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* परीतानन्तमिश्रितायाः स्वातन्त्र्यप्रतिक्षेपः *
२३७ परमपुरिसेहि भणिया, एसा य परित्तमीसिया भासा। जाऽणंतजुअपरित्ते भण्णई एसो परित्तो त्ति।।६५।। एषा च भाषा परमपुरुषैः = तीर्थंकरगणधरप्रभृतिभिः परित्तमिश्रिता भणिता। एषा का? इत्याह-याऽनन्तेन = अनन्तकायलेशेन युते म्लानमूलादौ 'एष परीत' इति भण्यते। इयं हि परीतांशे सत्याऽनन्तांशे चासत्येति सत्यामृषा।
स्यादेतत् - परीतानन्तकायोभयसंवलिते एकत्र "एतावन्तोऽनन्ता एतावन्तश्च परीता" इति यथोक्तप्रमाणविसंवादे परीतानन्तमिश्रिताऽप्यतिरिच्यते मैवम् इयत्तायास्तत्र अप्रयोगादेवाऽप्रयोगात्, उभयातिरेकनिमित्तस्य बुद्धिविशेषस्य 'चाभावात्। प्रत्येकानन्तप्रयोगनिमित्तं तु वैलक्षण्यमस्त्येव ।
तीर्थंकरगणधरप्रभृतिभिरिति । अर्थतः तीर्थंकरेण, सूत्रतो गणधरप्रभृतिभिरिति। प्रभृतिशब्देन स्थविरादिग्रहणम् । परीतांशे सत्याऽनन्तांशे चासत्येति। स्वविषयीभूतसमुदायघटकीभूते परीतांशे संवादेन प्रमाजनकत्वात्सत्या, अनन्तांशे च विसंवादेन भ्रमजनकत्वादसत्येति मिश्रान्तर्भाव इति भावः। युगपदुभयराशीयत्ताप्रतिपादने यथोक्तप्रमाणविसंवादे चोत्पन्नविगतमिश्रितादिवत्परीतानन्तमिश्रिताऽप्यतिरिक्तेत्याशयेन शङकते स्यादेतदिति। भावितार्थमेतत्।
समाधत्ते मैवमिति। तत्राऽप्रयोगादेवाप्रयोगादिति। परीतानन्तकायोभयसंवलिते राशावियत्तायाः प्रयोगाभावादेव मिश्रभाषाविभागे परित्तानन्तमिश्रिताया उभयातिरिक्तायाः प्रयोगाभावात्। न हि व्यवहारनयो व्यवहारानवतीर्णभाषाया विभागनिरूपणे प्रवर्त्तते । न चेयत्तायास्तत्र प्रयोगः कथं न भवतीति वाच्यम् अर्वाग्दर्शिभिस्तादृगियत्ताया ज्ञातुमशक्यत्वात् स्वज्ञानाविषयप्रतिपादने चोन्मत्तत्वप्रसङ्गात् । न चातोन्द्रियदर्शिभिस्तादृगियत्ताया ज्ञातुं शक्यत्वेनातिरिक्तपरित्तानन्तमिश्रितायाः कदाचित्प्रयोगकरणे तत्प्रदर्शनं न्याय्यमिति वाच्यम, तद्वचनस्य सत्यत्वादेव मिश्रभाषाया
गाथार्थ :- अनंतकाय से मिश्रित प्रत्येककाय के समूह में 'यह प्रत्येककाय है' ऐसी भाषा प्रत्येकमिश्रित = परित्तमिश्रित है - ऐसा परम पुरुषों से कहा गया है।६५।
* प्रत्येकमिश्रित सत्यामृषा भाषा - ८/३ * विवरणार्थ :- अनन्तकाय के अंश से युक्त म्लान मूल आदि में 'यह प्रत्येककाय है' यह वचन परित्तमिश्रित है - ऐसा तीर्थंकरगणधर आदि परम पुरुषों ने बताया है। यहाँ प्रत्येककायिक अंश में संवाद होने से यह भाषा सत्य है और अनन्तकायिक अंश में यह भाषा असत्य है। आंशिक सत्य और आंशिक असत्य होने के कारण यह भाषा सत्यामृषा भाषा में अधिकृत है।
शंका :- स्यादेतत्. इति। जैसे उत्पन्नमिश्रित और विगतमिश्रितः भाषा से उत्पन्नविगतमिश्रित भाषा अतिरिक्त है वैसे अनन्तमिश्रित और प्रत्येकमिश्रित भाषा से परित्तानन्तमिश्रितभाषा को अतिरिक्त = स्वतंत्र मानना आवश्यक है। इसका कारण यह है कि प्रत्येककाय और अनंतकाय के समूह में 'यहाँ इतने अनन्तकाय हैं और इतने प्रत्येककाय हैं' ऐसा वाक्य, जो कि विसंवादी प्रमाणविषयक है, न सर्वथा मृषा है और न सर्वथा सत्य है, किन्तु आंशिक सत्य और आंशिक मृषा है। अतः इस वचन को सत्यामृषा मानना आवश्यक है तथा अनंतमिश्रित और प्रत्येकमिश्रित से भी उसे अतिरिक्त मानना आवश्यक है। अतः परित्तअनंतमिश्रित नाम की एक अतिरिक्त भाषा का स्वीकार न्यायप्राप्त है।
* स्वतंत्र परित्तानंतमिश्रित भाषा नहीं है * समाधान :- मैवम्, इति । आपका यह कथन तथ्यहीन है। इसका कारण यह है कि व्यवहार में कभी भी ऐसा वाक्यप्रयोग कि 'इसमें इतने अनंतकाय हैं और इतने प्रत्येककाय हैं' होता ही नहीं है। जो प्रयोग होता ही नहीं है उसका समावेश किस भाषा में करना? या उसके लिए एक अतिरिक्त भाषा की व्यवस्था करना यह सब अविचारित कार्य है। व्यवहारनय के अभिप्राय से मिश्र भाषा का अधिकार यहाँ चल रहा है। जो भाषा व्यवहार में प्रयुक्त होती है उसका कहाँ किस नियम से समावेश करना? यह सब व्यवहारनय का कार्य है। जो भाषा अव्यवहारिक है उसका समावेश करने के लिए व्यवहारनय का कोई प्रयास नहीं होता है। अतः
१. परमपुरुषैर्भणिता एषा च परित्तमिश्रिता भाषा । याऽनंतयुतपरीते, भण्यते एष परीत इति ।।६५।। २. मुद्रितप्रतौ - तत्राऽप्रयोगात् - इति त्रुटितः पाठः, कप्रतौ च पूर्णपाठः । ३. मुद्रितप्रतौ - वाभावात् - इति पाठः ।