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२१४ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.२. गा. ५३
० दशविधविभागस्थापनप्रयास: ० 'रागेण व दोसेण व मोहेण व भासई मुसं भासं। तहवि दसहा विभागो अणाइणिद्देससंसिद्धो।।५३।।
रागेण वा द्वेषेण वा मोहेन वा भाषते मृषां भाषाम् । यदुक्तम् - 'रागाद्वा द्वेषाद्वा मोहाद्वा वाक्यमुच्यते ह्यनृतम् । यस्य तु नैते दोषास्तस्यानृतकारणं किं स्यात् ।। ( ) इति । इदं चावधारणमितरासाधारणकारणनिषेधार्थम्, क्रोधभयादिकषायनोकषायाणां द्वेषे, कार्यतावच्छेदकधर्मभेदस्य न्याय्यत्वम् । मृषाभाषाकारणताच्छेदकधर्माश्च न केवलं क्रोधत्वादयोऽपि तु करणाऽपाटवत्व-प्रमादत्वानाभोगत्व-सहसाकारत्वादयोऽपि विद्यन्ते। ततश्च क्रोधनिःसृतभाषादिवत् करणापटुतानिःसृतभाषा, प्रमादनिःसृतभाषा इत्यादिमृषाभाषानिर्देशस्याऽपि न्याय्यत्वात् तेषां क्रोधनिःसृतादावनन्तर्भावात्। अनेन न्यूनतादोषो ध्वन्यते । न च करणापटुता-प्रमादादीनां मोहेऽन्तर्भावविवक्षेति वाच्यम तथा सति क्रोध-मान-भयादीनां द्वेषत्वाक्रान्तत्वेन माया-लोभ-हास्यादीनां रागत्वाक्रान्तत्वेन यथाक्रमं द्वेषरागयोरन्तर्भावेन रागनिःसृतभाषा द्वेषनिःसृतभाषेत्येवं निर्देशप्रसङ्गेन विभाजकतावच्छेदकधर्माणां परस्परसामानाधिकरण्यरूपस्याऽऽधिक्यदोषस्य वज्रलेपायितत्वापत्तेः, मोहनिःसृतभाषाया अप्रदर्शनेन न्यूनताबुभुक्षितराक्षसीप्रसरणप्रसङ्गाच्चेत्येकं सन्धित्सतोऽपरत्र प्रच्याव्यत इति पूर्वपक्षाशयं 'रागेणव'त्ति श्लोकार्धेनोपन्यस्य नयविशेषापेक्षयाऽङ्गीकृत्य च नयमतभेदेन पश्चार्द्धन प्रकरणकारः समाधास्यति ।
यस्येति। जिनस्येत्यर्थः। अनृतकारणं किं स्यात्? नैव स्यादित्यर्थः । अयं वाचकमुख्याशयो यदुत रागद्वेषमोहानामेवानृतवचनबीजत्वेन तत्क्षयवतो भगवतो वचनेऽनृतत्वशङ्कानुपपत्तिः, रागादिप्रतियोगिकाभावस्याऽसत्यभाषाकारणविशेषाभावकूटरूपत्वेनासत्यवचनकारणसामान्याभावसाधकत्वात् । नन्वेवं सति रागाद्यतिरिक्तस्य क्रोधादिकरणापाटवादेर्मेषावादकारणत्वं न स्यादित्याशङ्कायामाह - इदं चेति। इतरासाधारणकारणनिषेधार्थमिति। कारण हैं, परस्परभिन्न-विजातीय होने से क्रोधनिःसृत, माननिःसृत आदि अलग अलग मृषाभाषा के भेद बताये गये हैं। मगर यह ठीक नहीं है, क्योंकि जैसे मृषाभाषा के कारण क्रोध आदि है वैसे ही करणापटुता यानी सम्यक् शब्दोच्चारण में जिह्वेन्द्रिय की असमर्थता आदि भी मृषाभाषा के कारण हैं जिनका क्रोध-मान आदि में समावेश नहीं हो सकता है। अतः क्रोधादिनिःसृत भाषा की तरह करणापटुतानिःसृत भाषा इत्यादि निर्देश करना आवश्यक है। अतः मृषाभाषा के दश भेद है ऐसा कहना ठीक नहीं है।
अन्तर्भवति च. इति। इसके अतिरिक्त दूसरी बात यह है कि - यदि आप करणापटुता आदि मृषावादकारणों का मोह में अंतर्भाव करोगे तब तो आपसे बताये गये क्रोध आदि कारणों का भी राग और द्वेष में अंतर्भाव हो सकता है। अतः राग-द्वेष-मोहनिःसृत भाषा से अतिरिक्त कोई भी मृषाभाषा न हो सकेगी। तब भी मृषाभाषा के दश प्रकार की संगति न हो सकेगी। अतः मृषाभाषा का दशविध विभाग ठीक नहीं है।
ग्रंथकार पूर्वपक्ष की उपर्युक्त शंका का ५३वीं गाथा के पूर्वार्द्ध से निरूपण कर के उत्तरार्ध से दशविध विभाग ही मुनासिब है इसकी सिद्धि कर रहे हैं।
गाथार्थ :- कोई भी पुरुष राग से या द्वेष से या मोह से मृषा भाषा को बोलता है फिर भी मृषाभाषा का दशविध विभाग अनादिनिर्देशसिद्ध है।५३।
विवरणार्थ :- राग-द्वेष-मोह, इन तीनों में से किसी एक के कारण मृषाभाषा बोली जाती है, क्योंकि कहा गया है कि - "राग से या द्वेष से या मोह से असत्य बोला जाता है। मगर जिस जिनेश्वर भगवंत में राग द्वेष-मोहरूप तीन दोष नहीं है उसको मृषा बोलने का कारण क्या होगा?" अर्थात् राग, द्वेष और मोह से रहित व्यक्ति कभी भी असत्यवचन का प्रयोग नहीं करती है, क्योंकि रागादि तीन से अतिरिक्त असत्य वचन का कारण ही नहीं है।
* राग, द्वेष, मोह - मृषाभाषा के असाधारण कारण * इदं च. इति । यहाँ यह शंका हो कि - "असत्यभाषा के कारण रागादि तीन ही हैं तब पूर्व में जो बताया है कि - क्रोध, मान आदि निमित्तक भाषा क्रोधनिःसृतभाषा, माननिःसृतभाषा इत्यादिरूप से कही जाती है - वह कैसे संगत होगा? दूसरी बात यह भी
१. रागेण वा द्वेषेण वा मोहेन वा भाषते मृषां भाषाम् । तथाऽपि दशधा विभागोऽनादिनिर्देशसंसिद्धः । ।५३।।