्नत्वे = गुरुप्रदर्शितसंसारासारतोपदेशादिना जातत्वे, अपीति अभ्युपगमपूव विशेषद्योतनार्थः। अनुमतिरूपोपाये = स्वीयदीक्षाविषयक-पित्राद्यनुमतिरूपोपाये। कालविलम्बेति। दीक्षाविषयककालक्षेपरूपमेत्यर्थः। इदं चोपलक्षणं का साधन है क्योंकि यह मेरे कर्तव्य से आप्तपुरुष को अभीष्ट है। जो आप्तपुरुष को मेरे कर्तव्यरूप से अनुज्ञात होता है वह मेरे इष्ट का साधन होता है। जो जिस फल का साधन नहीं होता वह उस फल को चाहनेवाले पुरुष के कर्तव्यरूप में आप्तपुरुष से अनुज्ञात नहीं होता है जैसे कि द्युतक्रीडा। इस तरह आप्तपुरुष के कथन से अनुज्ञात श्रोता को स्वेष्टसाधनत्व का निश्चय होने से स्वेष्टसाधनत्व की शंका दूर हो जाती है, क्योंकि निश्चय शंका का विरोधी होता है - प्रतिबन्धक होता है- विघटक होता है। स्वेष्टसाधनत्व के निश्चय से तविषयक प्रवृत्तिजनक इच्छा का तुरंत ही प्रादुर्भाव होता है। अतः यह भाषा इच्छा का सहकारी कारण होने से इच्छानुलोम भाषा कही जाती है।
* अर्थतः आप्ताभिप्राय का ज्ञान मुमकिन * यत्रापि. इति । जहाँ पृच्छा करने पर आप्तपुरुष शब्दतः अपनी इच्छा को बताते नहीं हैं कि 'मुझे यह इष्ट है' मगर सिर्फ इतना ही बताते हैं कि 'यह अच्छा है' तो यह भाषा भी इच्छानुलोम भाषा ही है, क्योंकि इस वाक्य से भी आप्तपुरुष की इच्छा का अर्थतः भान होता ही है। आशय यह है कि 'यह अच्छा कार्य है' - इस कथन से श्रोता को यह अर्थतः ज्ञात होता है कि 'यह कार्य मैं करूं' ऐसा वक्ता को अवश्य इष्ट है, अन्यथा 'यह कार्य अच्छा है' ऐसा वक्ता का कथन नहीं होता! इस तरह तात्पर्य के अन्वेषण से वक्ता के अभिप्राय का ज्ञान होता है और उससे 'यह मेरे इष्ट का साधन है' ऐसा श्रोता को निश्चय हो जाता है। स्वेष्टसाधनता के निश्चय से स्वेष्टसाधनत्व की शंका दूर होने से तत्तत्कार्यविषयक अपनी इच्छा का प्रादुर्भाव होता है। अतः शब्दतः अपनी इच्छा का कथन न करने पर भी अर्थतः अपनी इच्छा का कथन करनेवाली आप्त पुरुष की यह वाणी इच्छानुलोम भाषा है, क्योंकि यह वाणी श्रोता की इच्छा का सहकारि कारण है।
शंका :- अथ इति । अपने माता-पिता से दीक्षा की अनुमति लेने के लिए जब अपने गुरुदेव से दीक्षार्थी, जिसको दीक्षा लेने की इच्छा पेदा हो चूकी है, प्रश्न करता है कि 'हे भगवंत! आपने संसार का जो स्वरूप बताया है वह सत्य ही है। यह मुझे श्रद्धा है। इसलिए मुझे दीक्षा लेने की भावना है। तो मैं दीक्षा की अनुमति के लिए माता-पिता को पूछने के लिए जाउँ?' तब गुरु भगवंत प्रत्युत्तर देते हैं कि 'यथासुखं मा प्रतिबन्धं कुर्याः' अर्थात् आपको जैसे सुख हो वैसा करो विलंब मत करो। अब यहाँ प्रश्न यह उपस्थित होता है कि 'यह गुरु भगवंत की वाणी इच्छानुलोमरूप कैसे हो सकती है? क्योंकि यहाँ दीक्षार्थी को दीक्षा की इच्छा तो उत्पन्न हो चुकी ही है। जो इच्छा उत्पन्न हो चूकी है वह इच्छा वापस तो कैसे उत्पन्न होगी। क्या एक बार जिसने जन्म ले लिया हो वह उस रूप में ही दूसरी बार जन्म ले सकता है? एक बार पेदा हुआ घट ही दूसरी बार पेदा हो सकता है? इस प्रश्न का प्रत्युत्तर निषेधात्मक ही प्राप्त होता है। वैसे दीक्षार्थी को दीक्षा की इच्छा पहले से ही उत्पन्न होने से उस इच्छा की उत्पत्ति के