Book Title: Bhasha Rahasya
Author(s): Yashovijay Maharaj, 
Publisher: Divyadarshan Trust

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Page 264
________________ * आंशिकसत्यत्वमपि प्रसिद्धव्यवहारानुसारेण * २३३ न' मृषात्वमिति पर्यालोचनीयं सूक्ष्मेक्षिकया नयनिपुणैः। एवमन्यत्राऽप्यवसेयम् ४।६१।। उक्ता जीवमिश्रिता ।४। अथाऽजीवमिश्रितामाह 'साऽजीवमीसिया वि य, जा भन्नइ उभयरासिविसया वि। वज्जित्तु विसयमन्नं, एस बहुअजीवरासि ति।।६२।। स्पष्टा । नवरं बहुषु मृतेषु स्तोकेषु च जीवत्सु शंखादिषु 'महानयमजीवराशिः' इत्येवोदाहरणम् ५||६२।। उक्ताऽजीवमिश्रिता। अथ जीवाजीवमिश्रितामाहकविधेतावच्छेदकावच्छिन्नप्रकारताकशाब्दधीजननेनांऽऽशिकसत्यात्वस्याऽनपायात्सत्यामृषात्वमेव युक्तमित्याशयः। न मृषात्वमिति न सर्वथा मृषात्वमिति । मुद्रितप्रतौ तु - 'तन्मृषात्वमि'त्यशुद्धः पाठः । अन्यत्रापीति। अजीवमिश्रितादावपीति ।।६१।। उभयराशिविषयाऽपि = जीवाजीवसमूहविषयाऽपि । अन्यं = जीवाख्यं । शेषं स्फुटम् । बहुषु मृतेष्विति । इदं चोपलक्षणम् । तेनाऽल्पेष्वपि तत्कथने न क्षतिः । बहुत्वोपादानं च पूर्वोत्तरप्रतिपादितमिश्रत्वद्वयस्पष्टतार्थम् । यद्वा बाहुल्येन तथाप्रयोगानुसरणार्थं तदृष्टव्यम्। न ह्येकस्मिन् मृते शेषेषु बहुषु जीवत्सु 'महानयमजीवराशिः' इत्यस्यांऽऽशिकसत्यत्वं स्थूलव्यवहारनयोऽपि मन्यत इति ध्येयम्। 'महानयमजीवराशिरिति। अत्र च देशयोर्बाधाबाधाभ्यां भ्रमप्रमाजनकत्वेन सत्यासत्यत्वं पूर्वोक्तदिशा भावनीयम् । इत्येवेति। अत्र एवकारोऽयोगव्यवच्छेदार्थं न त्वन्ययोगव्यवच्छेदार्थमिति भावनीयम् ।।२।। है न कि सामान्यतः जीवसंबद्धत्व का। मगर प्रतिनियत एकराशिसंबद्धत्व का बोध होने पर भी वह भाषा मृषा नहीं है इसका कारण यह है कि - जैसे सामान्यदृष्टि से अनेक वस्तुओं के समूह में एकत्व का बोध होता है वैसे ही विशेष दृष्टि से समूह में अनेकत्व का भी बोध होता है। अर्थात्, विशेषधर्म पर दृष्टि केन्द्रित करने पर समूह एक - अखंडितरूप से भासित नहीं होता है मगर अनेकश: खंडशः ज्ञात होता है जिसके एक अंश में सिर्फ जीवसंबद्धत्व अबाधित है और अन्य अंश में सिर्फ अजीवसंबद्धत्व होने से जीवसंबद्धत्व बाधित है। इस तरह विशेष दृष्टि से समूह के एक अंश में भ्रमजनकत्व और शेष अंश में प्रमाजनकत्व होने से यह भाषा सर्वथा मृषा नहीं है मगर सत्यामृषा ही है - यह सिद्ध होता है। यहाँ भाषा में सर्वथा सत्यत्व को दूर करने के लिए प्रतिनियत एकराशिसंबद्धत्व का समूह में भान माना गया है और सर्वथा मृषात्व को हटाने के लिए सिर्फ जीवसंबद्धत्व का अखंड और एक समूह में नहीं मगर समूह के खंड = अंश में भान माना गया है। इस तरह दो हेतुओं से विवरणकार ने सत्यामृषात्व की सिद्धि की है। इस तरह इस संबंध में नयनिपुण पुरुषों को समूह दृष्टि से विचार करने की विवरणकार सूचना देते हैं। अतिदेश करते हुए विवरणकार गाथा के विवरण के अंत में कहते है कि अजीवमिश्रित आदि भाषा में भी उपदर्शित रीति के अनुसार सूक्ष्म दृष्टि से विचार करना चाहिए।६१।। संक्षेप से जीवमिश्रित भाषा का निरूपण पूर्ण हुआ। अब क्रमप्राप्त अजीवमिश्रित भाषा, जो कि मिश्रभाषा का पाँचवाँ भेद है, ६२ वीं गाथा से बताई जाती है। गाथार्थ :- जीव और अजीवरूप उभयराशिविषयक भाषा जब अन्य विषय को छोड कर कही जाती है तब वह अजीवमिश्रित भाषा कही जाती है। जैसे कि - 'यह महान् अजीवसमुदाय है' ।६२ । * अजीवमिश्रित मिश्रभाषा - ५/३ * विवरणार्थ :- गाथार्थ स्पष्ट ही है। मूल गाथा में अन्य विषय को छोड कर ऐसा जो कहा है उसका अर्थ है - जीवविषय को छोड कर | शेष अर्थ हमने गाथार्थ में ही स्पष्ट रूप से बता दिया है। इसमें उदाहरण बताते हुए विवरणकार कहते हैं कि - शंख समुदाय को, जिसमें अनेक शंख मृत है और अल्प शंख जीवित है, उद्देश कर के 'यह बडा अजीवसमुदाय है' ऐसा जब विधान किया जाता है वह भाषा अजीवमिश्रित भाषा के उदाहरण में हम ले सकते हैं। यहाँ शंखसमुदाय के मृत शंख में संवाद होने से १. तन्मृषात्वमिति - मुद्रितप्रतौ पाठोऽशुद्धः। १. साऽजीवमिश्रिताऽपि च या भण्यते उभयराशिविषयाऽपि। वर्जयित्वा विषयमन्यमेषो बह्वजीवराशिरिति ।।६२।।

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