Book Title: Bhasha Rahasya
Author(s): Yashovijay Maharaj, 
Publisher: Divyadarshan Trust

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Page 256
________________ २२५ * विधेयतावच्छेदकलाघवाय कल्पान्तरद्योतनम् * सत्यत्वात्सत्यामृषात्वं स्यादिति चेत्? न, मूलावच्छिन्नकपिसंयोगवत्त्वांशे मूलावच्छिन्नसमवायसम्बन्धेन वा तदंशेऽप्रमात्वादेवेति दिग्।।५६-५७।। तत्रादावुत्पन्नमिश्रितामेवाऽऽह शब्दार्थैकदेशे कपिसंयोगेऽन्वय इत्याशयेनाह मूलावच्छिन्नकपिसंयोगवत्त्वांश इति। अयं भावः तादृशवाक्यजन्यबोधे मुलेऽवच्छेदकत्वं वृक्षे च संयोगवत्त्वं पृथग न भासते नानामुख्यविशेष्यताशालिज्ञानत्वेन समूहालम्बनज्ञानत्वप्रसङ्गात् । न च समूहालम्बनज्ञानमत्र जायते, तत्सामग्रीविरहात् किन्तु प्रकृते विशिष्टवैशिष्ट्याऽवगाहि ज्ञानं जायते । अत्र ज्ञाने विशेषणतावच्छेदकप्रकारकज्ञानं कारणं विशेषणावच्छिन्नप्रतियोगिकवैशिष्ट्याऽऽख्यः सम्बन्धः च संसर्गतया प्रकारतानाक्रान्तविशेष्ये भासते। इदमेव ज्ञानं विशिष्टविशेषणकज्ञानप्रभेदरूपं विशेषणविशिष्टप्रतियोगिकवैशिष्ट्यावगाहि भवति विशेषणोपलक्षितप्रतियोगिकवैशिष्ट्यावगाहिज्ञानाद् भिद्यते चेति बोध्यम्। तथा च मूलावच्छिन्नकपिसंयोगवत्तारूपधर्मांशे भ्रमजनकत्वान्मृषात्वमेवेति सिद्धम्। एतेन एकत्र द्वयमिति रीत्या एकस्मिन्नेव कपिसंयोगे मूलावच्छिन्नत्वं वृक्षवृत्तित्वं चैतदुभयं विशेषणतयैव भासते न तु विशेषणविशेष्यतावच्छेदकभावेन । तथा च मूलावच्छिन्नत्वांशे भ्रमजनकत्वात् वृक्षवृत्तित्वांशे च प्रमाजनकत्वात्सत्यामृषात्वमेवेत्यपि निरस्तम् वृक्षवृत्तित्वस्य विशेषणत्वेन भानप्रयोजकसामग्रीविरहेण विशेषणत्वेनोभयोपस्थितेः तादृशज्ञानप्रयोजिकाया असत्त्वात् प्रथमान्तमुख्यविशेष्यकत्वाभावेन तादृशशाब्दबोधस्याऽव्युत्पन्नत्वाच्च । अत एव विशेष्ये विशेषणं तत्राऽपि विशेषणान्तरमिति रीत्या वृक्षे कपिसंयोगः तत्र च मूलावच्छिन्नत्वं विशेषणतया भासते न तु मूलावच्छिन्नत्वं वृक्षांशे विशेषणतावच्छेदकतया। तथा च विशेषणान्तरविशिष्टविशेषणस्य मूलावच्छिन्नकपिसंयोगस्य बाधात शुद्धविशेषणस्य कपिसंयोगस्याऽबाधाच्च सत्यामृषात्वमेव न तु मृषात्वमित्यपि परास्तम् बाधकाभावेन विशेषणद्वयस्याऽव्यवधानेनोपस्थितेः तादृशबोधप्रयोजिकाया विशृंखलोपस्थितेरसत्त्वात् । विधेयतावच्छेदकधर्मलाघवाय कल्पान्तरं प्रदर्शयति मूलावच्छिन्नसमवायसम्बन्धेन वा इति । अप्रमात्वरक्षार्थं मूलावच्छिन्नत्वं समवायस्य विशेषणं, अन्यथा शाखायां कपिसंयोगस्य समवायेन सत्त्वात प्रमात्वमेव स्यात। तदंश इति कपिसंयोगवत्तांश इति। अप्रमात्वादेवेति तादृशवाक्यस्य मूलावच्छिन्नसमवायेन कपिसंयोगवत्तांशेऽप्रमाजनकत्वादेव मृषात्वमिति भावः। यद्वा तादृशवाक्यजन्यज्ञानस्य तादृशसम्बन्धेन कपिसंयोगवत्तांशेऽप्रमात्वादेव तज्जनकवाक्यस्य मृषात्वमिति भावः। इदं चाभ्युपगमवादेनोक्तम्। वस्तुतस्तु 'मूले वृक्षः कपिसंयोगी'त्यत्राऽवच्छिन्नत्वं न सप्तम्यर्थः किन्तु वृत्तित्वमेव तस्य च कपिसंयोगिशब्दार्थैकदेशे कपिसंयोगेऽन्वयः। तदुक्तं स्याद्वादकल्पलतायां - 'मूले वृक्षः कपिसंयोगी' इत्यत्राऽपि 'मूलवृत्तिकपिसंयोगवान वृक्ष' इत्येव स्वारसिकोऽर्थः । यदि च मूलेऽवच्छेदकत्वं भासते तदाऽपि स्वनिरूपितैमें भान होता है। वृक्षरूपी धर्मी में मूलावच्छिन्न कपिसंयोगवत्ता तो बाधित ही है, क्योंकि वृक्ष में मूलावच्छिन्न कपिसंयोग नहीं है मगर शाखावच्छिन्न कपिसंयोग है। अतः धर्मी में जिसका सम्बन्ध नहीं है ऐसे मूलावच्छिन्न कपिसंयोग का ज्ञान तो भ्रमात्मक ही सिद्ध होता है। मूलावच्छिन्न कपिसंयोगवत्तारूप धर्म अंश में अप्रमात्मक ज्ञान उत्पन्न करने से वह वाक्य भी मृषा ही है, सत्यमृषा नहीं। या फिर ऐसा भी कहा जा सकता है कि 'मूले वृक्षः कपिसंयोगी' वाक्य से जो शाब्दबोध होता है उसमें वृक्षरूप धर्मी में मूलावच्छिन्नसमवाय सम्बन्ध से कपिसंयोग का भान होता है, जो कि बाधित है। इसका कारण यह है कि वृक्ष में शाखावच्छिन्नसमवाय सम्बन्ध से कपिसंयोग रहा हुआ है न कि मूलावच्छिन्नसमवाय सम्बन्ध से। अतः मूलावच्छिन्न समवायसम्बन्ध से कपिसंयोगरूप धर्म अंश में अप्रमाजनक होने से वह वाक्य मृषा ही है न कि सत्यमृषा, क्योंकि वह वचन धर्माश में भ्रम-प्रमा उभय का जनक नहीं है मगर केवल भ्रम का ही जनक है। संयोग अव्याप्यवृत्ति पदार्थ है। अतः वह वृक्ष में शाखावच्छिन्न समवायसम्बन्ध से ही रहता है। अतः मूलावच्छिन्न समवायसम्बन्ध से कपिसंयोग का वृक्ष में अभाव ही है। तदभाववति तत्प्रकारकज्ञान का जनक

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