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२३६ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.३. गा. ६४
० समुदायावच्छिन्नत्वस्याऽवयवावच्छिन्नत्वानतिरेकित्वनिरूपणम् ० 'द्वित्वव्यापकत्वरूपस्यैकत्वव्यापकत्वद्वयरूपत्वेनोक्तवचसोऽप्यंशिकसत्यत्वात्, समुदायावच्छिन्नत्वस्याऽपि प्रकृतेऽवयवावच्छिन्नत्वानतिरेकादिति दिग् ७।।६४ ।।
उक्ताऽनन्तमिश्रिता। अथ परित्तमिश्रितामाह
तादात्म्येन घटान्वयोऽभिप्रेत इति फलितम् । अवच्छिन्नत्वं च प्रकृते सामानाधिकरण्यरूपं ग्राह्यम्। ततश्चैकत्वव्यापकेदन्ताद्वयसामानाधिकरण्येन घटान्वयोऽभिमत इति निर्गलितार्थः । यद्वाऽवच्छिन्नत्वमत्र विशिष्टत्वरूपं बोध्यम् । ततश्चैकत्वव्यापकेदन्ताद्वयविशिष्टे घटान्वय इति फलितम्। तादृशप्रथमेदन्तावति पटे तादात्म्येन घटान्वयस्य बाधितत्वेऽपि तादृशद्वितीयेदन्तावति घटेऽबाधितत्वेनांऽऽशिकसत्यत्वाऽनपायात्सत्यामृषात्वमेव तत्रेति तात्पर्यम् । नन्वेवमवयवावच्छिन्नविषयताया आंशिकसत्यत्वोपपादनेऽपि समुदायावच्छिन्नविषयतायाः सर्वथा बाधितत्वं नापनोतुं शक्यमित्याशङ्कायामाह - समुदायेति। अयं भावः, यथा वनस्य वृक्षसमूहरूपस्य नाशोकादिसमूहिव्यतिरिक्तत्वं संतानस्य वा न सन्तानिव्यतिरिक्तत्वं तथा समुदायावच्छिन्नत्वस्याऽपि नावयवावच्छिन्नत्वातिरिक्तत्वम् । तथा च समुदायावच्छिन्नविषयताया अवयवावच्छिन्नविषयतारूपाया आंशिकसंवादेन न तत्र सर्वथा मृषात्वं, प्रत्येकावृत्तिधर्मस्य समुदायवृत्तित्वायोगात्। तथा च स्वविषयीभूतपुरोवर्तिसमुदायावयवात्मक-प्रत्येककायिकावच्छेदेन विसंवादेऽपि समूहावयवरूपानन्तकायिकावच्छेदेन संवादोपलम्भान्न सर्वथा मृषात्वम्। समुदायावच्छिन्नविषयतायाः समुदायघटकीभूतप्रत्येककायिकावच्छिन्नविषयतारूपाया बाधेन समुदायघटकीभूतानन्तकायिकावच्छिन्नविषयतारूपायाश्चाऽबाधेनाऽनन्तमिश्रितभाषायाः सत्यामृषात्वमेव । एतेन सर्वावयवावच्छेदेनाऽभेदसंसर्गेणाऽनन्तकायिकस्य बाधान्मृषात्वमेवेत्यपास्तमित्यादिप्रदर्शनार्थं दिक्पदप्रयोगः कृतः ।।६४।। एकत्वव्यापक इदन्ताद्वय के आश्रय में घट का अन्वय होगा। एकत्वव्यापक इदंताद्वय के आश्रय घट और पट हैं जिनमें से घट में तो तादात्म्यसंबंध से घट का अन्वय अबाधित ही है, भले पट में अभेदसंसर्ग से घट का अन्वय बाधित हो। अतः आंशिक भ्रमजनकत्व और आंशिक प्रमाजनकत्व होने से यह भाषा न सर्वथा सत्य है और न सर्वथा मृषा है, किन्तु सत्यामृषा है।
* समुदायावच्छिन्नत्व प्रत्येकावच्छिन्नत्व से अनतिरिक्त है * समुदा. इति । इसके अतिरिक्त एक बात यह भी ध्यातव्य है कि - जिस ज्ञान की विषयता समुदायावच्छिन्न होती है वह अवयवावच्छिन्न विषयता से अतिरिक्त नहीं होती है। इसका कारण यह है कि समुदाय समुदायी = अवयव से अतिरिक्त नहीं है। अतः द्वित्वत्वावच्छिन्न इदंत्व की विषयता एकत्वद्वयावच्छिन्न विषयता से = एकत्वव्यापक इदन्ताद्वय से अवच्छिन्न विषयता से अतिरिक्त नहीं है, जिसमें आंशिक संवाद और आंशिक विसंवाद है। अतः समुदायावच्छिन्नविषयता में भी आंशिक संवाद और विसंवाद प्राप्त होता है जिसकी वजह से वह वाक्य सत्यासत्य सिद्ध होता है, न कि केवल असत्य । ठीक इसी तरह प्रत्येककाय और अनन्तकाय के समूह से नियंत्रित विषयता भी प्रत्येककाय से नियन्त्रित और अनंतकाय से नियन्त्रित विषयता से अतिरिक्त नहीं है किन्तु तत्स्वरूप ही है। प्रत्येक काय से नियन्त्रित विषयता में विसंवाद होने पर भी अनंतकाय से नियन्त्रित विषयता में तो संवाद है ही। आशय यह है कि प्रत्येककायमिश्रित अनन्तकाय के समुदाय में 'यह अनंतकाय है' ऐसा वाक्य भ्रमात्मक शाब्दबोध उत्पन्न करता हुआ भी समुदाय के अंशभूत प्रत्येककाय में भ्रमात्मक और अनन्तकाय में प्रमात्मक शाब्दबोध को उत्पन्न करता है। अतः वह वाक्य सर्वथा मृषा नहीं है, किन्तु आंशिक सत्य और आंशिक असत्य है। अतः उसका मिश्रभाषा में प्रवेश करना विचारसंगत ही है। यह तो एक दिग्दर्शन है। इस विषय में अधिक विचार भी किया जा सकता है इसकी सूचना देने के लिए विवरणकारने यहाँ दिग् पद का प्रयोग किया है।।६४ ।।
द्रव्यविषयक भावभाषा के तृतीयभेदरूप मिश्रभाषा के सातवें भेद - अनन्तमिश्रित भाषा का निरूपण पूर्ण हुआ। अब मिश्रभाषा के आठवें भेदरूप प्रत्येकमिश्रित भाषा का प्रकरणकार ६५ वी गाथा से निरूपण कर रहे हैं।
१. '-अद्वित्व- इति मुद्रितप्रतौ पाठोऽशुद्धः।