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* विभागभेदकादिविचारः **
'न त्वं नृप' इत्यादिक्रोधनिःसृतं वचनं सत्यमेव । न चाऽत्र नृपपदस्य प्रशस्तनृपे लक्षणा, अन्यत्राऽपि तत्प्रसक्तेरित्येवमन्यत्राऽप्यूह्यम् ।। ५२ ।
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नन्वयं कारणभेदकृतः कार्यविभागः कारणानि च करणाऽपाटवादीन्यतिरिच्यन्तेऽपि अन्तर्भवन्ति च रागद्वेषमोहेष्वपीत्यत आह ननु प्रशस्तंपरिणामपर्यन्तानुधावनाऽपेक्षया नृपपदस्य प्रशस्तनृपे लक्षणावृत्त्यङ्गीकारस्यैव युक्तत्वम्, प्रशस्तपरिणामे मृषाभाषा सामग्रीविघटकत्वाकल्पनात् । तथा च 'न त्वं नृप' इत्यस्य 'न त्वं प्रशस्तनृप' इत्येवमबाधिताऽर्थस्य लक्षणया लाभेन सत्यत्वस्याऽक्षतत्वमित्याशयेनाऽऽशङ्कते न चेति । समाधत्ते अन्यत्राऽपि तत्प्रसक्तेरिति । अप्रशस्तकषायस्थलेऽपि लक्षणाप्रसक्तेस्सत्यत्वाऽऽपत्तिरित्याशयः । पुत्रं प्रति पितुरप्रशस्तक्रोधप्रयुक्तस्य 'न त्वं मे पुत्र' इतिवचनस्याऽपि सत्यत्वापत्तिः, पुत्रपदस्य प्रशस्तपुत्रे लक्षणाया सुवचत्वात् अन्यथाऽर्धजरतीयप्रसङ्गादित्यजां निष्काशयतः क्रमेलकापातः । अन्यत्राऽप्यूह्यमिति । माननिःसृतादिस्थलेऽपि विभावनीयमित्यर्थः तच्च सुगममिति न प्रदर्श्यतेऽस्माभिः ।
कारणभेदकृत इति । विभागश्च क्वचिज्जातिभेदकृतः क्वचिदुपाधिभेदकृतः क्वचिद्विशेषभेदकृतः क्वचिद्गुणभेदकृतः, क्वचित्कार्यभेदकृतः, क्वचित्कारणभेदकृतः, क्वचित्प्रतियोगिभेदकृतः क्वचित्सम्बंधादिभेदकृतः, विभागोऽपि कार्यविभागः, कारणविभागः, पदार्थविभागो, द्रव्यविभागो, गुणविभागः, कर्मादिविभाग इत्येवमनेकधा भिद्यते । प्रकृते च भाषायाः कार्यत्वविवक्षणे भाषाविभागः कार्यविभागः । स च कारणभेदेन भवति । अत उक्तं 'कारणभेदकृतः कार्यविभाग इति । क्रोधादिकारणभेदकृतः मृषाभाषात्मककार्यविभाग इत्यर्थः । ततः किमित्याह कारणानीति । अतिरिच्यन्तेऽप्यन्तर्भवन्ति चेति । अत्र पूर्वपक्षिण इदमाकूतम् कार्यविभागस्य कारणवैजात्यप्रयुक्तत्वात् कारणतावच्छेदकधर्मभेदेन
शंका :- न चात्र इति । अप्रशस्त कषाय से प्रयुक्त भाषा मृषा है और प्रशस्त कषाय से प्रयुक्त भाषा सत्य है इस कल्पना की अपेक्षा तो नृपपद की प्रशस्त नृप में लक्षणा करना ही उचित है। तात्पर्य यह है कि- 'तूं राजा नहीं है' इस वाक्य में राजा पद का अर्थ है प्रशस्त राजा = नीतिसंपन्न अच्छा राजा। तब उस वाक्य का अर्थ यह होगा कि 'तुम नीतिमान राजा नहीं हो।' यह वचन तो सत्य ही है, क्योंकि जिनशासन के प्रति बिना कारण के द्वेष रखनेवाला नीतिसंपन्न कैसे हो सकता है ? इस तरह उपर्युक्त वाक्य में सत्यत्व का समर्थन लक्षणा से ही हो सकता है तब उसको छोड़ कर प्रशस्त परिणाम की और दौडना कैसे उचित होगा?
* मृषा भाषा को लक्षणा से सत्य बताना अयुक्त है*
समाधान :- अन्यत्रापि इति । जनाब! एक ही लकडी से सब को हाँकना कैसे उचित होगा? क्योंकि 'गंगायां घोषः' इत्यादि स्थल में प्रसिद्ध लक्षणा का यहाँ आश्रय करने पर तो प्रशस्तक्रोधप्रयुक्त भाषा की तरह अप्रशस्तक्रोधप्रयुक्त भाषा भी सत्य सिद्ध हो जायेगी। आशय यह है कि नृपपद की जैसे न्यायसंपन्न राजा में लक्षणा कर के सत्यत्व की सिद्धि की जाती है ठीक वैसे ही 'तुम मेरे पुत्र नहीं हो' इस वाक्य में, जो कि अप्रशस्तक्रोधाविष्ट पिता के द्वारा अपने पुत्र के प्रति प्रयुक्त है, भी पुत्र पद की 'प्रशस्त पुत्र में लक्षणा करने से सत्यत्व की आपत्ति होगी, क्योंकि तब अर्थ यह प्राप्त होगा कि तुम मेरा अच्छा पुत्र नहीं हो - जो सत्य ही है। पिता को नाराज करनेवाला पुत्र सुपुत्र कैसे हो सकता है? इस तरह लक्षणा का आश्रय करने पर अप्रशस्तक्रोधकषायप्रयुक्त भाषा भी सत्य हो जायेगी मगर उसमें सत्यत्व नहीं है किन्तु असत्यत्व ही है। लक्षणा का स्वीकार एक स्थल में हो और दूसरे स्थल
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में न हो ऐसी कोई राजाज्ञा तो नहीं है। अतः दोनों ही स्थल में समानरूप से लक्षण की प्रवृत्ति होने से सत्यत्व की सिद्धि हो जायेगी। यह तो बकरे को निकालने पर उंट घूस गया। इस तरह मानकषायनिःसृत मृषाभाषा के स्थल में भी विचार करने की विवरणकार सूचना देते हैं । । ५२ ।।
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पूर्वपक्ष:- नन्वयं इति । सजातीय कारण से सजातीय कार्य की उत्पत्ति होती है और विजातीय कारण से विजातीय कार्य की उत्पत्ति होती है। अतः कार्यवैजात्य का प्रयोजक कारणवैजात्य है। यहाँ क्रोधनिःसृतभाषा, माननिःसृतभाषा इत्यादिरूप से जो के मृषाभाषारूप कार्य का विभाग किया गया है वह क्रोध, मान आदि कारणभेद से प्रयुक्त है। क्रोध, मान आदि, जो कि मृषाभाषा: १. कप्रतौ परिषामा इत्यशुद्धः पाठः ।