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* करणाकरणाऽनियमविचारः *
सत्यामृषात्वप्रतिषेधस्त्वप्रसक्तत्वादेव न कृत इति ।
नन्वाज्ञाविषये आज्ञां ददतः कथं न सत्यवादित्वं ? श्रोतुः प्रवृत्त्यभावस्य निमित्तान्तराद्यधीनत्वादिति चेत् ? न प्रवर्त्तकादप्रवृत्तौ पन्यानुपलब्धेः। एतेनाऽकरणे प्रत्यवायजनकत्वेन सद्भ्योऽहितत्वाज्ञापन्या असत्यत्वमिति प्रत्युक्तम् व्यवहारसम्मतमृषात्वप्रयोजकविरहात् । नन्वस्याः सत्यामृषायामेवान्तर्भावो भवतु सत्यामृषात्वस्याऽप्रतिषिद्धत्वादित्याशङ्कायामाह सत्यामृषात्वप्रतिषेधस्त्वप्रसक्तत्वादेव न कृत इति । एकदेशसंवादविसंवादाभावेन सत्यामृषात्वस्याऽप्राप्तत्वादेवाऽप्रतिषिद्धत्वमित्याशयः । एतेन कस्याश्चिदाज्ञापन्याः संवादस्याऽन्यस्या विसंवादस्य चोपलब्धेराज्ञापन्याः सत्यामृषात्वमिति मुग्धप्रलापः परास्तः प्रत्येकमांशिकसंवादविसंवादरूपस्य सत्यामृषान्तर्भावनिमित्तस्याऽभावात् । एतेन अनिषिद्धमनुमतं भवतीति निरस्तम् अनिषिद्धं सर्वथा निषिद्धमित्यस्याऽपि जागरूकत्वात्, शास्त्रस्य प्रसक्तप्रतिषेधकत्वाच्च। न ह्यप्रसक्तं शास्त्रेण प्रतिषिध्यते अन्यथा गगनभक्षणादिप्रतिषेधस्याऽपि कर्त्तव्यत्वप्रसङ्गात् ।
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विनीतस्त्र्यादिविनेयजनविषयाया अस्याः सत्यत्वमेव स्वविषयविषयकत्वादित्याशयेन कश्चित्शङ्कते - नन्विति । आज्ञाविषये = आज्ञापयितुमर्हे । ननु कदाचिद् विनेयजनेनाऽऽज्ञायामसम्पादितायामाज्ञापन्या असत्यत्वं स्यात् विवक्षितकार्यप्रसाधन-सामर्थ्यवियुक्तत्वादित्याशङ्कायामाह श्रोतुः प्रवृत्त्यभावस्य निमित्तान्तराद्यधीनत्वादिति । आज्ञाप्यप्र
बात सुनो। सत्यादि भाषा से आज्ञापनी भाषा विलक्षण = भिन्न होने के दो कारण हैं। प्रथम हेतु है करण और अकरण का अनियम और दूसरा हेतु है अदुष्टविवक्षापूर्वकत्व । करण और अकरण के अनियमरूप प्रथम हेतु को बताने का आशय यह है कि यदि करणनियम हो तब तो आज्ञापनी भाषा सत्य ही हो जाती और अकरणनियम हो तब असत्य ही हो जाती । करणनियम का अर्थ है जिसका पालन अवश्य करना ही पडे । यदि आज्ञापनी भाषा का पालन किया ही जाय ऐसा हो, तब तो इस दुनिया में किसीको जैल या फाँसी की सजा ही न होगी क्योंकि 'चोरी मत करना, खून मत करना इत्यादि राजकीय आज्ञा है ही। मगर ऐसा नहीं है इससे सिद्ध होता है कि आज्ञापनी भाषा में करणनियम नहीं है। आज्ञा के अपालननिमित्त सजा हो वह बात अलग है। यदि करणनियम होता तब तो आज्ञापनी भाषा संवादी हो जाने से सत्य ही बन जाती। मगर करणनियम नहीं है। अतः आज्ञापनी भाषा सत्यभाषा नहीं है किन्तु उससे भिन्न है यह सिद्ध होता है। वैसे ही अकरणनियम भी नहीं है। अकरणनियम का अर्थ है जिसका पालन होगा ही नहीं। आज्ञापनी भाषा में अकरणनियम मानने पर यह अर्थ प्राप्त होगा कि आज्ञापनी भाषा ऐसी है कि उससे जो आज्ञा होती है उसका पालन होनेवाला ही नहीं है। तब तो यह भाषा विसंवादी होने से मृषा ही बन जायेगी। मगर ऐसा अकरणनियम भी आज्ञापनी में नहीं है, क्योंकि अनेक मनुष्य आज्ञा का संपादन करते हैं को मान्यता दी जाय तब तो भारी अव्यवस्था हो जायेगी। अतः करण और अकरण के अनियम और न तो मृषा है किन्तु अतिरिक्त है यह सिद्ध होता है। आज्ञापनी भाषा मृषा नहीं है इसकी सिद्धि का दूसरा हेतु है दुष्टविवक्षापूर्वकत्वाभाव । अर्थात् आज्ञांकित पुरुष आदि को आज्ञा देने में वक्ता का कोई दुष्ट अभिप्राय नहीं होता है। क्या कोई यह कह सकता है कि 'चोरी मत करो' इस आज्ञा के प्रयोग में राजा का दुष्ट आशय होता है? यदि दुष्ट विवक्षा से आज्ञापनी भाषा का उद्भव हो तब तो आज्ञापनी भाषा में असत्यत्व हो सकता है। मगर सब आज्ञापनी भाषा में दुष्टअभिप्राय प्रयुक्तत्व नहीं होता है। अतः आज्ञापनीमात्र का असत्य भाषा में प्रवेश नहीं हो सकता है। यहाँ तो सब आज्ञापनी भाषा का किस भाषा में अंतर्भाव करना? यह बताना अभिप्रेत है। आज्ञापनी भाषा सत्यामृषा नहीं है ऐसा निषेध करने की या तो इस निषेध में कोई हेतु बताने की जरूरत नहीं है, क्योंकि आज्ञापनी भाषा में आंशिक संवाद और आंशिक विसंवाद न होने से सत्यामृषात्व की शंका भी किसीको नहीं होती है। जो अप्राप्त = अप्रसक्त है उसका निषेध शास्त्र नहीं करता है। यहाँ तक के विवेचन से यह निःसंदिग्ध सिद्ध होता है कि आज्ञापनी भाषा सत्यादि तीन भाषा स्वरूप नहीं है किन्तु सत्यादि तीन भाषा से विलक्षण भाषा है। अतएव असत्यामृषा भाषा के लक्षण से आक्रांत होने से आज्ञापनी का असत्यामृषा भाषा में प्रदर्शन करना युक्तिसंगत ही है।
ऐसा देखा जाता है। यदि अकरणनियम से आज्ञापनी भाषा न तो सत्य है
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शंका :- 'नन्वाज्ञा.' इति। जो विनीत है- आज्ञांकित है, अतएव आज्ञा का विषय है = आज्ञा देने योग्य है उसको आज्ञा देने पर वक्ता सत्यवादी क्यों न बनेगा ? विनीत को आज्ञा करने पर वह आज्ञापालन करता है- यह सर्वजनविदित है। कभी कभी