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२०६ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.२. गा. ४६
० मायालोभप्रेमस्वरूपम् ० मायाइ णिस्सिया सा, मायाविट्ठो कहेइ जं भासं। जह एसो देविंदो अहवा सव्वंपि तब्बयणं ।।४४||
स्पष्टा। नवरं यथा - 'एष देवेन्द्र' इति ऐन्द्रजालिकस्याऽवास्तवशक्रप्रदर्शकस्य मायावचनम्। शेषं प्राग्वत् ।।४४ ।। उक्ता मायानिःसृता अथ लोभनिःसृतामाह
'सा लोभणिस्सिया खलु लोभाविट्ठो कहेइ जं भासं। जह पुण्णमिणं माणं अहवा सव्वं पि तव्वयणं ।।४५।।
स्पष्टा । नवरं पूर्णमिदं मानमिति कूटतुलादौ ग्राहकं प्रति लुब्धस्य वणिजो वचनं शेषं प्राग्वत् ४।।४५।। उक्ता लोभनिःसृता । अथ प्रेमनिःसृतामाह __ सा पेम्मणिस्सिया खलु पेम्माविट्ठो कहेइ जं भासं। जह तुज्ज अहं दासो अहवा सव्वंपि तव्वयणं ।।४६ ।। भावना कार्या। ऐन्द्रजालिकस्येति । मन्त्रबलेनाऽविद्यमानवस्तुप्रदर्शनपूर्वं परवञ्चकस्य । मायावचनमिति । हृदयेऽन्यथा कृत्वा बहिरन्यथा व्यवहरणाध्यवसायविशेषो माया तदुक्तम्-'स्वाश्रयाव्यामोहकरत्वे सतीतरव्यामोहकारणं माये'ति, तज्जन्यं वचनं मायावचनम् । परवञ्चनाभिप्रायेण किञ्चित्सत्येन परं प्रत्याययन सम्यगाशयविपत्तितोऽसत्यवाद्येवेति भावः ।।४४।।
लोभनिःसृतेति। परवित्तादिहरणादिहेतुकोऽध्यवसायविशेषो लोभः, तदुक्तम- 'परवित्तादिकं दृष्टवा नेतुं यो हृदि
गाथार्थ :- मायाआविष्ट पुरुष जो बोलता है, जैसे कि - 'यह देवेन्द्र है' वह मायानिःसृत मृषाभाषा है या तो मायावी का सर्व वचन मायानिःसृत भाषास्वरूप है।४४।
__* मायानिःसृत मृषा भाषा ३/२ * विवरणार्थ :- श्लोक का अर्थ स्पष्ट है। सिर्फ दृष्टान्त को इस तरह जानना चाहिए कि - इन्द्रजाल बिछानेवाला मायावी पुरुष अपनी माया से - जादु से - मन्त्र से नकली इन्द्र बना कर लोगों को ठगने की इच्छा से जो कहता है कि 'यह देवों का स्वामी इन्द्र है' इत्यादि, वह वचन मायानिःसृत मृषाभाषास्वरूप है। शेष यानी बचा हुआ श्लोक का चतुर्थ पाद 'अहवा....' इत्यादि का व्याख्यान क्रोधनिःसृत मृषा भाषा की तरह ज्ञातव्य है। संक्षेप में तो गाथार्थ में ही बताया गया है।।४४।।
मायानिःसृत मृषाभाषा का निरूपण पूर्ण हुआ। अब प्रकरणकार लोभनिःसृत भाषा का, जो कि मृषाभाषा के चतुर्थ भेदरूप है, ४५वीं गाथा से निरूपण करते हैं।
गाथार्थ :- लोभाविष्ट पुरुष जो बोलता है, जैसे कि 'यह मान = माप संपूर्ण है' इत्यादि, वह लोभनिःसृत मृषाभाषा है या तो लोभाविष्ट पुरुष का सर्व वचन लोभनिःसृत मृषाभाषा है।४५।
* लोभनिःसृत मृषा भाषा - ४/२ * विवरणार्थ :- श्लोकार्थ स्पष्ट ही है। दृष्टांत में विशेषता यह है कि - धन पर लुब्ध व्यापारी ग्राहक को माल कम देता है, फिर भी वह कहता है कि - 'यह माल पूरा है, कम नहीं है' 'यह माप बराबर है' ये वचन लोभनिःसृत हैं और द्रव्यतः = व्यवहारतः भी मृषा ही है। अतः इनका यहाँ दृष्टान्त के रूप में ग्रहण किया गया है। या तो उसका सब वचन मृषा ही है। इसकी विवेचना क्रोधनिःसृत भाषा की व्याख्या की तरह जाननी चाहिए ।।४५।।
इस तरह लोभनिःसृत मृषाभाषा का निरूपण पूर्ण हुआ। अब ४६वीं गाथा से प्रकरणकार श्रीमद् प्रेमनिःसृत मृषाभाषा का, जो कि मृषाभाषा का पाँचवा भेद है, निरूपण कर रहे हैं।
गाथार्थ :- प्रेमाविष्ट व्यक्ति का वचन जैसे कि - 'मैं तेरा दास हूँ' - यह वचन प्रेमनिःसृत मृषाभाषारूप है या तो प्रेमी का सब वचन प्रेमनिःसृत मृषाभाषारूप है।४६।
१ मायया निःसृता खलु, सा मायाविष्टः कथयित यां भाषाम् । यथैष देवेन्द्रोऽथवा सर्वमपि तद्वचनम् ।।४४ ।। २ सा लोभनिःसृता खलु लोभाविष्टः कथयति यां भाषाम् । यथा पूर्णमिदं मानमथवा सर्वमपि तद्वचनम् ।।४५।। ३ सा प्रेमनिःसृता खलु प्रेमाविष्टः कथयति यां भाषाम् । यथा तवाऽहं दासोऽथवा सर्वमपि तद्वचनम् ।।४६ ।।