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२०४ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.२. गा. ४२
० कर्मबन्धहेतुतायां विचारविशेषः । न बध्यत इति मुग्धाशङ्कायामाह - 'ठिइरसबन्धकराणं हंदि कसायाण चेव अणुरूवं । पयडिप्पएसकम्मं जोगा बज्झति ण विरूपं।।४१।।
हंदीत्युपदर्शने योगाः स्थितिरसबन्धकराणां कषायाणामनुरूपमेव प्रकृतिप्रदेशकर्म बध्नन्ति न विरूपम्। एवं च व्यवहारतः सत्याया अपि कस्याश्चिद्भाषायाः क्लिष्टकर्मबन्धसामग्रीभूतकषायाद्यन्तर्गताया न स्वातन्त्र्येण शुभकर्मबन्धहेतुत्वेन फलवत्त्वं तथा च क्रोधाभिभूतस्य सर्वाऽपि भाषाऽसत्यैवेति स्थितम् ।।४१।।
न तावदस्याः शुभफलाहेतुत्वमेव प्रत्युताऽशुभफलजनकत्वमपीत्याह 'दुट्ठयरा वा सच्चा कोहाविट्ठाण जेण सप्पसरा। मिच्छाभिणिवेसकए, जीवाण हंदि सा होइ ।।४२।।
क्रोधाविष्टानां वा = अथवा दुष्टतरा सत्या, अतिशयिता दुष्टा = दुष्टतरा, कुतः? इत्याह - हंदीत्युपदर्शने येन कारणे सप्रसरा कारणं तु कषाया एव । यद्वा तृणारणिमणिन्यायेन सातेतरकर्मबन्धं प्रति कषायाणां हेतुत्वं सातवेद्यं प्रति तु योगानाम्, असति प्रतिबन्धके । ततश्च कषायसत्त्वदशायां तेनैव द्रव्यतः सत्यवचनरूपस्य शुभयोगस्योपक्षयान्न तस्य शुभकर्मबन्धहेतुत्वम् । शुभकर्मबन्धं प्रति द्रव्ययोगानामन्यथासिद्धत्वं तु जीर्णाभिनवश्रेष्ठिप्रबन्धेन समयप्रसिद्धमेव । ___ वस्तुतस्तु साम्परायिककर्मबन्धं प्रति कषायाणां स्वातन्त्र्येण हेतुत्वम्, ईर्यापथिककर्मबन्धं प्रति तु योगानाम् । साम्परायिककर्मप्रकृति-प्रदेशबन्धं प्रति तु योगानां कषायसहकारिकारणत्वम्। अतः कषायवैपरीत्येण योगानां सांपरायिकप्रकति-प्रदेशबन्धजनकत्वं नास्ति। नहि सौवर्णदण्डे सति मार्त्तकपालात्सौवर्णो घटो भवितमर्हति । अत शुभकर्मबन्धनिर्जरादिरूपफलौपयिकसत्यत्वस्याऽसत्त्वादप्रशस्तकषायाविष्टस्य सर्ववचनयोगेऽसत्यत्वमेवेति सिद्धमिति भावनीयम्।
इस मुग्ध पुरुष की शंका का निराकरण प्रकरणकार ४१वीं गाथा से कर रहे हैं। गाथार्थ :- स्थितिबंध और रसबंध के हेतुभूत कषाय के अनुरूप ही प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध योग से होता है, विपरीत नहीं।४१ ।
* योगनिमित्तक कर्मबंध कषाय के अनुरूप ही होता है * विवरणार्थ :- हंदि. इति। कर्मस्थितिबंध और रसबंध के हेतुभूत कषाय के अनुरूप ही कर्मप्रकृतिबंध और कर्मप्रदेशबंध में योग हेतु होता है, कषाय से विपरीत प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध में योग समर्थ नहीं होता है। प्रस्तुत में अप्रशस्त क्रोधादि कषाय से आविष्ट पुरुष गाय को गाय कहता है तब उसका यह वचन व्यवहारतः = द्रव्यतः सत्य होने पर भी शुभकर्मबंध का जनक नहीं है, क्योंकि उस पुरुष के अप्रशस्त क्रोधादि कषाय अशुभ कर्म की दीर्घ स्थिति के और तीव्र अशुभरस के बन्ध का हेतु है और योग कषायानुकूल कर्मबंध में सहकारी होता है। अतः क्लिष्ट कर्म बंध की सामग्रीभूत कषाय में अंतःप्रविष्ट द्रव्यतः सत्यवचनप्रयोगरूप शुभवचनयोग भी शुभप्रकृतिबंध और प्रदेशबंध में हेतु नहीं होता है। अतएव क्रोधाविष्ट व्यक्ति को व्यवहारतः सत्यवचनरूप शुभवचनयोग के निमित्त से शुभकर्मबंध नहीं होता है। शुभकर्मबंधरूप फल का उपायभूत सत्यत्व न होने से क्रोधादि कषायग्रस्त व्यक्ति का सर्व वचन असत्य ही है, सत्य नहीं - यह फलित होता है।।४१।।
अप्रशस्त क्रोधादि कषाय में अंतर्गत शुभयोग से सिर्फ शुभ कर्मबंध नहीं होता है, इतना ही नहीं किन्तु अशुभकर्मबंध अवश्य होता है - इस बात को प्रकरणकार ४२वीं गाथा से बता रहे हैं।
गाथार्थ :- या तो कषायग्रस्त पुरुष की सत्यभाषा अत्यंत दुष्ट है, क्योंकि उसका प्रसरण होने पर वह जीवों के मिथ्याअभिनिवेश की हेतु होती है।४२। ।
* अप्रशस्तकषायप्रयुक्त भाषा अत्यंत दुष्ट है * विवरणार्थ :- क्रोध से जो भाषा द्रव्यतः सत्य बोली जाती है वह द्रव्यतः मृषाभाषा की अपेक्षा से भी अत्यंत दुष्ट है, क्योंकि १ स्थित्यनुबन्धकराणां हंदि कषायाणामेवानुरूपम् । प्रकृतिप्रदेशकर्म योगा बध्नन्ति न विरूपम् ।।४१।। १ दुष्टतरा वा सत्या क्रोधाविष्टानां येन सप्रसरा। मिथ्याभिनिवेशकृते जीवानां हन्दि सा भवति ।।४२।।