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* तीर्थकराणां पारमार्थिकदातृत्वप्रतिपादनम् *
२५१ बोहिलाभं समाहिवरमुत्तमं किंतु' इति सूत्रस्था याचनी कथं स (? मस)त्यामृषा स्यादित्यत आह
भक्तिप्रयुक्ता एषा याचनी विषयं विनाऽपि गुणेन = 'असत्यामृषालक्षणेन, निश्चयतस्तु सत्याऽन्तःप्रवेशलक्षणेन उपेता = युक्ता न तु दुष्टेप्ति भावः । अत एवोक्तम्- "भासा असच्चमोसा णवरं भत्तीभासिआ एसा। ण तु खीणपेम्मदोसा, दिति समाहिं च बोहिं च ।। प्रदर्शयति- एवञ्चेति तादृशव्याप्तिसिद्धेरिति। रागाद्यभावेनेति। अनेनाऽदातृत्वहेतुः प्रदर्शितः। अददत इति । अनेनाऽविषयत्वमुक्तम्। प्रयोगास्त्वेवम् - तीर्थंकरा अदातारः, रागाद्यभावात्, सिद्धक्त्। तीर्थंकरा याचन्यविषया अदातृत्वात् तद्वत् । तीर्थंकरविषयिणि याचनी मृषा स्वाविषये प्रवर्तनात् अविनीतविषयकाज्ञापनीवत्। कथमसत्यामृषा स्यादिति । काक्वा 'नैवाऽसत्यामृषा स्यादिति ध्वनितम्।
समाधत्ते- भक्तिप्रयुक्तेति । इदं च वक्ष्यमाणगुणोपेतत्वविशेषणसाधनार्थमुक्तम् । इदं चोपलक्षणं न तु विशेषणम्, अन्यत्र तदभावात् । अतो नान्यत्राऽव्याप्तिरिति ध्येयम्। निश्चयत इति । पारिशेषन्यायात्पूर्वोक्तोऽसत्यामृषालक्षणो गुणो व्यवहारत इति सिध्यति। प्रयोगा एवम् विवादास्पदीभूता याचनी न दुष्टा गुणोपेतत्वात्। दुष्टत्वं चात्र मृषात्वदोषयुक्तत्वरूपं ग्राह्यम्। तदपि कुतः? इति चेत्? उच्यते, विप्रतिपन्ना याचनी गुणोपेता भक्तिप्रयुक्तत्वात् सम्प्रतिपन्नवत् । सत्यान्तःप्रवेशलक्षणेनेति। नन्वपूर्वेयं कल्पनेति चेत्? उच्यते, विप्रतिपन्ना याचनी नैश्चयिकसत्यत्वाक्रान्ता विप्रलिप्सा-पूर्वकत्वाभावात्। तदपि कुतः? भक्तिप्रयुक्तत्वादित्यनेन गृहाण। यद्वा भक्तिप्रयुक्तत्वादेव नैश्चयिकसत्यत्वसिद्धिः तद्भक्त्या तत्प्रतिबन्धककर्मविगमेन तत्प्राप्तेः। यत उक्तम् 'भत्तीइ जिनवराणं खिज्जंती पुव्वसंचिया कम्मा'। (आ.नि. १०९७ पूर्वार्द्धः) अत एवेति अदुष्टत्वादेवेति। आवश्यकनियुक्तिसंवादमाह 'भासा'
शंका :- ननु. इति । याचनीभाषामात्र का असत्यामृषा भाषा में समावेश करना ठीक नहीं है, क्योंकि निर्विषयक याचनी भाषा मृषा भी होती है। देखिये जैसे आज्ञा के अविषयभूत अर्थात् आज्ञा के अयोग्य ऐसे अविनीत आदि के विषय में आज्ञापनी भाषा मृषा है, वैसे ही जो याचना का अविषय है अर्थात् जिसको प्रार्थना करने पर भी जो कुछ देनेवाला नहीं है उसको प्रार्थना करनेवाली याचनी भाषा मृषा ही होगी, क्योंकि याचना निष्फल होने से वह भाषा विसंवादग्रस्त बनती है। इसका उदाहरण तो लोगस्स सूत्र यानी चतुर्विंशतिस्तव सूत्र में प्रसिद्ध ही है। यह रहा वह शास्त्रवचन का अर्थ - 'हे भगवंत! मुझे आरोग्य, बोधिलाभ और श्रेष्ठ समाधि दीजिए।' यह प्रार्थना तीर्थंकर भगवंतो से की जाती है जो रागादि से विनिर्मुक्त होने से किसीको कुछ भी देते ही नहीं है। अतः यह याचनी भाषा असत्यामृषा कैसे हो सकती है? प्रार्थना का विषय तो सरागी होता है, वीतरागी नहीं; क्योंकि जो वीतरागी है वह तो प्रार्थना करने पर भी कुछ भी देनेवाले नहीं हैं।
* व्यवहारनय से याचनी भाषा असत्यमृषा ही है। * समाधान :- भक्ति. इति। आपकी यह शंका इसलिए निराधार हो जाती है कि यह याचनी भाषा अदुष्ट है। याचनी भाषा में दोष के विपरीत गुण की उपलब्धि होने से दोषाभाव की सिद्धि होती है। व्यवहारनय के अभिप्राय से इस याचनी भाषा में असत्यामृषात्वरूप गुण रहता है, क्योंकि यह याचनी भाषा भक्ति से प्रयुक्त है। आशय यह है कि तीर्थंकर भगवंतों को 'लोगस्स सूत्र' में जो प्रार्थना की जाती है कि - उत्तम आरोग्य, बोधिलाभ और श्रेष्ठ समाधि मुझे दीजिए-जो याचनी भाषारूप है, तीर्थंकर भगवंतो के प्रति अपनी भक्ति के कारण बोली जाती है। तीर्थंकर भगवंतो के अचिंत्य सामर्थ्य पर अटूट विश्वास और उन पर अतुल भक्ति के कारण याचनी भाषा में मृषात्वरूप दोष नहीं रहता है किन्तु असत्यामृषाभाषात्वरूप गुण रहता है। अतः याचनी भाषा को निर्दोष कहने में कोई दोष नहीं है।
निश्चयत. इति। यह बात व्यवहारनय से बताई गई है। निश्चयनय की दृष्टि से जब विचार किया जाय तब तो यह याचनी भाषा सत्यभाषा में ही समाविष्ट हो जाती है, क्योंकि यह भाषा भक्तिभाव से प्रयुक्त है, विप्रलिप्सा = दूसरों को ठगने के अभिप्राय से प्रयुक्त नहीं है। पूर्व में १७ वीं गाथा में यह बताया गया है कि निश्चनय के दृष्टिकोण से विप्रलिप्सा से अप्रयुक्त असत्यामृषा भाषा
१ आरोग्यबोधिलाभं समाधिवरमुत्तमं ददतु। २ सूत्रस्थाऽसत्यामृषा - इति पाठः मुद्रितप्रतौ। अग्रे च कथमित्यस्यानन्तरं च 'सत्यामृषा' - इति पाठः। ३ सत्यामृषा इति पाठो कप्रतौ मुद्रितप्रतौ च वर्तते। अर्थसंगत्यर्थं अकारप्रश्लेष आवश्यकः । ४ भाषा असत्यामृषा नवरं भक्त्या भाषितैषा । न खलु क्षीणप्रेमद्वेषा ददति समाधिं च बोधिं च ।