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* हास्योत्पादविवेकस्थानप्रदर्शनम् *
२०९ खलु निश्चये, सा हास्यनिःसृता हास्यं नाम हास्यमोहोदयजनितः परिणामविशेषः । तत्र परिणतः = हास्यपरिणतः, यन्मृषां बाधिताथ कथयेत्, यथा प्रेक्षकहास्यार्थ विलोकमानस्त्रीजनमित्रादिहास्योत्पादनकृते कान्दर्पिकाणां, दृष्टेऽपि वस्तुनि न दृष्टमिति वचनं, तथावचन एव परस्य प्रवृत्तिनिवृत्त्या हास्योत्पत्तेः ७।।४८ ।। उक्ता हास्यनिःसृता। अथ भयनिःसृतामाह
'सा य भयणिस्सिया खलु, जं भासइ भयवसेण विवरीयं ।
जह णिवगहिओ चोरो नाहं चोरोत्ति भणइ नरो।।४९।। भाषामित्यस्याऽनिबद्धस्य ग्रहणात् यां = भाषां, भयवशेन विपरीतां = असदां, भाषते सा च खलु भयनिःसृता, यथा
हास्यमोहोदयजनित इति । एतेन सम्यग्विभाव्य अवसरोचिताल्पस्मितादिना भाषणे नाऽसत्यत्वम्, मोहोदयजनितपरिणामविशेषाभावादिति व्यज्यते। बाधितार्थमिति। क्रोधादिनिःसृता सर्वा भाषा मृषैव । हास्यनिःसृतं बाधितार्थकं वचनमेवाऽसत्यं न तु सर्वमेव, हास्यस्य नोकषायभेदत्वादतो मूले 'मोसं' इति पदमत्रोपात्तम् । यद्वा हास्यस्यापि मोहनीयत्वाऽविशेषात् तन्निःसृताः सर्वा अपि भाषा मृषैव यथोपयोगं नयविशेषाभिप्रायेण व्याख्यानस्य सर्वनयसमूहात्मके भगवत्प्रवचने न्याय्यत्वादिति सूक्ष्मेक्षिकया दृष्टव्यम् । तथावचन एवेति। तथाविधविसंवादिवचने सत्येवेत्यर्थः | प्रवृत्तिनिवृत्त्येति। वस्तुग्रहणादिरूपप्रवृत्तेर्निवर्तेनेनेत्यर्थः । हास्योत्पत्तेर्दर्शनादिकारणानि ज्ञात्वा परिहर्त्तव्यानि यतिनेति प्रकृते भावः । तदुक्तं स्थानाङ्गे - 'चउहिं ठाणेहिं हासुप्पत्ती सिता तं जहा - पासित्ता, भासेत्ता, सुणेत्ता, संभारेत्ता त्ति । (स्था. ४/१/२६९)||४८।। __ अनिबद्धस्य ग्रहणादिति। मूलग्रन्थेऽनुपात्तस्याऽप्यर्थवशेन ग्रहणादिति भावः ।।४९ ।।
* हास्यनिसृत मृषाभाषा - ७/२ * विवरणार्थ :- हास्य का अर्थ है नोकषायात्मक हास्यमोहनीय कर्म के उदय से उत्पन्न विशेष परिणाम। उसमें परिणत हो कर जो मृषा कथन, जिसका अर्थ बाधित होता है, किया जाता है वह हास्यनिःसृत असत्यभाषा है। यहाँ खलु शब्द निश्चय अर्थ में है अर्थात् हास्य में परिणत हो कर जो विसंवादी भाषा बोली जाती है वह निश्चितरूप से हास्यनिःसृत भाषा ही है, जो असत्य भावभाषा के सप्तम भेद में परिगणित है। हास्यनिःसृत मृषाभावभाषा का लक्षण बताने के बाद विवरणकार हास्यनिःसृत भाषा के दृष्टांत को बताते हुए कहते हैं कि कान्दर्पिक यानी चेष्टाविशेष से हास्यकारी नट, विदूषक आदि लोग अपने को देखनेवाले स्त्रीवर्ग, मित्र आदि के हँसाने के उद्देश से किसी वस्तु को देखने पर भी - 'मैंने यह चीज नहीं देखी है' - इत्यादि वचन कहते हैं जो कि हास्यनिःसृत भाषा के लक्षण से आक्रान्त होने से हास्यनिःसृत भाषारूप ही है। आशय यह है कि प्रेक्षक के देखते हुए ही विदूषक आदि किसी व्यक्ति की अमुक चीज ग्रहण करता है और बाद में जब वह अनजान व्यक्ति विदूषक को पूछती है कि - 'तुमने मेरी अमुक चीज देखी हैं? तब विदूषक प्रेक्षकवर्ग को हँसाने के लिए उस वस्तु के देखने का भी साफ साफ इन्कार करता है जिसके कारण वह व्यक्ति उस खोई हुई चीज की शोधनादि प्रवृत्ति अन्यत्र करती है और इसको देख कर प्रेक्षक लोग हँसने लगते हैं। यहाँ प्रेक्षकों को हँसाने के लिए वैसा ही वचन बोलना आवश्यक है। वैसा प्रत्यक्ष से बाधित वचन बोलने पर ही प्रेक्षक लोक हँसते हैं। अतः यह भाषा हास्यनिःसृत भाषा कही जाती है।।४८।।
हास्यनिःसृत भाषा का निरूपण पूर्ण हुआ। अब प्रकरणकार ४९वीं गाथा से अवसरोचित भयनिःसृत भाषा का, जो कि मृषा भाषा ८ वाँ भेद है, निरूपण कर रहे हैं।
गाथार्थ :- भय के निमित्त से जो विपरीत वचन कहा जाता है वह भयनिःसृत भाषा है। जैसे कि राजा से पकडा गया चोर मार-पीट-फाँसी आदि सजा के भय से न्याय की कचेरी में कहता है कि - मैं चोर नहीं हूँ - इत्यादि वचन भयनिःसृत भाषा का उदाहरण है।४९।
* भयनिःसृत मृषाभाषा ८/२ * विवरणार्थ :- मूल गाथा में 'भाषां' इस द्वितीया विभक्तिवाले पद का ग्रहण नहीं किया गया है जिसका ग्रहण यहाँ अर्थ के १ सा च भयनिःसृता खलु यां भाषते भयवशेन विपरीताम् । यथा नृपगृहीतश्चौरो नाहं चौर इति भणति नरः।।४९।।