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* मृषाभाषाकारणान्तर्भावविचार * मायाहास्यादिकषायनोकषायाणां च रागे एवान्तर्भावात्, पराभिमतानां भ्रम-प्रमाद-विप्रलिप्साकरणापाटवहेतूनामपि मध्ये, अतस्मिंस्तदध्यवसायरूपस्य भ्रमस्य, चित्तानवधानतारूपप्रमादस्य, इन्द्रियाऽसामर्थ्यरूपकरणाऽपाटवस्य च फलतो मोहे विप्रलिप्सायाश्च द्वेष एवान्तर्भावात्।
यद्येवं तर्हि विधैव विभागः क्रियतामत आह- तथापि दशधा विभागोऽनादिनिर्देशसंसिद्धः । अयं भावः, सङ्ग्रहाभिप्रायेणत्रिधा विभागरागादित्रितयातिरिक्तेऽसत्यवचनासाधारणकारणत्वनिषेधार्थमिति त्रितयभिन्नेऽसत्यवचनसाधारणकारणत्वसत्त्वेऽपि न निषेधानुपपत्तिरिति भावः | रागादेरसाधारणकारणत्वाभिधानं तु क्रोधादीनां मृषावादकारणत्वेनाऽभिमतानां हेतु-स्वरूपफलान्यतमापेक्षया रागादित्रितयान्यतमेऽन्तर्भावविवक्षणात । तदेव प्रदर्शयति क्रोधभयादिकषायनोकषायाणामिति । अत्र च प्रथमं द्वन्द्वसमासः तदनन्तरं बहुव्रीहिसमासः ततश्च कर्मधारय इति । एवमेवाग्रेऽपि बोध्यम् । ततश्च क्रोधादिकषाययोर्भयादिनोकषायाणामित्यर्थः । द्वेष इति। तेषां द्वेषजन्यत्वेन कार्ये कारणोपचारमाश्रित्य द्वेषान्तर्भावो विवक्षितः । राग इति माया-लोभ-हास्यादीनां रागजन्यत्वेन राग एवान्तर्भावविवक्षा तत एव । प्रेम्णः स्वरूपत एव रागत्वं द्वेषस्य च स्वरूपत एव द्वेषत्वमिति तत्प्रदर्शनं न कृतम् । अनवधानतेति विषयान्तरसञ्चार इत्यर्थः । इन्द्रियासामर्थ्येति । सामथ्य चात्र सम्यक्शब्दोच्चारणं प्रति जिह्वेन्द्रियस्य बोध्यम् । फलत इति फलमाश्रित्येति। श्रोतृणां मोहजनकत्वापेक्षया मोह एवान्तर्भावविवक्षा। विप्रलिप्सायाश्चेति। तस्या द्वेषहेतुकत्वेन द्वेषान्तर्भावविवक्षा। .... लब्धावकाशः परोऽधुना प्रत्यवतिष्ठते यद्येवं तहीति। यदि स्वपराभिमतानामसत्याभाषाहेतूनां यथासम्भवं हेतुहै कि मृषाभाषा के कारण रागादि की तरह करणापटुता, भ्रम, प्रमाद आदि भी है ही। तब 'मृषाभाषा के हेतु रागादि तीन ही है' यह वचन कैसे संगत होगा?" - तो यह समीचीन नहीं है। इसका कारण यह है कि यहाँ जो प्रतिपादन किया गया है कि - मृषाभाषा का कारण राग, द्वेष और मोह ही हैं, अर्थात् रागादि तीन से अतिरिक्त कोई भी मृषाभाषा का कारण नहीं है, वह असत्य भाषा के असाधारण कारण की अपेक्षा से बताया गया है। अर्थात् रागादि तीन ही मृषाभाषा के असाधारण कारण हैं। रागादि तीनों से अतिरिक्त कोई भी मृषाभाषा का आसाधारण कारण नहीं है - इस तात्पर्य से अवधारण का प्रदर्शन किया गया है। मतलब कि राग, द्वेष और मोह से अतिरिक्त जो कोई भी मृषावाद के कारणरूप से प्रसिद्ध हो या इष्ट हो उसका राग, द्वेष और मोह में ही समावेश हो जाता है। यह बात ठीक ही है, क्योंकि क्रोध और मान कषाय तथा भय आदि नोकषाय का द्वेष में ही अंतर्भाव हो जाता है तथा माया, लोभ कषाय और हास्य आदि नोकषाय का राग में ही समावेश हो जाता है। अन्य लोग को असत्यवचन के कारणरूप में भ्रम, प्रमाद, विप्रलिप्सा और करणापटुता अभिमत हैं जिनमें से भ्रम, प्रमाद और करणापटुता का मोह में और विप्रलिप्सा का द्वेष में समावेश हो जाता है। अतः राग, द्वेष और मोह से अतिरिक्त कोई भी मृषावाद का असाधारण कारण नहीं है - यह सिद्ध हो जाता है। अन्य लोगों को मृषावाद के कारण रूप से अभिमत में प्रथम भ्रम है। जो जैसा न हो वैसा उसमें उसका बोध होना यह भ्रम शब्द का अर्थ है। जैसे कि आत्मा एकान्त नित्य नहीं है फिर भी उसमें एकान्तनित्यता का बोध होना वह भ्रम है। यह भ्रम व्यामोह का उत्पादक होने से फलतः मोहस्वरूप ही है। प्रमाद, जो कि अन्य लोगों को मृषावाद के कारणरूप से अभिमत है, चित्त की अनवधानतास्वरूप है यानी दत्तचित्तता का अभाव या अन्य विषय में मन की प्रवृत्ति यह प्रमादशब्द का अर्थ है। वह भी मोहोत्पादक होने से फलतः मोहस्वरूप ही है। वैसे करणापटुता का अर्थ है इंद्रिय का असामर्थ्य अर्थात् स्पष्ट शब्दोच्चारण करने में जीभ का असामर्थ्य करणापाटवशब्द का वाच्यार्थ है। वह भी श्रोता को व्यामोह पेदा करने से मोहस्वरूप ही फलित होता है। विप्रलिप्सा का अर्थ है दूसरों को ठगने की इच्छा। यह विप्रलिप्सा द्वेषजन्य होने से कार्य में कारण का उपचार कर के द्वेषस्वरूप सिद्ध होती है। अतः स्वसमयाभिमतं क्रोधादि कारण का और परसमयाभिमत भ्रम आदि कारण का साक्षात् या परंपरा से राग, द्वेष और मोह में समावेश हो जाने से राग, द्वेष और मोह ही असत्यभाषा के असाधारणकारण है - यह सिद्ध होता है।
शंका :- यद्येवं. इति । यदि राग, द्वेष और मोह ही मृषाभाषा के असाधारण कारण है तब तो असत्यभाषा का विभाग तीन प्रकार का बताना ही उचित होगा। तात्पर्य यह है कि - रागनिःसृत, द्वेषनिःसृत और मोहनिःसृत भाषा ये तीन ही असत्य भाषा के भेद हैं - ऐसा असत्य भाषा के विभाग का निर्देश करना उचित है, क्योंकि रागादि तीन ही असत्य भाषा के प्रधान कारण हैं। अतः दश