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२१६ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.२. गा. ५३
० निश्चय-व्यवहारानुवेधोपदर्शनम् ० सक्षेपेऽप्यनतिविस्तर सङ्क्षपरुचि'नयाभिप्रायसिद्धोऽनादिर्दशधा विभागः यथाप्रयोगमेव प्रयोगार्हः, तथैव व्यवहारसिद्धेरिति ।।५३ ।।
भङ्ग्यन्तरेण चतुर्द्धाऽपि मृषाभाषाविभागामाहस्वरूप-फलापेक्षया राग-द्वेष-मोहान्तर्भाव इति प्रतिपाद्यते भवद्भिः तीति । मोहश्चात्र मिथ्यात्वमोहरूपोऽज्ञानात्मको वा ग्राह्यः। सङ्ग्रहाभिप्रायेण त्रिधा विभागसझेप इति। शेषकारणानां रागादित्रितयेण सङ्ग्राहकस्य सङ्ग्रहनयस्याभिप्रायेण दशविधमृषाभाषाया राग-द्वेष-मोहनिःसृतभाषात्वरूपेण त्रिधा मृषाभाषाविभागसङ्क्षपाऽङ्गीकरण इत्यर्थः । इदमपि अपरसङ्ग्रहनयाभिप्रायेणोक्तम् । परसङ्ग्रहनयाभिप्रायेण राग-द्वेषयोरपि मोहप्रकृतिकत्वाऽपेक्षया मोहे सङ्ग्रहात् 'मोहनिःसृतभाषाया एकविधाया एवाङ्गीकार इति निगूढार्थः । अपीति। परोदिताङ्गीकारपूर्वकविशेषद्योतनार्थोऽपिशब्दः । अनतिविस्तरसझेपरुचिनयाभिप्रायसिद्ध इति । नातिविस्तरेण नाऽप्यतिसक्षेपेण स्वविषयप्रतिपादने रुचिर्यस्य नयस्येति अनतिविस्तरसङ्क्षपरुचिनयः व्यवहारनय इत्यर्थः, प्रक्रमे च निश्चयानुगृहीतव्यवहारनयो ग्राह्यः, अप्रशस्तक्रोधनिःसृतायाः सर्वस्या अपि भाषाया असत्यत्वप्रतिपादनपरत्वात, तस्य तथाविधव्यवहारोपपादनाभिप्रायेण सिद्धोऽनादिर्दशविधो मृषाभाषाविभागः। यथाप्रयोगमेवेति। प्रदर्शितदशविधविभागप्रयोगानतिक्रमेणैव प्रयोक्तुमर्हति। अत्र हेतुमाह तथैव व्यवहारसिद्धेरिति। अत्रेतिशब्दो हेतुवाचकः, तदुक्तं हलायुधकोशे - 'इतिशब्दः स्मृतो हेतौ प्रकारादिसमाप्तिषु। (हला.को.५/८८७) इति। दशधा विभागाङ्गीकार एव तथाविधानादिव्यवहारोपपत्तेरिति हेतोर्दशधा विभागस्यैव युक्तत्वं सिध्यति । व्यवहारश्चात्र प्रस्तुताभिमतशास्त्रीयव्यवहाररूपो ग्राह्यः, अन्यथा त्वन्यव्यवहाराणामपि प्रकार का मृषाभाषा का विभाग बताया गया है वह अनुचित है। बिना कारण विभागगौरव करना कैसे समीचीन होगा?
* मृषाभाषा का दशविध विभाग ही युक्तिसंगत है * — समाधान :- तथापि. इति । संग्रहनय के अभिप्राय से असत्यभाषा विभाग त्रिविध हो सकता है, क्योंकि संग्रहनय वस्तु का संग्रह = संकोच = संक्षेप करता है। अतएव उसको संग्रहनय कहा जाता है। मगर प्रस्तुत में असत्यभाषा के तीन भेद बताना उचित नहीं है, क्योंकि संग्रहनयाभिमत असत्यवचनविभागनिर्देश से व्यवहार की उपपत्ति नहीं हो सकती है। असत्यवचनविषयक व्यवहार की सिद्धि तो व्यवहारनयसम्मत अनादिनिर्देश-सिद्ध दशविध विभाग से ही हो सकती है। तात्पर्य यह है कि व्यवहारनय अत्यंत विस्ताररुचिवाला भी नहीं है और अत्यंत संक्षेपरुचिवाला भी नहीं है किन्तु मध्यम रूचिवाला ही है। अत्यंत विस्तार से या अतिसंक्षेप से व्यवहार नहीं हो सकता है। अतएव यहाँ न तो अतिविस्तार से मृषावचन के अपरिमित भेद बताये गये हैं और न तो अतिसंक्षेप से तीन भेद बताये गये हैं। मृषाभाषा के दशविध विभाग का प्रयोग, जो कि मध्यमरुचिवाले व्यवहारनय के अभिप्राय से प्रसिद्ध है, वह अनादि है। मृषावचन के विभाग का वचनप्रयोग, मध्यमरुचिनय के अभिप्राय से प्रसिद्ध अनादिकालीन प्रयोग के अनुसार ही करना युक्तिसंगत है, क्योंकि मृषावचन के दशविध विभाग से ही तादृश व्यवहार की सिद्धि होती है।
इस गाथा का आशय यह है कि संग्रह नय अपनी अपेक्षा से सत्य ही होने से मषावचन के त्रिविध विभाग का संक्षेप से प्रदर्शन सत्य है। फिर भी तादृश संक्षिप्तविभागप्रदर्शन तथाविधव्यवहार का उपपादक न होने से यहाँ मृषाभाषा के दशविध विभाग का प्रदर्शन किया गया है। मध्यमरुचिवाले नय के अभिप्राय से प्रदर्शित विभाग से ही तथाविध व्यवहार की सिद्धि होने से मध्यम विभाग निर्देश ही समीचीन है। ५४वी गाथा से प्रकरणकार भिन्न पहलू से मृषाभाषा के चार भेदों को भी बताते हैं।
गाथार्थ :- सद्भाव का निषेध, वस्तु में असद्भूत का उद्भावन, अर्थान्तर और गर्दा - इस तरह मृषाभाषा के चार भेद भी हैं।५४।
* मृषाभाषा के चार भेद * विवरणार्थ :- अन्य अपेक्षा से यहाँ जो मृषाभाषा के चार भेद बताये जा रहे हैं इनमें प्रथम भेद है सदभूत का निषेध । यानी धर्मिमात्र के अभाव का प्रतिपादन करना । जैसे कि - जीव नहीं है, पुण्य नहीं है,, पाप नहीं है, इत्यादि वचन जो पारमार्थिक जीव, पुण्य, पाप का निषेधक होने से सद्भावनिषेधरूप मृषाभाषा के प्रथम भेद में परिगणित है।
१. मुद्रितप्रतौ कप्रतौ च - 'विस्तरं सं' - इति पाठोऽशुद्धः। २. मुद्रितप्रतौ - चितयाभि - इति पाठोऽशुद्धः ।