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२३२ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.३. गा. ६१
० उभयीयत्वभानेऽपि प्रतिनियतैकीयत्वाऽभानख्यापनम् ० नेऽप्युभयीयसमूहे एकीयत्वाऽसमर्थनात्, उभयीयस्यैकीयत्वनियमेऽपि प्रतिनियतैकत्वानियमात् । न च प्रतिनियतत्वस्याऽबोध एव, बोधे वा मृषात्वमेव स्यादिति वाच्यम् बोधसामग्रीमहिम्नैव तद्बोघात्, समूहस्य सामान्यत एकीकृतस्याऽपि विशेषार्पणया विभेदाच्च घटितत्वाभावव्याप्यत्वात्। न हि पटाघटितसमूहस्य घटपटघटितत्वं भवितुमर्हतीत्याशङ्कायामाहउभयीयस्यैकीयत्वनियमेऽपि प्रतिनियतैकत्वानियमादिति। उभयघटितत्वस्यैकघटितत्वव्याप्यत्वेऽपि प्रातिस्विकैकमात्रघटितत्वव्याप्त्यभावाद्, विनिगमनाविरहादिति शेषः । अयं भावः, जीवाजीवघटितसमूहस्य जीवमात्रघटितत्वव्याप्यत्वं नास्ति, विपक्षबाधकतर्काभावात्, अन्यथाऽजीवमात्रघटितत्वव्याप्यत्वस्याऽपि सुवचत्वात् । ततश्च न सर्वथा सत्यत्वमिति सिद्धम् ।
ननु जीवमात्रघटितत्वस्याऽजीवमात्रघटितत्वस्य वा बोध एवात्र न स्वीक्रियतेऽपि तु जीवघटितत्वबोध एव तस्य चाबाधेन सर्वथा सत्यत्वमेव । यदि च जीवमात्रघटितत्वादेर्बोधः स्यात्तदा मृषात्वमेव स्यात् न तु सत्यामृषात्वं, विधेयतावच्छेदकावच्छिन्नस्योद्देश्यतावच्छेदकावच्छेदेन बाधादित्याशयेन शङ्कते-न चेति।
समाधत्ते बोधसामग्रीमहिम्नैव तद्बोधादिति। शाब्दबोधसामग्रीसाचिव्येनैव प्रतिनियतैकत्वबोधादिति। अयं भावो नेदं राजकीयं वचनं यदुत प्रकृते जीवघटितत्वबोध एव जायतां न तु जीवमात्रघटितत्वबोध इति किन्तु यदा यत्र यादृशी सामग्री तदा तत्र तादृक्कार्यं जायते, प्रकृते चाऽऽकाङ्क्षादिरूपशाब्दबोधसामग्रीबलेनैव 'एष बहुजीवराशिरि'ति वाक्यात् पुरोवर्तिनि बहुत्वसङ्ख्याविशिष्टजीवमात्रघटितसमूहाभेदस्य तादात्म्येन वा तादृशसमूहस्य स्वारसिको बोधो जायत एव । न हि स्वसामग्रीसञ्जातं कार्यं भूतपतिनाऽपि पराकतु शक्यम् । ननु पूर्वमेवोक्तं 'यदि च जीवमात्रघटितत्वादेर्बोधस्स्यात्तदा मृषात्वमेव स्यादित्यादि किं विस्मर्यते? इत्याशङ्कायामाह - समूहस्य सामान्यत एकीकृतस्यापि विशेषार्पणया विभेदाच्चेति । अयं भावो यद्यपि सङ्ग्रहनयाभिप्रायेण विशेषविनिर्मोकेण विवक्षितसमानपरिणामोपरागेण च समूह एक एव, समानपरिणामस्यैकत्वात, विवक्षितसामान्यधर्मावच्छेदेन च जीवमात्रघटितत्वस्य विसंवादेन भ्रमजनकत्वादसत्यत्वं तथापि स्थलव्यवहारनयाभिप्रायेण सामान्यधर्मविनिर्मोकेण विशेषधर्मोपरागेण च स एव समूहो विवक्षितविशेषधर्मानुसारेणाऽनेकधा विभज्यते, विशेषधर्माणामनेकत्वात् । पुरोवर्तित्वादिसामान्यधर्मावच्छेदेन बाधितसंसर्गकविधेयतावच्छेदकावच्छिन्नप्रकारताकशाब्दबोधजननेऽपि। विवक्षितविशेषधर्मसामानाधिकरण्येनाऽबाधितसंसर्गका अवधारण न होने से यह भाषा सर्वांश में सत्य नहीं है, किन्तु सत्यामृषा है - यही मानना तर्कसंगत है, जो कि आगममान्य भी है।
शंका :- न च. इति। हम प्रस्तुत स्थल में प्रतिनियत एकसंबन्धित्व का बोध मानते ही नहीं हैं। अर्थात् समूह में सिर्फ जीवसम्बन्धित्व का बोध हमें मान्य नहीं है किन्तु जीवाजीवसंबंधित्व का बोध हमें मान्य है। यह तो उभय के समूह में अबाधित ही है। अतः यह भाषा सत्य ही है न कि मृषा। यदि उभय के समूह में प्रतिनियत एकराशिसंबद्धत्व का इस वाक्य से बोध होगा तब तो यह भाषा मृषा ही बन जायेगी, क्योंकि जीव और अजीव दोनों से घटित समूह में सिर्फ जीवसंबद्धत्व या सिर्फ अजीवसम्बद्धत्व तो बाधित ही है। समूह सिर्फ प्रतिनियत एक राशि से घटित नहीं है, किन्तु उभय से ही घटित है। अतः प्रतिनियत एक राशिसम्बद्धत्व का बोध मानने पर यह भाषा मृषा ही बन जायेगी और सामान्यत एक राशिसम्बद्धत्व का बोध मानने पर वह भाषा सत्य ही बन जायेगी। मगर सत्यामृषा नहीं। किसी ने ठीक ही कहा है कि आगे कुआँ पीछे खाई।
* समूह एकात्मक भी है, अनेकात्मक भी है * . समाधान :- बोधसामग्री. इति । वाह! आप अपनी सामग्री से होनेवाले शाब्दबोध का भी इन्कार करने के लिए तैयार हो रहे हैं, क्योंकि आप कहते हैं कि - 'प्रतिनियत एकराशिसंबद्धत्व का बोध हमें मान्य ही नहीं है'। मगर यहाँ यह नादिरशाही नहीं चल सकती है। आपको प्रतिनियत एक राशि से सम्बद्धत्व का बोध मान्य हो या न हो - इसके बल पर उस वाक्य से शाब्दबोध नहीं होता है किन्तु शाब्दबोध तो अपनी सामग्री के बल पर ही होता है। जहाँ जिस प्रकार के शाब्द बोध की सामग्री रहेगी, वहाँ उस प्रकार का शाब्दबोध होगा - यह सर्वमान्य नियम है। प्रस्तुत में 'महानयं जीवराशिः' वाक्य में जिस प्रकार की आकांक्षा, समभिव्याहार आदि शाब्दबोध की सामग्री है उसके बल से श्रोता को इस वाक्य से समूह में सिर्फ जीवसंबद्धत्व का ही बोध होता