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२१२ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.२. गा. ५२
० प्रशस्तपरिणामस्य सत्यत्वसम्पादकत्वसाधनम् ० उपघातपरिणतः = पराशुभचिन्तनपरिणतः, इह = जगति जीवो यदलीकं = अनृतं, वचनं भाषते सा उपघातनिःसृता यथाऽचौरे 'चौर' इति, वचनमिति शेषः ।।५१।। उक्तोपघातनिःसृता। तदेवमुपदर्शिता दशाऽप्यसत्याभेदा इत्युपसंहरति। 'एवं दसहाऽसच्चा भासा उवदंसिया जहासुत्तं। एसा वि होइ सच्चा पसत्थपरिणामजोगेणं ।।५२ ।।
एवं = उक्तप्रकारेण, दशधा = दशभिः प्रकारैः, असत्या भाषा उपदर्शिता कथं? यथासूत्रं = 'समयपरिभाषामनुल्लंघ्येत्यर्थः । दर्शनीयशेषमाह एषा = उपदर्शिताऽसत्या, सत्याऽपि प्रशस्तपरिणामयोगेन । तथाहि - प्रवचनप्रद्विष्टनृपादिकं प्रति लब्धिमतो महर्षेः
अलीकमिति विशेषणमेतद्व्यवहारनयमतेन। निश्चयनयमते तूपलक्षणमेतन्न विशेषणम्। तेनोपघातपरिणामेन परसद्भूतदोषोद्भावनमप्युपघातनिःसृतत्वेनासत्यवचनमिति फलितमिति निश्चयनयाभिप्रायेण ज्ञातव्यम् । ___ यथासूत्रमिति। सूत्रलक्षणं चेदं प्रोक्तम् - 'सूत्रं नामाऽल्पाक्षरमसंदिग्धं सारवद् विश्वतो मुखम् । अस्तोभमनवद्यं च
सूत्रं सत्रविदो विदः।।" तदनतिक्रम्येति यथाश्रतार्थो न घटते, सूत्रे = समयेऽतिसक्षेपेण प्रदर्शितत्वात, अत्र च किञ्चिद्विस्तरेण नयमतभेदपुरस्सरमुक्तत्वादित्याह समयपरिभाषामनुल्लंघ्येति। सर्वनयसमूहात्मकस्य समयस्य तत्तन्नयपुरस्कृतां परिभाषामनतिक्रम्येत्यर्थः।।
ननु प्रशस्तपरिणामयोगेन मृषाभाषायाः सत्यत्वप्रतिपादनमसङ्गतम् । न हि सम्भवत्युत्पन्नाया असत्यायाः प्रशस्तपरिणामयोगेन सत्यत्वम्? स्वरूपस्य त्याजयितुमशक्यत्वात्। कथं चोत्पन्नाया असत्याया प्रशस्तपरिणामयोगः? निसृष्टाया भाषायाः क्षणिकत्वात् ततो व्यधिकरणत्वाच्चेति चेत्? मैवम्, तात्पर्यापरिज्ञानात्। प्रशस्तपरिणामस्य योगो यस्मिन् कषाये स प्रशस्तपरिणामयोगः, तेन प्रशस्तपरिणामयोगेन कषायेणेत्यत्र तात्पर्यम् । तृतीयार्थश्च प्रयोज्यत्वम्, तस्य द्रव्यतोऽसत्यायामन्वयः। ततश्च प्रशस्तपरिणामविशिष्टकषायप्रयुक्ता द्रव्यतोऽसत्या भावतः सत्या भवतीत्यर्थः । इदं च घृतं दहतीति न्यायेनोक्तम्। निश्चयतस्तु प्रशस्तपरिणामस्यैव सत्यत्वम्, निश्चयाङ्गभूतशुद्धव्यवहारेण च प्रशस्तपरिणामप्रयुक्तत्वेन क्रोधादिनिःसृतायाः सत्यत्वमित्यादि निपुणतरं निभालनीयम्।
* उपघातनिःसृत मृषाभाषा - १०/२ * विवरणार्थ :- यहाँ उपघात का अर्थ है अन्य का अशुभ चिंतन । अतः दूसरे को पीडा पहुँचाने के इरादे से जो मृषाभाषा बोली जाती है वह उपघातनिःसृत मृषाभाषा है। यह बात उदाहरण से स्पष्ट हो जाती है। जैसे कि अमुक पुरुष चोर नहीं है फिर भी उनको पीडा करने के उद्देश से 'यह चोर है' ऐसा कहना यह उपघातनिःसृत मृषावचन है। यद्यपि यहाँ मूलग्रंथ में 'वचनं' पद का उल्लेख नहीं किया गया है मगर उसका अर्थ के बल से यहाँ अध्याहार होने से लाभ होता है। तब अर्थ यह प्राप्त होगा कि - शाहुकार को भी पीडा, कलंक देने के आशय से कहा गया वचन कि 'यह चोर है' यह उपघातनिःसृत मृषाभाषा है।।५१।।
उपघातनिःसृत भाषा का निरूपण हुआ। इसके साथ ही असत्य भाषा के दस भेदों का निरूपण भी समाप्त हुआ। इसका उपसंहार ५२वीं गाथा से ग्रन्थकार करते हैं।
गाथार्थ :- इस तरह असत्य भाषा सूत्र के अनुसार दस भेद से बतायी गई। यह भी प्रशस्तपरिणामयुक्त कषाय से सत्य होती है।५२।
विवरणार्थ :- आगम की परिभाषा का उल्लंघन किये बिना दस प्रकार की मृषाभाषा का विवेचन हुआ। अब मृषाभाषा के संबंधी शेष = बचा हुआ वक्तव्य बताया जाता है। शेष वक्तव्य में यह दिखाना है कि - प्रदर्शित क्रोधनिःसृत आदि मृषा भाषा भी प्रशस्त परिणामयुक्त कषाय से प्रयुक्त होती है तब सत्य हो जाती है। यह बात उदाहरण से स्पष्ट हो जाती है। जैसे कि जिनशासन के द्वेषी राजा को सन्मार्ग लाने के और प्रवचन भी अप्रभ्राजना आदि को दूर करने के प्रयोजन से जब लब्धिवंत मुनि भगवंत क्रोधपूर्वक उस राजा को - तुम राजा ही नहीं हो - इत्यादि वचन कहे तब वह वचन प्रशस्तक्रोध से प्रयुक्त होने से मृषा नहीं है मगर सत्य ही है।