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२०८ भाषारहस्यप्रकरणे
स्त. २. गा. ४८
● अतिशयस्वरूपनिरुक्तिः 0
तु कर्मक्षयेण कृतार्थोऽयम्' इति भगवद्गुणमत्सरिणो वचनम् । द्वेषश्चात्र' मात्सय, क्रोधस्तु तदतिरिक्तोऽप्रीतिपरिणाम इति भेदः। शेषं प्राग्वत् ६ । ।४७ ।।
उक्ता द्वेषनिःसृता । अथ हास्यनिःसृतामाह
साहासणिस्सिया खलु हासपरिणओ कहेइ जं भासं । जह पेच्छगहासट्टा, दिट्ठेवि न दिट्ठमियवयणं । ।४८ ।।
अत्र सहजदेवकृतक्षायिकत्वोपाधिभेदावच्छिन्नभेदप्रतियोगीति सहजत्व-देवकृतत्व- क्षायिकत्वलक्षणधर्मविशेषत्रिकावच्छिन्नप्रतियोगिताकान्योन्याभावप्रतियोगीत्यर्थः, सहजदेवकृतक्षायिकान्यतम इति यावत् । अव्यासज्यवृत्तीत्यनुक्तौ परतीर्थप्रर्वत्तकमहेशमायाव्यादिसाधारण्यापातेनाऽतिशयत्वं व्याहन्येत । अव्यासज्यवृत्तित्वं चैकमात्रवृत्तिधर्मावच्छिन्नपर्याप्तिमत्त्वम्। परमार्थतस्त्वेक एवातिशय उपाधिभेदात्त्रिद्या भिद्यते यथैक एव योगो व्यापारभेदात्त्रिधा भिद्यत इत्यादि विभावनीयमित्यलं प्रसक्तानुप्रसक्तेन । वेति । एवकारसमभिव्याहारबलाद् वाकारो व्यवस्थायां न तु भजनायां, वैनयिकादिपाखण्ड्यभिप्रायापेक्षया 'विद्ययेति, अज्ञानिपाखण्ड्यभिप्रायापेक्षया चाऽतिशयेनेतीयं व्यवस्था भाति । प्रत्यन्तरे चाऽत्र - 'इन्द्रजालिकतया विद्यातिशयेनैव कार्यमैश्वर्य' मित्यशुद्धः पाठ इति ध्येयम् । कर्मक्षयेणेति घातिकर्मक्षयेणेत्यर्थः ।
ननु द्वेषस्य क्रोधरूपत्वेनैव क्रोधनिःसृतायामस्याः प्रवेशान्नैतत्पृथग्ग्रहणं न्याय्यमित्याशङ्कायामाह - द्वेषश्चाऽत्र मात्सर्यमिति। परगुणाद्यसहिष्णुता मात्सर्यम् । तदुक्तं सांख्यतत्त्वकौमुद्यां वाचस्पति मिश्रेण - 'परसंपदुत्कर्षो हि हीनसंपत्पुरुषं दुःखाकरोति' (सां. त. कौ. पृ. २) तदतिरिक्त इति । मात्सर्यातिरिक्त इति । एतेन मृषाभाषाविभाजकोपाधिसामानाधिकरण्यरूप आधिक्यदोषोऽपि निरस्त उपाधिसाङ्कर्यविरहादिति भावनीयम् ।
भगवंत के गुणों के प्रति मात्सर्य = ईर्ष्या रखते हैं, यह वचन कि 'यह तो इंद्रजालरूप माया = विद्या से या तो अतिशय से ही अष्टप्रातिहार्यादिस्वरूप ऐश्वर्य को बताता है, वास्तव में यह कर्मक्षय से कृतार्थ = कृतकृत्य नहीं है - द्वेषनिःसृत मृषावाद है, क्योंकि यह वचन द्वेषप्रयुक्त है और विसंवादी है। यदि बकरे की दाढी में से दूध निकले, तो भी श्रीजिनेश्वर भगवंत में माया - इंन्द्रजाल आदि का संभव नहीं है। अतः असद्भूत का उद्भावन करने से यह वचन नितांत मृषा ही है।
* द्वेष और क्रोध की भेदरेखा *
द्वेषश्च इति । यहाँ यह शंका करना कि 'द्वेष तो क्रोधस्वरूप ही है। अतः क्रोधनिःसृत भाषा में ही द्वेषनिःसृत भाषा का समावेश हो जायेगा। फिर क्रोधनिःसृत भाषा के अतिरिक्त द्वेषनिःसृत भाषा का ग्रहण करना ठीक नहीं है' - असंगत है। इसका कारण यह है कि - द्वेष और क्रोध एक नहीं है किन्तु अलग अलग है । द्वेष का अर्थ है मात्सर्य यानी अन्य के उत्कर्ष के प्रति असहिष्णुता । जब कि क्रोध का अर्थ है अप्रीतिरूप परिणाम जो कि मात्सर्य से अतिरिक्त है। क्रोध और द्वेष में इस तरह भेद होने क्रोधनिःसृत भाषा 'स्वतंत्ररूप से द्वेषनिःसृत भाषा का ग्रहण करना युक्तिसंगत ही है । ४७ ।।
इस तरह द्वेषनिःसृत भाषा का निरूपण पूर्ण हुआ । अब श्रीमद्जी ४८वीं गाथा से हास्यनिःसृत भाषा को, जो कि असत्य भाषा का ७ वाँ भेद है, बता रहे हैं।
गाथार्थ : :- हास्य से परिणत हो कर जो भाषा कही जाती है वह हास्यनिःसृत भाषा है। जैसे कि प्रेक्षकों को हँसाने के लिए कुछ वस्तु देखने पर भी 'मैंने यह नहीं देखा है' ऐसा कहा जाता हुआ वचन | ४८ |
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१ अत्र मुद्रितप्रतौ 'परगुणासहनमात्सर्य'
इत्येवं पाठः ।
२ अत्र मुद्रितप्रतौ अप्रीतिरूपः परिणाम इत्येवं पाठः सोऽपि शुद्धः ।
३ सा हास्यनिःसृता खलु, हास्यपरिणतः कथयति यां भाषाम् । यथा प्रेक्षकहास्यार्थ दृष्टेऽपि न दृष्टमिति वचनम् । ।४८ । ।
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