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* सम्बोध्यत्वस्वरूपनिरुक्तिः * .
२४५ अस्याश्चाऽसत्यामृषात्वे हेतुत्रयमुक्तम् एषा किलाऽप्रवर्तकत्वात्, सत्यादिभाषात्रयलक्षणवियोगतः तथाविधदलोत्पत्तेरिति (दशवै. अ. ७/नि.गा. २७६ हा.वृ.)। तत्राऽऽद्यहेतौ प्रवृत्तिपदेन सत्यादिजन्यप्रवृत्तिविशेषो ग्राह्यः। द्वितीये तु प्रकृतलक्षणमेव । तृतीये तु भाषावर्गणाविशेषजन्यत्वमेतल्लक्षणमभिप्रेतमिति द्रष्टव्यम् । ७२ ।। उक्ताऽऽमन्त्रणी १। अथ आज्ञापनीमाह
आणावयणेण जुआ, आणवणी पुव्वभणिअभासाओ। करणाकरणाणियमादविवक्खाइ सा भिण्णा ||७||
समवायिकारणस्योपादानकारणस्य वा दलपदार्थत्वं मनसिकृत्य व्याख्यानयति भाषावर्गणाविशेष
| सत्यादित्रयभाषावर्गणाविलक्षणभाषावर्गणाजन्यत्वमिति यावत् । न चैतत्स्वमनीषिकाविजृम्भितम, तदुक्तं प्रज्ञापनायां "जीवे णं भंते! जाइं दव्वाइं मोसभासत्ताए गिण्हति ताई किं सच्चभासत्ताए निसरति, मोसभासत्ताए, सच्चामोसभासत्ताए, असच्चामोसभासत्ताए निसरइ? गोयमा! नो सच्चभासत्ताए निसरति, मोसभासत्ताए निसरति, णो सच्चामोसभासत्ताए, णो असच्चामोसभासत्ताए निसरति। एवं सच्चामोसभासत्ताए वि असच्चामोसभासत्ताए वि एवं चेव। (प्रज्ञा. पद ११/सू. १७२) इदमेवाभिप्रेत्य शास्त्रवार्तासमुच्चयेऽप्युक्तम्- 'वन्ध्येतरादिको भेदो रामादीनां यथैव हि। मृषासत्यादिभेदानां तद्वत्तद्धेतुभेदतः।। (शा.स.स्त. ११/श्लो. १६) अन्त्यहेतुद्वयं चाज्ञापन्यादावप्यनुसन्धेयम् । ७२।।
* आमन्त्रणी भाषा में असत्यामृषाभाषात्व के तीन हेतु * अस्याश्च. इति। आमन्त्रणी भाषा असत्यामृषा है, सत्यादिरूप नही - इस सम्बन्ध में श्रीहरिभद्रसूरिजी महाराजा ने श्रीदशवैकालिकसूत्र की व्याख्या में कहा है कि यह भाषा असत्यामृषा है, क्योंकि (१) यह भाषा अप्रवर्तक है (२) सत्यादि तीन भाषा के लक्षण से रहित है और (३) तथाविध उपादान कारण से यानी विलक्षण उपादान कारण से उत्पन्न होती है। यहाँ जो प्रथम हेतु बताया गया है उसका अर्थ यह अभिप्रेत है कि सत्यादि तीन भाषा से जन्य प्रवृत्ति की यह भाषा अप्रयोजक है। आशय यह है कि अप्रवर्तक पद का 'प्रवृत्तिमात्र की अप्रयोजक' ऐसा अर्थ यहाँ इष्ट नहीं है, क्योंकि यह भाषा श्रोता में श्रवणाभिमुखतारूप प्रवृत्ति की प्रयोजक है ही। अतः प्रवर्तक का अर्थ है प्रवृत्तिविशेष का अप्रयोजक यानी सत्य इत्यादि तीन भाषा से जन्य प्रवृत्तिविशेष की अप्रयोजक होने से यह भाषा असत्यामृषाभाषास्वरूप है। दशवैकालिकसूत्र की टीका में जो दूसरा हेतु बताया गया है कि आमन्त्रणी भाषा सत्यादि तीन भाषा के लक्षण से रहित है - यह तो यहाँ असत्यामृषाभाषा के प्रथमलक्षण सत्यादिभाषात्रयविलक्षणभाषात्वरूप ही है। अंतिम और तृतीय हेतु यह बताया है कि 'तथाविधदलोत्पत्तेः', इसका अर्थ यह है कि भाषावर्गणाविशेष से यह भाषा उत्पन्न होती है। आशय यह है कि सत्यभाषा की जनक भाषावर्गणा अलग होती है, असत्यभाषा की उत्पादक भाषावर्गणा अलग होती है, सत्यामृषा भाषा की सर्जक भाषावर्गणा अलग होती है और असत्यामृषा भाषा की कारणीभूत भाषावर्गणा अलग होती है। जो भाषावर्गणा सत्यभाषा को उत्पन्न करती है उससे असत्यादि भाषा उत्पन्न नहीं होती है। जो भाषावर्गणा सत्यादिभाषा की जनक होती है, उससे आमन्त्रणी भाषा की उत्पत्ति नहीं होती है, किन्तु भिन्न भाषावर्गणा से आमन्त्रणी भाषा का जन्म होता है। अतः कारणभेद की दृष्टि से भी आमन्त्रणी भाषा सत्यादि तीन भाषास्वरूप नहीं हैं, किन्तु उनसे विलक्षण ही है - यह सिद्ध होता है। यह भी असत्यामृषा भाषा के लक्षणरूप से अभिप्रेत है यह जानना चाहिए।७२।। ___ आमन्त्रणी भाषा का निरूपण पूर्ण हुआ। अब प्रकरणकार आज्ञापनी भाषा को, जो कि असत्यामृषा भाषा का दूसरा भेद है, ७३ वी गाथा से बता रहे हैं।
गाथार्थ :- आज्ञावचन से युक्त भाषा आज्ञापनी भाषा है। करण और अकरण के अनियम सें और अदुष्टविवक्षा से जन्य होने से पूर्वप्रदर्शित (सत्यादि तीन) भाषाओं से यह भिन्न है।७३।
१ किमामन्त्रयसीति-मुद्रितप्रतौ। २ आज्ञावचनेन युता आज्ञापनी पूर्वभणितभाषातः। करणाकरणानियमादुष्टविवक्षया सा भिन्ना । ७३ ।।