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२४८ भाषारहस्यप्रकरणे स्त. ४. गा. ७३
O आज्ञापन्याः सत्याऽन्तर्भावशङ्का परमार्थतोऽसत्यत्वात्, आज्ञाप्यस्य तथात्वाऽनिर्णये 'भावभाषात्वनियामकसम्यगुपयोगानिर्वाहाच्चेतिदिग् २।। ७३ ।। उक्ताऽऽज्ञापन साम्प्रतं याचनीमाह
वृत्त्यभावस्य विविक्षतकार्यसम्पादनसामग्रीविघटक-विस्मरणादिरूप-निमित्तान्तरप्रयोज्यत्वं न त्वाज्ञापनीवृत्तिमृषात्वप्रयोज्यत्वमित्यर्थः। आज्ञाप्यप्रवृत्तेः सत्यत्वव्यापकत्वाभावेन न तदभावात् तदभावसिद्धिः अन्यथा चन्द्रकान्तमणिसमवधानदशायां वह्नेरदाहकत्वेनाऽवह्नित्वं प्रसज्येतेति गम्भीरो नन्वाशयः ।
नन्वाज्ञाप्यस्याऽऽज्ञाविषयत्वं निर्णीयाऽऽज्ञा दीयते यदुतैवमेव ? इति करालविकल्पयुगलकामुककुट्टिनीकटुकटाक्षविक्षेपाक्षेपविक्षेपितो भवदुपन्यस्तपक्षो मनीषितस्वार्थसिद्धिसौधमध्यं कथमध्यारोहति ? तथाहि यदि प्रथमो विकल्पः समाश्रीयते तदा तत्रापि आज्ञापन्या अप्रवर्त्तकस्वभावोऽङ्गीक्रियते प्रवर्त्तकस्वभावो वा ? इति अप्रमत्तविकल्पद्वयभारण्डपक्षिप्रचारः कथङ्कारं निवारणीयः ? आद्ये तु प्रवृत्तिनिमित्तशून्ये पदप्रयोगादुन्मत्तप्रलापदोषकेसरिकिशोरकापातगलितगतिर्हस्तिनीपतिः सत्यत्वसिद्धिप्राणप्रणियनीप्रथियस्तरप्रीतिपथावितथातिथ्याभ्यर्थनासामर्थ्यं कथं समर्थयिष्यति ? द्वितीये तु विवरणकारः प्राह प्रवर्त्तकादप्रवृत्ताविति । एतेन प्रवृत्त्यभावस्य निमित्तान्तराद्यधीनत्वादिति निरस्तम्, आज्ञापन्याः प्रवर्त्तकस्वभावे सति बलात्प्रवृत्तिः स्यात् स्वभावस्य त्याजयितुमशक्यत्वात् अन्यथाऽभव्यानामपि कदाचिन्मुक्तिः प्रसज्येत ।
मौलद्वितीयविकल्पे प्राह आज्ञाप्यस्य तथात्वाऽनिर्णय इति । अयमाज्ञाप्यः स्त्र्यादिजन आज्ञां सम्पादयिष्यत्येवेति निर्णयेऽसति। भावभाषात्वनियामकसम्यगुपयोगाऽनिर्वाहाच्चेति । उवउत्ताणं भासा ( भा.र.गा. १३ - पृ. ४६ ) इत्यादिना प्रतिपादितस्य भावभाषात्वनियामकस्य 'अयमाज्ञां सम्पादयिष्यत्येव, इत्थमेव दीयमानाऽऽज्ञा सफलीभविष्यती'त्यादिसम्यगुपयोगस्याऽसत्त्वाच्चेति । एतेन आज्ञाप्यस्य तथात्वमनिर्णीयैवाऽऽज्ञाविषयेऽप्याज्ञां ददतः सत्यवादित्वाभावो ध्वनितः सम्यगुपयोगस्याऽसत्त्वाच्च । सम्यगुपयोगपूर्वकत्वाभावाद् भावभाषात्वमेव नास्ति कुतस्तरां सत्यत्वसम्भवः? एवं व्यापकाऽभावेन व्याप्याभावसिद्धिः । न हि द्रव्यत्वाभाववति पृथ्वीत्वादिकल्पनां कलयन्ति कुलीनाः ।
ननु प्रथमहेतौ परमार्थतोऽसत्यत्वादित्युक्तं द्वितीये चाऽर्थतो द्रव्यभाषात्वमित्यनयोः कथं न विरोधः ? द्रव्यभाषात्वविनीत को आज्ञा देने पर भी प्रवृत्ति न हो, आज्ञापालन न हो वह तो आज्ञाप्य की विस्मरणशीलता आदि अन्य निमित्त के अधीन होने से उपपन्न हो सकता है। मगर इसके कारण आज्ञापनी भाषा को सत्य न बताना और विनीत को आज्ञा देनेवाले वक्ता को सत्यवादी न कहना - यह कैसे समुचित है ? प्रवृत्ति का अभाव अर्थात् आज्ञापालन का अभाव आज्ञापनी भाषा में रहे हुए सत्यत्वाभाव से प्रयुक्त नहीं है, किन्तु अन्य निमित्त से प्रयुक्त है। अतः आज्ञापनी भाषा के वक्ता को सत्यवादी ही कहना चाहिए ।
* आज्ञापनी में असत्यामृषात्व के समर्थक दो हेतु
समाधान :- न, प्रवर्त्तकात्. इति। आपने तो बडे भारी सत्याग्रह का प्रारंभ कर दिया। मगर वह सत्याग्रह नहीं है, असत्याग्रह = कदाग्रह है। इसका कारण यह है कि आज्ञापनी भाषा अन्य को प्रवृत्ति कराने के उद्देश से प्रयुक्त होने से प्रवर्त्तक वचन है। अतः उससे अवश्य प्रवृत्ति होनी ही चाहिए । यदि आज्ञावचन प्रवर्त्तक हो, फिर भी उससे प्रवृत्ति न हो तब तो वह परमार्थ से असत्य ही बन जायेगा, क्योंकि वह विसंवादी बन जाता है। अतः आज्ञापनी को सत्य मानने पर विस्मरणशीलतादि अन्य निमित्त होने पर भी प्रवृत्ति होने की आपत्ति आयेगी।
आज्ञाप्यस्य. इति। इससे अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि 'मैं जिसको आज्ञा कर रहा हूँ वह आज्ञापालन करेगा या नहीं ? - यह विचारविमर्श करने के बाद जब यह निर्णय हो जाये कि मैं जिसको आज्ञा दे रहा हूँ वह आज्ञापालन करने की परिस्थिति मैं है और वह आज्ञापालन करेगा ही तभी आज्ञांकित विनेय पुरुषादि को आज्ञा करनी चाहिए, क्योंकि उपर्युक्त निर्णय भावभाषात्व का नियामक होता है। यदि वैसा निर्णय न हो तब तो वह भाषा भाव भाषा ही न बनेगी तब वह सत्य तो कैसे हो सकेगी? क्योंकि सत्यभाषा भावभाषा के एक अवान्तरभेदस्वरूप ही है। अतः 'आज्ञाप्य आज्ञापालन करेगा ही' ऐसा निर्णय न होने पर जो आज्ञा दी १ योगनिर्वाहाच्चेति- मुद्रितप्रतौ पाठोऽशुद्धः ।